अध्याय 7
सिद्धांत (हठधर्मिता) और जीवन
1.
क्या टॉल्स्टॉय ने सम्पूर्ण आध्यात्मिक नवीनता का अनुभव किया?
क्या उसके जीवन में तीव्र संकट आया था?
इस बारे में विभिन्न मत हैं. ख़ुद टॉल्स्टॉय अपने आध्यात्मिक संकट का “आन्ना
करेनिना” में भी और “कन्फेशन” में भी सही-सही वर्णन करते हैं. अनेक प्रकार की
तुलनाओं के आधार पर इस तीव्र प्रक्रिया को सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में ले जाया
जा सकता है. फिर, जब टॉल्स्टॉय के विचार ने एक मूर्त रूप ग्रहण किया, जब अपनी खोजों
में वह किन्हीं निष्कर्षों तक पहुंचे और कुछ शांत हुए, तो उन्होंने लिखा (सन् 1884 में) : “पांच साल पहले, मैं क्राइस्ट की
शिक्षा में विश्वास करता था – और मेरी ज़िंदगी में अचानक एक परिवर्तन हुआ : अब मुझे
उसकी चाहत नहीं रही, जो पहले चाहता था. वो, जो पहले मुझे अच्छा लगता था, अब बुरा लगने लगा, और वो, जो पहले बुरा
लगता था, अच्छा प्रतीत होने लगा. मेरे साथ वैसा हुआ, जो उस आदमी के साथ होता है, जो काम के लिए घर से निकला तो सही, मगर रास्ते में
ही उसने फैसला कर लिया कि उसे इस काम की ज़रा भी ज़रूरत नहीं है – और वापस घर की ओर
चल पड़ा. और हर वो चीज़, जो दाएँ थी – बाईं तरफ हो गई, और हर वो चीज़, जो बाईं ओर थी –
दाईं तरफ़ हो गई : घर से जितना दूर हो सके रहने की इच्छा – बदल कर घर के जितना संभव
हो, उतने पास रहने की इच्छा में बदल गई. मेरे जीवन की दिशा – मेरी ख़्वाहिशें कुछ
और हो गईं : अच्छाई और बुराई ने अपनी जगह की अदला बदली कर ली. ये सब इसलिए हुआ, क्योंकि मैं
क्राइस्ट की शिक्षा को वैसा नहीं समझा, जैसा पहले समझता था”.
शायद, सब कुछ स्पष्ट है. मगर नहीं! कुछ शोधकर्ता और टॉल्स्टॉय के करीबी लोग, इस बात की पुष्टि
करने के लिए तैयार हैं, कि किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ था, और वो सब, जो बाद में
टॉल्स्टॉय ने अपने धार्मिक-दार्शनिक लेखों में व्यक्त किया है, उसके भीतर हमेशा
से था. इस अप्रत्याशित विचार की पुष्टि के लिए अक्सर उनकी डायरी की 5 मार्च 1855
की प्रविष्टि का उल्लेख किया जाता है, जिसमें छब्बीस साल का टॉल्स्टॉय नया धर्म बनाने चला था, जो समय की भावना
के अनुकूल हो. ये प्रविष्टि, वाकई में, ग़ौरतलब है, क्योंकि उसमें दिए गए विवरण भविष्य सूचक साबित हुए.
मगर इस तथ्य पर उपर्युक्त निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है. टॉल्स्टॉय के जीवन में
कई बार विचित्र विचार और सपने उभर कर आते रहे, जिनका उसके लिए वैसा ही महत्व था, जैसा “आन्ना
करेनिना” की नायिका के लिए उसके भविष्यसूचक सपने का था. ऐसी अप्रत्याशित
“भविष्यवाणियाँ” टॉल्स्टॉय के निकट और दूर के भविष्य के कार्यकलापों से किसी भी
तरह संबद्ध नहीं थीं. टॉल्स्टॉय को तो किन्हीं अन्य शक्तियों से प्रेरणा मिलती थी.
ये तय करना असंभव है कि क्या ये : अवचेतन मन की गहराईयों की अभिव्यक्तियाँ थीं, या किसी क्षणिक
विचार का गुज़रे हुए ज़माने की वास्तविकता से आकस्मिक संयोग था. विशेष रूप से, उनकी डायरी की 5 मार्च 1855 की
प्रविष्टि – ये केवल एक अत्यंत महत्वाकांक्षी नौजवान का अकस्मात् प्रकट हुआ सपना
है : वह मानवता के लिए एक नए धर्म का निर्माण करना चाहता है - ना कम, ना ज़्यादा. उसी तरह इससे तीन
साल पहले उसने सपना देखा था “वर्तमान शताब्दी के युग के यूरोप के सही, वास्तविक इतिहास
की रचना करने का” और पाया कि “ये तो ज़िंदगी भर का लक्ष्य है”. या दूसरी बार उसने
डायरी में लिखा : “वर्तमान चुनावों के आधार पर कुलीन वर्ग का राजतंत्रीय शासन से चुनावी
संबंध स्थापित करने की योजना बनाने के लिए बाकी जीवन समर्पित कर दूँगा. यही पवित्र
जीवन का लक्ष्य है. तुम्हारा धन्यवाद, ऐ ख़ुदा, मुझे शक्ति दो...”
इस तरह के सपने किसी भी तरह से बंधनकारक नहीं थे. और सन् 1855 की प्रविष्टि
के बाद के 20 सालों के दौरान और सत्तर के दशक के मध्य में टॉल्स्टॉय ने नये धर्म
का निर्माण करने के बारे में ज़रा भी नहीं सोचा.
मगर फिर भी, टॉल्स्टॉय के निकटतम लोगों की इस तरह की, असत्य जैसी, पुष्टियों में
भी, बेशक, सत्य का अंश तो था.
भावी लेखों और भावी शिक्षा के तत्व टॉल्स्टॉय की रचनाओं में सत्तर के दशक के
मध्य तक देखे जा सकते हैं. और ये अक्सर और बहुतायत से मिलते हैं - उसकी अवचेतन, अंतर्ज्ञानी, कलात्मक रचनाओं
में, बनिस्बत उसकी डायरियों, लेखों और पत्रों में. मर्म वही था. नौजवान टॉल्स्टॉय
में, किसी अन्य नौजवान की ही भांति, उसकी भावी संभावनाओं की नींव पड़ चुकी थी. फिर भी
सत्तर के दशक के मध्य का संकट निःसंदेह था. और संकट काफ़ी तीव्र था. फिर भी, क्या इस संकट को
टॉल्स्टॉय के जीवन का इकलौता और अंतिम संकट समझा जा सकता है?
नहीं.
टॉल्स्टॉय के स्वभाव का प्रमुख गुण था उसकी निरंतर परिवर्तनशीलता. आंतरिक
संकट तो किसी पर भी आ सकता है. टॉल्स्टॉय का तो जीवन ही ऐसे संकटों से बना है.
“युद्ध और शांति” को पढ़ते हुए और दुहराते हुए, इस विचार को दूर नहीं हटाया जा सकता, कि उपन्यास के
दोनों नायक (राजकुमार अन्द्रेइ बल्कोन्स्की और प्येर बेज़ूखव) लेखक की आत्मा के
करीब हैं: एक उसका मूर्त रूप है, जिसे टॉल्स्टॉय अपनी “प्रज्ञा की बुद्धि” (तर्क, विश्लेषण, विचार) कहता है; दूसरा – उसके
“दिल की बुद्धि” (विश्वास, संश्लेषण, भावना). वे – बिल्कुल भिन्न व्यक्ति हैं, और तर्क और भावना
के वर्चस्व को देखते हुए बिल्कुल विरुद्ध मानसिकताओं वाले प्रतीत होते हैं. एक गुण
उनमें समान है. उनके मत, विश्वास, विश्व के प्रति दृष्टिकोण हमेशा असंतुलन की स्थिति में
रहते हैं. किसी भी पल इस क्षेत्र में अत्यंत निर्णायक परिवर्तनों की उम्मीद की जा
सकती है. ऐसे परिवर्तन व्यक्तिगत घटनाओं – बीमारी, असफ़लताएँ, संतुष्टता, मृत्यु की पीड़ा आदि से संबंधित प्रतीत होते हैं. अचानक दिमाग़ में वह पेंच मुड़ जाता है, जिस पर जीवन अटका
हुआ है, उन घटनाओं के बीच की कड़ी टूट जाती है, जो पहले समझ में आती थीं, “दुनिया धराशायी हो जाती है”, कोहराम मच जाता
है. फिर, धीरे-धीरे, भग्न हुई दुनिया का आत्मा के भीतर किसी अन्य और, शायद, स्थिर आधार पर
पुनर्निमाण होने लगता है. मगर फिर नये हादसे होते हैं, और फिर से सब कुछ नष्ट हो जाता है. पात्रों के मूल गुण
अपरिवर्तनीय रहते हैं. मगर उनके आध्यात्मिक विकास की अंतिम अवस्था की, उनमें से हरेक के
जीवन के प्रति दृष्टिकोण की कल्पना करना असंभव है. मृत्यु इस उथल-पुथल को रोक सकती
है, मगर मृत्यु की घडी तक किसी एक (इस बार ये बिल्कुल विश्वसनीय है!) निर्णय पर
बने रहना असंभव है. और ये नहीं कह सकते, कि यहाँ हमारा सामना निरंतर आध्यात्मिक उथल-पुथल से, निरंतर विचलन से, निरंतर गति से
था. हर प्रस्तुत क्षण में विश्वास स्पष्ट और चट्टान की तरह दृढ़ है. और कल, हो सकता है, हालात कुछ ऐसे
बनें, कि मज़बूत नींव पर बना पूरा शानदार आध्यात्मिक जगत निराशाजनक रूप से ढह जाये.
राजकुमार अन्द्रेइ बल्कोन्स्की के भीतर ये उथल-पुथल कुछ कम होती है, मगर प्रक्रिया
दर्दनाक है. प्येर बेज़ूखव के मन में निरंतर “विश्वास करता हूँ – विश्वास नहीं करता
हूँ” चरम सीमा तक पहुँच जाते हैं, और उसके आध्यात्मिक विकास के काल्पनिक चरण हास्य के
क्षेत्र में पैंठ जाते हैं.
“दुनिया को नष्ट करने और उसका पुनर्निर्माण करने” की योग्यता, जैसा दार्शनिक
शेस्तोव कहते हैं, “आन्ना करेनिना” के नायक - कन्स्तान्तिन लेविन को भी विशिष्ठ दर्जा
प्रदान करती है.
टॉल्स्टॉय का भाग्य ऐसे विकट अनुभवों से परिपूर्ण है. इन्सान अपने मूलभूत
गुणों से, निःसंदेह, हमेशा वही रहता है. मगर हर प्रस्तुत कालखण्ड में
अनजाने ही भावी उथल-पुथल के लिए संकटपूर्ण सामग्री जमा होती रहती है. वह अपने
विचारों और लेखन से छिटक जाता है. धीरे-धीरे वह लचीलापन हासिल करता है, अधिकाधिक जागरूक
होता जाता है. अंत में, एक मोड़ आ ही जाता है. कभी कभी वह इतना आक्रामक स्वभाव
धारण कर लेता है, जैसे कि सत्तर के दशक के मध्य में, कभी बहुत धीरे
धीरे आगे बढ़ता है, बड़ी शांति से.
हाँ, टॉल्स्टॉय के भावी उपदेशों के लगभग सभी तत्व सन् 1879 तक के उनके लेखन में
पाये जा सकते हैं. मगर ये सिर्फ बिंब थे, अनुभव थे, जिन्हें स्पष्ट, आक्रामक वैश्विक दृष्टिकोण में पिरोया नहीं गया था.
किसी भी बात पर ख़ास ज़ोर नहीं दिया गया था. ये सूर्योदय के पूर्व का संधि प्रकाश
था. वह अपने चारों ओर की वस्तुओं की अस्पष्ट रूपरेखाओं पर नज़रें गडाए था. मगर, तभी सूरज निकल
आया और उसने अपनी चकाचौंध चारों ओर बिखेर दी. ऐसा लगा, कि एक विशिष्ठ “समझ” हमेशा के लिए राज करने लगी है.
आह! सामने अभी गद्यात्मक कार्यकलापों का लम्बा दिन है, जो अस्पष्टताओं से, नई घटनाओं, मनोदशाओं से, नए विचारों से सराबोर है.
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