बुधवार, 30 मई 2018

Tolstoy and His Wife - 8.2



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टॉल्स्टॉय के नये जीवन के कार्यक्रम का एक पत्र में इस प्रकार से वर्णन है (ऑक्टोबर 1882) : “संक्षेप में और मोटे तौर पर, मगर एकदम सही-सही, व्यावहारिक रूप से कह सकते हैं : जहाँ तक संभव हो अपने लिए दूसरे लोगों के श्रम की मांग को कम करें, मतलब, अपनी ज़रूरतें कम करें और दूसरों के लिए अपने श्रम में वृद्धि करें, या अगर आप अब तक नहीं कर रहे थे, तो शुरू करें. ये सब शुद्धता से करें मतलब, शरीर और आत्मा को नापाक करने वाले पापों से बचें (शराब की लत, व्यभिचार) और प्यार से करें, मतलब, ऐसा करते हुए उन लोगों को तकलीफ़ न पहुँचाएँ, जो मुझसे जुड़े हुए हैं या मेरे काम की राह में खड़े हैं”.      
          
सन् 1881 में ही टॉल्स्टॉय ने किसानों के शारीरिक श्रम को करने की कोशिश की थी. मॉस्को में, सर्दियों में, वह वरोब्योव पहाडों (मॉस्को की निकटतम सीमा) की सैर करता था और वहाँ काम करता तथा लकड़ी चीरने वालों से ज़िंदगी के बारे में बातें करता था. गाँव में वह खेती के कामों में भाग लेने लगा.

उसकी इन “सनकों” से बीबी ज़्यादा परेशान नहीं होती थी : उसे ऐसा लगता था, कि शारीरिक श्रम पति के लिए लाभदायक है और वह बस इसी बात का ध्यान रखती थी, कि शारीरिक श्रम के प्रति 
अत्यधिक लगाव उसकी सेहत को नुक्सान न पहुँचाए.

बाद में, जब टॉल्स्टॉय के नये विचारों ने एक निश्चित स्वरूप ग्रहण कर लिया, जब उसके भाषणों में परिवार की “ऐशो- आराम” वाली ज़िंदगी के ख़िलाफ़ आलोचना के सुर सुनाई देने लगे, ख़ासकर, जब ये भाषण घरेलू उपदेशों तक सीमित नहीं रहे (कभी-कभी काफ़ी तीव्र हो जाते थे), और उसके प्रकाशित लेखों से भी झाँकने लगे, तो सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने इस पूरी “टॉल्स्टॉयगिरी” के ख़िलाफ़ खुल्लमखुल्ला शत्रुत्व का रुख अपना लिया. उसकी नज़रों में ये निरी “मूर्खता” थी. कटुता और चिड़चिड़ाहट के क्षणों में वह अपने पति की ईमानदारी पर संदेह करने के लिए तैयार थी. सामान्य समय में टॉल्स्टॉय अपने जहाज़ को घरेलू तमाशों के गड्ढों से शांतिपूर्वक खींचकर ले जाना चाहता. मगर वह ज़िद्दीपन से अपनी ही बात पर अड़ा रहता. और सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को उँगलियों के बीच से इस “मूर्खता” को देखने की आदत पड़ रही थी. उसके जीवन का उद्देश्य अब काफ़ी हद तक ये था कि परिवार की सम्पत्ति को बचाए रखे, बच्चों की आय के साधनों की रक्षा करे और उनमें वृद्धि करे, उनके पालन-पोषण में कुलीन परम्पराओं पर अडी रहे, उनके लिए उच्च समाज के अनुसार व्यवसाय का इंतज़ाम करे. इन क्षेत्रों में वह अडिग रही.

सन् 1884 में टॉल्स्टॉय ने सम्पत्ति के इंतज़ाम से दूर रहने का फ़ैसला किया. पत्नी के कमरे में आकर उसने परेशानी से उससे कहा:
“मेरे लिए सम्पत्ति का स्वामित्व रखना और उसका इंतज़ाम करना इतना मुश्किल हो रहा है, कि मैंने उससे छुटकारा पाने का निश्चय कर लिया है, और अब मैं पहले तुमसे कह रहा हूँ : सब कुछ ले लो, घर भी और ज़मीन भी, और मेरी रचनाएँ भी, और जैसा कर सकती हो, वैसे उनका इंतज़ाम करो: जो भी कागज़ात आवश्यक हैं, मैं तुम्हें दूँगा.”
“इसकी क्या ज़रूरत है?”
“मैं सम्पत्ति को बुराई समझता हूँ और अपने पास कुछ भी नहीं रखना चाहता.
“इसलिए तुम ये बुराई मुझे सौंपना चाहते हो? अपने निकटतम के व्यक्ति को?”
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना रोने लगी.
मुझे ये सब नहीं चाहिए और मैं कुछ भी नहीं लूँगी.”

मगर, आख़िरकार वह राज़ी हो गई और उससे जायदाद का इंतज़ाम करने का सम्पूर्ण अधिकार-पत्र ले लिया.

“अनुभवहीन, पास में एक कोपेक भी नहीं,” सोफ्या अन्द्रेयेव्ना लिखती है, “मैंने पूरे जोश से किताबों के प्रकाशन कार्य का और फिर टॉल्स्टॉय की रचनाओं की बिक्री और सदस्यता का अध्ययन शुरू कर दिया. जायदादों का और आम तौर से सभी कामों का इंतज़ाम करना पड़ा. एक बड़े परिवार के साथ, और बिना किसी अनुभव के ये सब कितना मुश्किल था! कई बार सेन्सरशिप के लिए भी परेशान होना पड़ता और इसके लिए पीटरबुर्ग जाना पड़ता...”

सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने अपने कई मित्रों से सलाह-मशविरा किया और वह दस्तयेव्स्की की विधवा से भी मिली, जिसने पति के जीवनकाल में ही उसकी रचनाओं का प्रकाशन अपने हाथ में ले लिया था. काम बहुत बढ़िया तरीके से चल पड़ा. कुछेक पुस्तक विक्रेताओं द्वारा डाली गई रुकावटों को दूर करने के बाद, सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना अपने पति की रचनाओं को काफ़ी लाभ से बेचने में सफ़ल हुई. सन् 1886 से उसने स्वयम् ही प्रकाशन कार्य आरंभ कर दिया. पहले टॉल्स्टॉय की रचनाओं के संकलन 5-6 सालों में एक बार निकलते थे. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने अपनी दूसरी आवृत्ति (सामान्य सूची में छठी आवृति) 1887 के आरंभ में ही निकाल दी. साल के अंत में नई आवृति की मांग प्रस्तुत हुई. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना की चौथी आवृति  (सामान्य सूची में आठवीं) सन् 1889 में प्रकाशित हुई. जायदाद के इंतज़ाम का काम भी इसी तरह बढ़िया चल रहा था.

परिवार में उसकी ज़िम्मेदारियाँ बढ़ रही थीं. “पिता,” वह लिखती है, “परिवार की ज़िंदगी से निरंतर दूर जा रहे थे. घर में एक साथ नौ बच्चे थे, और, जैसे जैसे वे बड़े हो रहे थे, उनका पालन-पोषण और उनसे योग्य बर्ताव करना अधिकाधिक मुश्किल होता जा रहा था. पिता तो उनसे अधिकाधिक दूर होते जा रहे थे और, आख़िर में, उन्होंने बच्चों के पालन-पोषण में भाग लेने से बिल्कुल इनकार कर दिया, इस बात के आधार पर कि उन्हें ख़ुदा के कानून के पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाया जाता है, जिसे मैं उनके लिये हानिकारक मानता हूँ.

अपने “सरलीकरण” को टॉल्स्टॉय ने अपनी पोषाक से आरंभ किया : शीघ्र ही वह किसानों जैसी पोषाक पहनने लगा. व्यक्तिगत जीवन में उसने किसी सेवक की मदद लेने से इनकार कर दिया, अपने कमरे की सफ़ाई ख़ुद ही करता था, कपड़े, जूते भी ख़ुद ही साफ़ करता और ख़ुद ही बाहर लाता. पहले वह अपनी ही भट्टी गरम करता था, बाद में वह पूरे घर की भट्टियाँ गरम करने लगा. एक बार सर्दियों में उसने सेवक को लकड़ियाँ छीलने और काटने से मना कर दिया. फिर बारी आई पानी की. ल्येव निकोलायेविच सुबह जल्दी उठ जाता (अंधेरा रहते ही), पूरे घर के लिए कुँए से पानी निकाल कर लाता और किचन में बर्फ से ढंकी स्लेज पर पानी से भरा हुआ टब खींच कर लाता. सन् 1884 में उसने मोची का काम सीखना शुरू किया. अध्ययन कक्ष के बगल वाले कमरे में छोटी छोटी तिपाहियाँ रखी होती थीं. चमडे की गंध आती रहती. एक परिचित मोची टॉल्स्टॉय के पास आता और घंटों उसके साथ जूतों पर काम करता. जल्दी ही ल्येव निकोलायेविच ने इतनी प्रगति कर ली कि उसकी लड़कियाँ उसके बनाये हुए जूतें पहनने लगीं.

गाँव में वह अपने लम्बे-चौड़े बगीचों में घास काटता और अक्सर किसानों की कटाई के काम पर निकल जाता. यास्नाया पल्याना के किसान मालिकों की घास का आधा हिस्सा लेते थे, मतलब ये कि अपने काम के लिए वह आधी फसल लेते थे. टॉल्स्टॉय कभी एक खेत पर तो कभी दूसरे खेत पर काम करता, उनकी मदद करता और, बेशक, उनके द्वारा अर्जित घास उनके लिए छोड़ देता. धीरे धीरे वह किसानों के अन्य कामों की ओर मुड़ा ( खेत जोतना, हेंगा चलाना), छोटे किसानों के परिवारों की उनके अपने खेतों पर मदद करता. कभी ऐसा भी होता, कि वह किसान का पूरा भार अपने ऊपर ले लेता, मतलब किसी विधवा के खेतों पर सभी कामों की ज़िम्मेदारी ले लेता, जिसके पास मज़दूर रखने के लिए पैसे नहीं होते थे. धीरे-धीरे परिवार को इन विचित्रताओं की आदत होने लगी. उसकी बेटियाँ ( ख़ासकर – दूसरी, मारिया) अक्सर उसकी मदद करने के लिए आ जाती थीं. मेज़बान से प्रेरणा लेकर कभी-कभी मेहमान भी काम की ओर आकर्षित हो जाते थे.

विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों का जीवन कुछ समय से टॉल्स्टॉय की कल्पना में “शानदार राजकुमार ब्लोखिन” का रूप धारण कर रहा था. एक पागल किसान, जो यास्नाया पल्याना के बाहरी इलाके में घूमता रहता था, अपने आप को इसी नाम से बुलाता. तुर्की के युद्ध के दौरान वह खाद्य अधिकारी के लिए ब्रेड खरीदता था. किसान इसलिए पागल हो गया कि वह सोचने लगा था, कि वह भी मालिकों की तरह बिना काम किए ऊपर से खाद्य सामग्री पा सकता है. वह अपने आप को “शानदार राजकुमार ब्लोखिन कहता, जो सेना के सभी वर्गों को खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करता था”. अपने बारे में वो ये कहता, कि उसने सभी रैंक्स पास कर ली हैं और, फ़ौजी सेवा पूरी करने के बाद, उसे त्सार से खुला बैंक, कपड़े, युनिफॉर्म, घोड़े, गाड़ियाँ, चाय, दाल, सेवक और हर तरह की खाद्य सामग्री मिलना चाहिए”; ये सवाल पूछने पर कि क्या वह काम करना चाहता है? ब्लोखिन हमेशा जवाब देता : “बहुत मेहेरबानी, इसकी देखभाल किसान कर देते हैं”.

“और अगर किसान भी काम न करना चाहें तो?”
“अब तो किसानों का काम आसान करने के लिए मशीनें आ गई हैं. उनके लिए कोई मुश्किल नहीं है”.
“तो फिर तुम जीते किसलिए हो?”
“वक्त काटने के लिए”.

टॉल्स्टॉय की राय में सभी विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति “ब्लोखिनमनिया” से पीड़ित हैं. उसका परिवार भी अपवाद नहीं है. वाकई में, यास्नाया पल्याना के नौजवान दूर से देखने वालों पर अच्छा प्रभाव डालते थे. इनमें से ज़्यादातर प्यारे नौजवान और लड़कियाँ थीं – सीधे-सादे, ईमानदार, भले. टॉल्स्टॉय के प्रति उनके लगाव में कोई कमी नहीं आई थी. मगर उनके भीतर ख़ुशनुमा जवान ज़िंदगी का एक झरना था, और उसके सम्मोहन के नशे से टॉल्स्टॉय के पुरातन विचार लड़खड़ा जाते थे. अधिकांश नौजवान सैद्धांतिक रूप से अपनी परिस्थिति से इनकार नहीं कर सकते थे और न ही वो ऐसा चाहते थे, मगर वे ख़ुशी-खुशी सरलीकरण के मार्ग पर चल पड़े, और काम पर (ख़ासकर – खेती के) भी गए. ल्येव टॉल्स्टॉय का उदाहरण उन्हें संक्रमित कर रहा था. कभी-कभी खेतों में नौजवानों की पूरी टीम बिखर जाती और ज़ोर-शोर से किसानों के कामों में भाग लेती. मेज़बानों और मेहमानों की पूरी टीमें बन जातीं और वे हँसी-खुशी डिस्टिलेशन का काम करतीं. इल्या ल्वोविच तो जूते बनाना भी सीख गया.

एक बार तो ख़ुद काउन्टेस सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने, इस आम “पागलपन” से संक्रमित होकर, सराफ़ान पहन लिया और मैदान में घास सुखाने लगी. यास्नाया पल्याना के किसान याद करते हैं, कि कैसे टॉल्स्टॉय एक बार प्रवासी जापानी पत्रकार को उनकी मदद के लिए खींच लाया था. वे बड़ी दिलचस्पी से बूढ़े आर्टिस्ट गे को उस झोंपडी में भट्टी लगाते हुए देख रहे थे, जो ल्येव निकोलायेविच ने गरीब विधवा के लिए बनाई थी.

टॉल्स्टॉय “वक्त बिताने के लिए” शारीरिक श्रम नहीं करता था. जैसे ज़िंदगी में हमेशा रहता था, वह इसके प्रति भी ईमानदार और बेहद गंभीर रहा.

यास्नाया पल्याना के किसान इसे महसूस करते थे. वे अमीर ज़मींदारों की सनकों के आदी थे. वे कहते थे, कि ल्येव निकोलायेविच “आत्मा के लिए” काम करता है. मगर, बेशक, वे टॉल्स्टॉय परिवार के अंतरंग रिश्तों से नावाकिफ़ थे और ये नहीं समझ सकते थे, कि भला और अमीर ज़मींदार ज़रूरतमन्दों की पैसों से सहायता क्यों नहीं करता था. एक औसत किसान में श्रम को आदर्श बनाने की इच्छा का अभाव था, जो महान लेखक उनके भीतर देखना चाहता था. किसान को यकीन था, कि वो नहीं, बल्कि “ज़रूरत हल चलाती है”. और ये तत्व (श्रम की अपरिहार्यता और अनिवार्यता) उसे न तो मिला और “मालिकों” में मिल भी नहीं सकता था. असल में : टॉल्स्टॉय को कभी शारीरिक श्रम से परिवार की या ख़ुद की देखभाल की कोशिश करने का मौका ही नहीं मिला. ये, बेशक, उससे छुपा नहीं था और कभी कभी वह शिकायत करता, कि “उसका शारीरिक श्रम लगभग उद्देश्यहीन है, क्योंकि अनिवार्यता के कारण नहीं किया जाता है”.

इस बीच, यहीं पर उसके सिद्धांत और अभ्यास के बीच विचलन आरंभ हुआ. उसके बौद्धिक कार्य की उल्लेखनीय विशेषता ये थी, कि हर बार, जब वह मौजूदा परिस्थिति की आलोचना करता, तो उसे अपने सामने वास्तविक जीवन दिखाई देता और श्रमिकों के दुर्भाग्य का चित्र वह बेहद चौंकाने वाली गहराई, सच्चाई और सामर्थ्य से करता; मगर जैसे ही आलोचना से सृजन की ओर जाता, पल भर में ही हर तरह की वास्तविकता को भूल जाता और हवाई किले बनाने लगता. उसके सिद्धांत के अनुसार (“मेरा धर्म क्या है?) हर श्रमिक को खाना पाने का हक है, और इसलिए मज़दूर को हमेशा अपने और परिवार के निर्वाह के साधन मिल जाएँगे.                               

मगर किस्मत तो शायद ज़िंदा मिसाल प्रस्तुत करके  टॉल्स्टॉय को आसमान से ज़मीन पर लाना चाहती थी.

अस्सी के दशक के मध्य में यास्नाया पल्याना में एक जवान, ख़ूबसूरत यहूदी आइज़ाक फाइनरमैन आया. टॉल्स्टॉय के विचारों से आकर्षित होकर उसने रूसी लोगों की सेवा करने का फ़ैसला किया. फाइनरमैन गाँव आया, जिससे शिक्षक के रूप में काम कर सके. तत्कालीन रिवाजों के अनुसार यहूदी के लिए ये एकदम असंभव था. उसने ऑर्थोडोक्स मत ग्रहण किया. मगर पब्लिक स्कूलों के शासकीय डाइरेक्टरेट ने फिर भी पढ़ाने की इजाज़त नहीं दी. तब उसने यास्नाया पल्याना में रहने और टॉल्स्टॉय के गॉस्पेल के अनुसार श्रम से ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने का निश्चय किया. वह किसान की झोंपड़ी में रहता था, किसानों वाला खाना खाता था, अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम स्तर तक ले आया, मन  लगाकर काम करता. उसके पास उसकी जवान, ख़ूबसूरत यहूदी बीबी बच्चे को लेकर आई. शीघ्र ही उन्हें बेहद तंगी महसूस होने लगी. बच्चे की ज़िंदगी बचाने के लिए बीबी को भीख मांगना पड़ा. टॉल्स्टॉय ने उसे पैसे देकर पत्र लिखवाने का काम दिया. वह इस ज़िंदगी को बर्दाश्त नहीं कर पाई और पति को छोड़कर चली गई. फाइनरमैन ज़िद से काम करता ही रहा. एक बार शाम को वह टॉल्स्टॉय के यहाँ गया. मेज़बान ने मेहमान से कुछ पढ़कर सुनाने को कहा. अचानक, पढ़ते-पढ़ते फाइनरमैन का चेहरा विवर्ण हो गया और वह बेहोश होकर फर्श पर गिर गया. उसने पूरे दिन काम किया था, कुछ भी नहीं खाया था और भूख के कारण शक्तिहीन हो गया था.
इस घटना ने टॉल्स्टॉय को झकझोर दिया. वह उसे कभी भी भूल नहीं सका.

अस्सी के दशक के आरंभ में, अपने भरेपूरे, प्रसन्न, अच्छे परिवार के बीच भी टॉल्स्टॉय स्वयम् को बेहद अकेला महसूस कर रहा था. बिल्कुल अनजान संवाददाता के सामने, जिसके ख़तों में उसे अपने मतों के प्रति सहानुभूति महसूस हुई, उसने अपने दिल का दर्द उंडेल दिया और यकीन दिलाया, कि वह कल्पना भी नहीं कर सकता, कि वह, याने टॉल्स्टॉय , कितना अकेला है, किस सीमा तक वो, जो उसका वर्तमान “मैं” है, चारों ओर के लोगों द्वारा तिरस्कृत है...”

घोर बुढ़ापे में भी सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को इस ख़त के बारे में याद था. सन् 1909 में उसने लिखा:
“मैंने उसे लिफ़ाफ़े मे रखा और उस पर लिखा: “एंगेलहार्ट को पत्र, जिसे ल्येव निकोलायेविच ने न सिर्फ कभी जाना नहीं, बल्कि कभी देखा भी नहीं”, और फिर जो चाहे, फ़ैसला करें. इस पत्र से मैं बहुत आहत हुई थी.”

टॉल्स्टॉय अपने ऊपर हावी घोर निराशा से निजात पाने के लिए समान विचारों वाले लोगों के निकट आ रहा था. सन् 1881 में ही उसने किसान स्युताएव के बारे में सुना था, जो अपनी ही राहों पर चलकर टॉल्स्टॉय के विचारों तक पहुँचा था. ल्येव निकोलायेविच ने वहीं पर जाकर इस बारे में छानबीन करने का फ़ैसला किया. वह त्वेर्स्काया प्रांत के अपने परिचित ज़मींदारों के पास गया: स्युताएव वहाँ से 9 मील दूर रहता था. टॉल्स्टॉय को वहाँ एक स्नेहशील परिवार और आकर्षक बूढा किसान मिला, जो अपने ढंग से गॉस्पेल की व्याख्या करता था. वह हिज्जे करके पढ़ता था, लिखना उसे बिल्कुल नहीं आता था. स्युतायेव की शिक्षा लोगों के बीच परस्पर सक्रिय प्यार की और व्यक्तिगत सम्पत्ति को नकारने की सीख देती थी. स्युतायेव के बेटों में से एक ने धार्मिक कारणों से फ़ौजी सेवा से इनकार कर दिया था और इस कारण से जेल में सड़ रहा था. बूढ़ा बहुत ग़रीब नहीं था, मगर स्वेच्छा से गाँव में घृणित समझा जाने वाला चरवाहे का काम करता था, इस इच्छा से, कि मवेशियों को पर्याप्त दाना-पानी मिले. स्युतायेव ने सम्राट अलेक्सान्द्र III के माध्यम से अपनी शिक्षा का प्रसार करने का निश्चय किया. वह त्सार से ये विनती करने पीटरबुर्ग गया, कि वह “लोगों की भलाई के लिए ये आज्ञा दे, कि गॉस्पेल्स की व्याख्या स्युतायेव की समझ के अनुसार की जाए...” टॉल्स्टॉय इस भोले आदर्शवादी के काफ़ी करीब आया. मेहमान को बिदा करते हुए, स्युतायेव ने गाड़ी जोती, मगर, अपने विश्वास के अनुसार, हाथ में चाबुक नहीं लिया. वे धीरे-धीरे जा रहे थे, मानवता को बचाने के लिए “दोस्तों की तरह, दिल से” चर्चा कर रहे थे. मगर इस बीच पता ही नहीं चला, कि घोड़ा कब खड्डे में घुस गया. गाड़ी उलट गई और ज़मीन पर फिंके हुए सपना देखने वाले चारों ओर की हकीकत में वापस आए. सन् 1892 में स्युतायेव की मृत्यु हो गई और उसका समुदाय बिखर गया. वह कई बार मॉस्को गया, टॉल्स्टॉय के यहाँ रुका, जो एक समय उसे उच्च समाज के मेहमानखानों में प्रवचन के लिए ले जाता और उसने उसे काफ़ी लोकप्रिय बना दिया था.

समान विचारों वाले और नये मित्र बनाने की ज्वलन्त इच्छा धीरे-धीरे संतुष्ट हो रही थी.

इनमें पहला था(सन् 1882 में) काफ़ी मशहूर आर्टिस्ट गे. युक्रेन में अपने फ़ार्म में बैठकर उसने टॉल्स्टॉय का एक लेख पढ़ा और, पहले ही लम्बी आध्यात्मिक प्रक्रिया से तैयार, वह अचानक समझ गया, कि उसे किस चीज़ की आवश्यकता है, और उसने फ़ौरन नए धर्म को स्वीकार कर लिया. एक निश्चय के साथ वह मॉस्को लपका, टॉल्स्टॉय के घर में घुस गया, उसे देखा, बाँहों में लिया, उसे चूमा और अपनी मृत्यु तक उसका हमदर्द दोस्त और विनीत प्रशंसक बना रहा. बड़ी-बड़ी नीली, मासूम आँखों और सफ़ेद लम्बे घुंघराले बालों वाला पचास साल का ये आदर्शवादी टॉल्स्टॉय के परिवार में सबको पसंद आ गया. उसने सोफ्या अन्द्रेयेव्ना का चित्र बनाना आरंभ किया, और उसने भी झालर वाली मखमल की पोषाक पहनकर ख़ुशी-ख़ुशी पोज़दिया. मगर “अंकल” गे के चित्र में, उसके शब्दों में, “प्रकट हुई मखमल की पोषाक पहनी एक महिला, जिसकी जेब में चालीस हज़ार थे...”. बहुत उद्विग्न होकर उसने वह चित्र नष्ट कर दिया.

मगर टॉल्स्टॉय परिवार में व्लादीमिर चेर्त्कोव का आगमन बिल्कुल अलग ही तरह का रहा. ये हुआ था सन् 1883 के अंत में और ख़ुद टॉल्स्टॉय, और उसके परिवार के लिए भी इसके गंभीर परिणाम हुए.

चेर्त्कोव गवर्नर–जनरल का बेटा था. उसकी माँ का दरबार में महत्वपूर्ण स्थान था. उसका अपना लालन-पालन भावी सम्राट अलेक्सान्द्र III के साथ हुआ था. वरोनेझ प्रांत में चेर्त्कोव परिवार की जागीर थी, जिससे चालीस हज़ार स्वर्ण रूबल्स की आय होती थी. सबसे अभिजात रेजिमेंट (घुड़सवार गार्ड्स) के ख़ूबसूरत, होनहार अफ़सर, चेर्त्कोव को उच्च समाज में असामान्य सफ़लता प्राप्त थी. औरतें उसके पीछे पागल थीं. वह बड़ी उद्दाम ज़िंदगी जीता, खूब शराब पीता, जुआ खेलता... मगर कभी-कभी सोसाइटी की ये शोरगुल भरी सफ़लताएँ उसे संतुष्ट नहीं करतीं. ज़िंदगी में अक्सर संदेहों और धार्मिक खोजों के दौर भी आते. सन् 1881 के आरंभ में चेर्त्कोव ने अपने माता-पिता को उसके नौकरी छोड़ने की इजाज़त देने के लिए मना लिया, “हमें अनाज देने वाले किसानों से निकटता स्थापित करने के लिए और उनके हित में काम करने के लिए” वह वरोनेझ की जागीर में गया. उसने अपने जीवन को अत्यंत सरल बना लिया और स्थानीय प्रशासन में किसानों के लिए डट कर काम करने लगा और ग़रीबों के लिए अनेक स्वतन्त्र संस्थाएँ स्थापित करने लगा. उसने टॉल्स्टॉय की शिक्षा के बारे में काफी पहले सुना था, दो साल बाद वह उसके पास आया. उनकी इस मुलाकात से उनकी निकटता आरंभ हुई, जो कई सालों की दोस्ती में बदल गई. आख़िरकार, एक सच्चा दोस्त और अनुयायी मिल गया था!... और, कोई और नहीं, बल्कि ऐसा आदमी, जो निःसंदेह ईमानदार और समर्पित था, जिसने नए वैश्विक दृष्टिकोण के लिए काफ़ी त्याग किया था. अपनी गंभीरता, स्पष्टवादिता, शांत आत्मविश्वास और सरलता से उसने टॉल्स्टॉय को बेहद प्रभावित किया. बाद में कई लोगों को इस प्रभाव पर अचरज हुआ, जो विद्वान टॉल्स्टॉय पर उसके इस मित्र ने डाला था, जिसकी अपनी योग्यताएँ, बेशक, बेहद कम थीं. मगर चेर्त्कोव ने अपनी कट्टरता से, नई क्रिश्चियन आस्था में शुद्धता से और पांडित्य-प्रदर्शन से टॉल्स्टॉय को उस गुण से भी परिपूर्ण किया, जिसकी महान कलाकार के महान और अस्थिर स्वभाव में कमी थी. दूर से देखने वालों को, जिनके पास चेर्त्कोव से दुष्टता का व्यवहार करने का कोई कारण नहीं था, उसमें विकृति के, अस्वाभाविकता के लक्षण नज़र आ रहे थे.                                               

प्रोफेसर लाज़ूर्स्की, जो युवावस्था में टॉल्स्टॉय परिवार में शिक्षक रह चुके थे, अपने संस्मरणों में लिखते हैं:

“इस आदमी को मैं कम ही समझ पाया, मैं अचरज से उसकी ओर देखता रहता. कभी मुझे लगता कि ऐसी आँखें संतों की मूर्तियों की होती हैं, कभी ऐसा लगता कि चेर्त्कोव में कुछ बीमार-सा या सीमित-सा है...”

चेर्त्कोव की लोगों से कम पटती थी, शायद, उसकी फूहड़ स्पष्टवादिता के कारण, हालाँकि, जब वह चाहता, तो प्यार से भी पेश आ सकता था. अपनी दृढ़ता के कारण वह अक्सर बेवकूफ़ प्रतीत होता और हास्यास्पद परिस्थितियों से घिर जाता.

ये मित्र’ “टॉल्स्टॉयवाद” का दूत बन गया और अब तक है.

आम तौर से टॉल्स्टॉय की शिक्षा, धीरे-धीरे फैलते हुए, अधिकाधिक विविध प्रकार के लोगों को उसकी तरफ़ आकर्षित कर रही थी. टॉल्स्टॉय द्वारा की गई साहसी, अराजकतावादी आलोचना से आकर्षित होकर कई बार क्रांतिकारी और आतंकवादी भी आया करते थे. ऐसे लोग गुप्त रूप से आते और अक्सर, टॉल्स्टॉय से चर्चा करने के बाद असंतुष्ट होकर हमेशा के लिए गायब हो जाते. ल्येव निकोलायेविच का परिवार उन्हें “काले लोग” कहता था. बाद में इस नाम के अंतर्गत सभी “टॉल्स्टॉयवादी” आने लगे, जो महान लेखक के निकट आना चाहते थे. धीरे-धीरे टॉल्स्टॉय के चारों ओर अपनी दुनियाबनने लगी, जिससे टॉल्स्टॉय का परिवार बड़ी सावधानी से पेश आता था. मगर इस तरह से ल्येव निकोलायेविच का बोझिल वैचारिक अकेलापन, जिसके बारे में वह बड़ी कटुता से शिकायत करता था, विगत की सीमा में जाने लगा.

अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में “सहानुभूति रखने वालों” और “रुचि दिखाने वालों” की संख्या काफ़ी बढ़ गई थी. टॉल्स्टॉय परिवार का खमोव्निचेस्की गली वाला घर आने-जाने वालों से भरा रहता था. महान लेखक पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो रहा था. सभी उससे मिलना चाहते थे.

सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना बड़े जोश से सारी व्यवस्था संभाल रही थी. पति की लोकप्रियता उसे अच्छी लगती थी. बेशक, अपने ड्राइंग रूम में वह सिर्फ मशहूर हस्तियों, विदेशियों और उच्च समाज के परिचितों का ही स्वागत करना चाहती थी. मगर पिछले कुछ समय से “काले लोगों” की बेकाबू भीड़ ल्येव निकोलायेविच के अध्ययन-कक्ष में खिंची चली आती थी. बिना नाम के वैज्ञानिक, नौजवान लेखक, स्टूडेन्ट्स लड़के और लड़कियाँ, सेमिनरियों के विद्यार्थी, मज़दूर, किसान (विशेषतः सम्प्रदाय के सदस्य), रूसी कुर्ते पहने, लम्बी दाढ़ियों वाले टॉल्स्टॉयवादी”, अपनी झिझक और संकोच छोड़कर वे पवित्र द्वार की घंटी बजाते और नम्र सेवकों द्वारा घर की सीढियों और ओने-कोनों से होकर “शिक्षक” के अध्ययन-कक्ष तक ले जाए जाते. टॉल्स्टॉय के कार्यक्रम में लोगों से संवाद साधना बेहद महत्वपूर्ण था, और इस क्षेत्र में टॉल्स्टॉय कोई कमी नहीं छोड़ता था. मगर ये कठिन कार्य था. कमरे में इतने विविध प्रकार के लोग इकट्ठे होते थे, कि सिर्फ ल्येव निकोलायेविच की असाधारण कुशलता ही इन लोगों पर हावी विचारों की और आध्यात्मिक रुचियों की चिरंतन अग्नि को शांत स्वरों से संतुलित करती थी. कभी कभी स्पष्टवक्ता टॉल्स्टॉयवादी दासों जैसी परिस्थितियों की विसंगति पर टूट पड़ते थे, जिनमें वह अपने आदर्शों के साथ रहता है. टॉल्स्टॉय तन कर खड़ा हो जाता, चमकती आँखों से, ज़िद्दीपन से इस बात पर ज़ोर देता, कि सबसे महत्वपूर्ण है कि प्रस्तुत घडी में अपने चारों ओर के आदमियों से अच्छे रिश्ते बरकरार रखे जाएँ, और अगर इसके लिए अपनी पुरानी समृद्ध ज़िंदगी की परिस्थितियों में रहना ज़रूरी हो, तो बेहतर है कि अपने मन की शांति का बलिदान दिया जाए.

“और अगर इन करीबी लोगों की शांति के लिए ये ज़रूरी हो, कि मैं डाका डालूँ, तो?” वे धृष्ठता से पूछते...

सोफ्या अन्द्रेयेव्ना की चाय की मेज़ पर भी दूसरे अंदाज़ में अंतहीन चर्चाएँ होतीं. यहाँ टॉल्स्टॉय को कई बार कला, विज्ञान, धर्म के बारे में अपने दृष्टिकोण का आधिकारिक वैज्ञानिकों और प्रसिद्ध हस्तियों से बचाव करना पड़ता. दार्शनिक व्लादिमीर सलव्योव से उसकी बहस काफ़ी तीखी हो जाती थी...

टॉल्स्टॉय में जुझारू प्रवृत्ति काफ़ी प्रबल थी. मगर इन निरंतर युद्धों से वह थक जाता था. और वह कभी-कभी मॉस्को के शोर-गुल से भागकर अपने मित्रों के गाँवों में या – अक्सर – यास्नाया पल्याना चला जाता. कभी-कभी ये यात्रा (यास्नाया पल्याना की) (लगभग 200 किलोमीटर्स) टॉल्स्टॉय पैदल ही करता – अपनी पसंद के दो या तीन लोगों के साथ. किसान की पोषाक पहने, हाथ में छड़ी लिए एक अनजान बूढ़ा पैदल जाने वाले आम लोगों से निरंतर पहचान बनाकर बातचीत करते हुए चलता जाता. उसके सामने ख़ुदा की पूरी सृष्टि खुलती जाती – उन औपचारिक चौखटों से बाहर, जिनमें आमतौर से महान लेखक, काउन्ट ल्येव निकोलायेविच टॉल्स्टॉय रहते थे. और ये यात्राएँ, जो उसकी आत्मा को शांति और संतोष देती थीं, अक्सर उसके लेखकीय निरीक्षण के लिए भी अक्सर अप्रत्याशित और शानदार सामग्री प्रदान करती थीं.

अक्सर वह रेल से जाता, तीसरे दर्जे में. आम तौर से यास्नाया के सफ़र, ये “गाँव की ज़िंदगी का हम्माम” उसके लिए ज़रूरी हो गए थे. अक्सर सर्दियों में, दो महीनों में एक बार वह मॉस्को से भाग जाता था. अपने स्टेशन पर कम्पार्टमेन्ट से निकल कर और गाँव की सर्दियों की रात की स्तब्धता को आत्मसात् करते हुए, वह प्रसन्नता जैसी भावना को महसूस करता : जंगल के ऊपर तारों भरे आकाश में ओरियन और सिरियस चमकते होते, जंगल में फूली-फूली, निःशब्द बर्फ गिरती रहती; अपने बेहद निकट वह अपने भले घोड़े, और भली हवा, और भली मीशा, और दयालु ख़ुदा को महसूस करता

गाँव में उसने अपने ढंग से ज़िंदगी को व्यवस्थित कर लिया था. और वहाँ उसे अक्सर “बेमिसाल ख़ुशी” होती.

मगर सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने लिखा: “कल पहला ख़त मिला; उसे पढ़कर मैं उदास हो गई. मैं देख रही हूँ, कि तुम यास्नाया में उस बौद्धिक कार्य की वजह से नहीं रुके हो, जिसे ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा महत्व देती हूँ, बल्कि रॉबिन्सन के खेल के लिए रुके हो. एड्रियान को छुट्टी दे दी, जो सब कुछ भुला कर महीने भर जीना चाहता था, रसोइए को छुट्टी दे दी, जिसके लिए मुफ़्त में तनख़्वाह पाना बड़ी ख़ुशी की बात है, और सुबह से शाम तक तुम वैसी ही शारीरिक मेहनत करते रहोगे, जो सीधी-सादी ज़िंदगी में जवान छोकरे और औरतें करती हैं. बेहतर और ज़्यादा फ़ायदेमंद होता बच्चों के साथ रहना. तुम, बेशक, कहोगे, कि इस तरह से जीना – ये तुम्हारी मान्यताओं के अनुसार है और तुम्हें ये ही अच्छा लगता है; तब बात और है, और मैं सिर्फ इतना कहूँगी : “ख़ुश रहो”, मगर फिर भी दुख होता है, कि ऐसी बौद्धिक योग्यता घास काटने में, समोवार गरमाने में और जूते सीने में बर्बाद हो रही है, कि आराम की ख़ातिर तो सब ठीक है – श्रम का परिवर्तन भी, मगर एक विशिष्ठ व्यवसाय की तरह, ये ठीक नहीं है.  तो, अब इस बारे में ख़त्म करती हूँ. अगर मैंने ये न लिखा होता, तो मेरे मन में चुभन रह जाती, मगर अब वो निकल गई है, मुझे हँसी आ रही है, और मैं इस कहावत को याद करके शांत हो गई हूँ : कुछ भी करो, बस, बच्चा रोए नहीं”.

मगर, उसी दिन उसने ये भी जोड़ा: “मैं अचानक स्पष्ट रूप से तुम्हें समझ गई हूँ, और अचानक मन में तुम्हारे प्रति प्यार की लहर दौड़ गई है. तुममें ऐसा कुछ है तो सही - बुद्धिमानी जैसा, भलाई जैसा, मासूमियत और ज़िद्दीपन जैसा, और सब कुछ प्रकाशित है सिर्फ तुम्हारे लिए सबके प्रति एक नाज़ुक फिक्र के प्रकाश से और सीधे लोगों के दिलों में झांकती नज़र से...”

अपनी ज़िंदगी को सरल बनाते हुए, टॉल्स्टॉय धीरे-धीरे पुरानी आदतों को छोड़ता जा रहा था. अपना प्रिय शौक – शिकार, उसने सन् 1884 में छोड़ दिया. तीन साल बाद उसने संयम वालों का समाज” बनाया और उसमें प्रवेश करते हुए वचन दिया, कि कभी भी शराब नहीं पियेगा. उसी समय वह शाकाहारी भी हो गया. सन् 1888 में उसने हमेशा के लिए धूम्रपान करना छोड़ दिया.

Tolstoy and His Wife - 10.4

4 28 अक्टूबर को रात में दो बजे के बाद टॉल्स्टॉय की आँख खुल गई. पिछली रातों की ही तरह दरवाज़े खोलने की और सावधान कदमों की आहट सुनाई...