शनिवार, 12 मई 2018

Tolstoy and His Wife - 7.2




2.


टॉल्स्टॉय ने चर्च की शिक्षा का गंभीरता से परीक्षण करने की आवश्यकता को महसूस किया. इस परीक्षण के परिणामों को उसने “सैद्धांतिक धर्मशास्त्र की आलोचना” नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया है. उसने ख़ुद भी इस कार्य की अत्यधिक सराहना की. असल में “सैद्धांतिक धर्मशास्त्र की आलोचना” – विषय वस्तु और रूप की दृष्टि से काफ़ी कमज़ोर है. एक एक अनुच्छेद में वह विश्वास के प्रतीक, पूरब के धर्मगुरुओं के संदेशों, प्रश्नोत्तरी के क्षेत्र का दौरा करते हुए एक रूसी बिशप की सैद्धांतिक धर्मशास्त्र की पुस्तक की आलोचना करता है. पुस्तक तीव्र प्रहारों, व्यंगबाणों, उपहासों से भरी है. वह चर्च पर (“निठल्लों, धोखेबाज़ों, अज्ञानियों की सभा” पर) सत्ता की सेवा करने का, “जानबूझ कर धोखा देने का, जिसके माध्यम से एक वर्ग के लोग दूसरों पर शासन करना चाहते हैं” आरोप लगाता है. अनुभवी और शिक्षित लोग काफ़ी पहले से चर्च की ओर कोई ध्यान नहीं देते हैं. जनता? टॉल्स्टॉय को अब ऐसा लगता है, कि जनता भी चर्च के प्रति पूरी तरह से उदासीन है.

टॉल्स्टॉय ये प्रमाणित करने का भी प्रयत्न करता है, कि चर्च अपने “मूर्खता के अभेद्य जंगल के साथ” एक क्रिश्चियन विरोधी संस्था है. चर्च की ज़रूरत नहीं है : क्राइस्ट ने भले कामों को सिखाने का नहीं, अपितु करने का आदेश दिया है, जिससे लोग उन्हें देखकर ख़ुदा की महिमा के गुण गाएँ. लोग सिर्फ कामों में ही विश्वास करते थे और करते हैं...

किसी ऐसी पत्रिका में, जो सेन्सरशिप के दायरे में नहीं आती हो, “कन्फेशन” प्रकाशित करने की कोशिश की गई. मगर अंतिम क्षण में पत्रिका ज़ब्त कर ली गई, टॉल्स्टॉय के लेख पर प्रतिबंध लगाया गया और उसे काट दिया गया. “सैद्धांतिक धर्मशास्त्र की आलोचना” के प्रकाशित होने का सवाल ही नहीं था. इस तरह से शासन का टॉल्स्टॉय के साथ संघर्ष शुरू हुआ. इसने उसकी लोकप्रियता बढ़ाने में बहुत बड़ा योगदान दिया. उसकी रचनाओं की अवैध सूचियों की आवृतियाँ काफ़ी बड़ी मात्रा में प्रसारित होने लगीं. उसके धार्मिक प्रश्नों ने उस समय बुद्धिजीवियों को कम प्रभावित किया था. मगर सरकार द्वारा किये जा रहे उत्पीडन ने टॉल्स्टॉय के विचारों को काफ़ी चटपटा बना दिया. और देश के विभिन्न भागों में महान लेखक की प्रतिबंधित रचनाओं की प्रतियाँ बनाने और उनका प्रचार करने के उद्देश्य से कई केंद्र स्थापित हो गए.

अब टॉल्स्टॉय किसी पर भी विश्वास नहीं करता. उसे ख़ुद मूल स्त्रोतों पर शोध कार्य करना है. वह चारों सुसमाचारों’ (गॉस्पेल्स) के ग्रीक ग्रंथ, उन पर लिखी गईं विद्वानों की टिप्पणियाँ, नई भाषाओं में किए गए सर्वोत्तम अनुवाद, विभिन्न कोड्स (संकेत) लेता है. ग्रीक भाषा से हुए अपने नये परिचय का लाभ उठाते हुए वह एक एक शब्द का अनुवाद करता है. अक्सर लंबी टिप्पणियों में और पूरे पूरे लेखों में, वह सामान्य व्याख्याओं को चुनौती देता है, नए अर्थों का सुझाव देता है. वह सामान्य अनुवाद से हर विचलन को, हर सन्निविष्ट व्याख्या को, हर छूटे हुए विवरण को समझाता है, और गॉस्पेल के विभिन्न संस्करणों की तुलना करके, संदर्भ सहित, भाषा संबंधी और अन्य विचारों के आधार पर सिद्ध करता है. जैसे जैसे वह आगे बढ़ता है उसका आकर्षण बढ़ता जाता है और वह उत्तेजना से दमकता है. हर कदम के साथ उसे अधिकाधिक विश्वास होने लगता है, कि क्रिश्चियन धर्म सबसे कठोर, शुद्ध और पूर्ण आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षण है, जिससे ऊपर अब तक मानव की बुद्धि पहुँच नहीं पाई है. साथ ही, चारों गॉस्पेल्स को सुनियोजित रूप से संकलित करते हुए उसे दृढ़ विश्वास हो गया, कि क्रिश्चियन चर्चों की शिक्षा का ईसा की शुद्ध शिक्षा से बहुत कम साम्य है, क्योंकि वो असंबद्ध को - गॉस्पेल्स के दर्शन को ओल्ड टेस्टामेन्ट और बाद की व्याख्याओं से संबंधित करने की कोशिश करते हैं.

इस प्रकार इस विशाल रचना का निर्माण हुआ, जिसमें साहसी संशोधक, जोश से और अचरज से, नित नए आविष्कार कर रहा था.

20 वर्षों के बाद गॉस्पेल्स के संकलन के एक विदेशी प्रकाशन की प्रस्तावना में लेखक अपने जोशीले, “अविस्मरणीय” कार्य की ओर आलोचनात्मक दृष्टि से देखता है. उसने सन् 1902 में लिखा: “उत्साह और जुनून के वश होकर मैंने, दुर्भाग्यवश, स्वयम् को इस बात तक ही सीमित नहीं रखा, कि गॉस्पेल के, जो सिद्धांत की व्याख्या करता है, आकलनीय अंशों को प्रदर्शित करूँ (वो छोड़कर, जो मूल, और प्रमुख विचार से संबद्ध नहीं है और उसकी ना तो पुष्टि करता है ना ही उसे नकारता है), बल्कि नकारात्मक स्थानों को भी वो अर्थ प्रदान करने की कोशिश करता रहा, जो सामान्य अर्थ की पुष्टि करता हो. इन कोशिशों ने मुझे कृत्रिम और, शायद, गलत भाषा विषयक व्याख्याओं की ओर आकर्षित कर लिया, जो न केवल सामान्य विचार की विश्वसनीयता को नकारते ही नहीं हैं, बल्कि उसे कमज़ोर भी बनाते हैं”.

टॉल्स्टॉय की खोजों का मुकुट थी उनकी पुस्तक “मेरा धर्म क्या है?” सन् 1883 के दौरान वह इस पर काम करता रहा. ये एक शानदार निबंध है, जो उत्कट विश्वास से सराबोर है. इसमें टॉल्स्टॉय के ख़ास जुनून से उसके कई वर्षों की खोज के परिणामों को प्रस्तुत किया गया है.

इस बार टॉल्स्टॉय किन अडिग सत्यों की ओर आया?

उसने स्पष्ट रूप से चर्च की शिक्षा और समूचे क्रिश्चियन रहस्यवाद को नकार दिया. उसके लिए क्राइस्ट – ख़ुदा नहीं, बल्कि सत्य का शिक्षक है. गॉस्पेल्स को दैवी उत्पत्ति सिद्धांत के अधिकार की आवश्यकता नहीं है. उसके प्रमुख आदेश आत्मा पर लिखे होते हैं. उनकी सत्यता की जांच सिर्फ मनुष्य की आंतरिक चेतना (विवेक) ही कर सकता है.

शांति की सीख, जिसका चर्च समर्थन करता है, धरती पर एक निरर्थक, दुर्भाग्यपूर्ण जीवन का निर्माण करती है. ये जीवन मृत्यु से समाप्त हो जाता है. क्राइस्ट की सीख जीवन के लक्ष्य की ओर इंगित करती है, जो मृत्यु से नष्ट नहीं होता. ये उद्देश्य है – लोगों के बीच शांति, एकता और प्रेम का समर्थन करना. कोई भी व्यक्तिगत अमरत्व पर भरोसा नहीं कर सकता, मगर उसके जीवन का कार्य, यदि वह उसे पृथ्वी पर प्रेम को बढ़ाने में करता है, तो अमर हो जायेगा. और वह ख़ुद, शरीर के विनाश के बाद ब्रह्माण्ड में उपस्थित प्यार से – अर्थात् ख़ुदा से एकरूप हो जाएगा.                                                  
अवश्यंभावी व्यक्तिगत मृत्यु के परिप्रेक्ष्य में असली क्रिश्चियन ज़िन्दगी को इस तरह समझा जा सकता है.               

धरती पर प्रेम को बढ़ाने के लिए प्रलोभनों को दूर हटाने की ज़रूरत है, जो मनुष्य के सामने खड़े हैं. ये प्रलोभन दैहिक जीवन के सुख को बढ़ाने का झूठा वादा करके आकर्षित करते हैं. सेर्मन ऑफ द माऊन्ट’ (जो गॉस्पेल को समझने की कुंजी है) प्रलोभनों से लड़ने के पांच सरल और स्पष्ट आदेश देता है:
!. क्रोध मत करो, 2. कामुक मत बनो, 3. कसम मत खाओ, 4. बुराई का विरोध हिंसा से मत करो, 5. लड़ो मत (अपने लोगों के शत्रुओं से प्रेम करो).

ये पांच आदेश लोगों की ज़िंदगी से सारी बुराई बाहर निकाल देते हैं. जब लोग इन आदेशों का पालन करेंगे, तो धरती पर शांति का साम्राज्य आ जायेगा. वह न केवल अवश्यंभावी व्यक्तिगत मृत्यु के परिप्रेक्ष्य में जीवन को समझायेगा, बल्कि धरती पर आनंद भी लाएगा, क्योंकि हर मानवीय हृदय दुनिया की शांति के लिए लालायित है.

प्रलोभनों से संघर्ष इस दुनिया के शक्तिशाली लोगों से उनके जीवन और स्थिति को मूल रूप से तोड़ने की मांग करता है.
“निर्धन होना है, भिखारी होना है, आवारा भटकते रहना है – यही वो चीज़ है, जिसकी क्राइस्ट शिक्षा देते हैं : ये वही है, जिसके बिना ख़ुदा के साम्राज्य में प्रवेश नहीं किया जा सकता, जिसके बिना यहाँ, धरती पर, सुखी होना संभव नहीं है”.

ये भिखारी और आवारा के रूप में परिवर्तन मनुष्य को प्रकृति के पास वापस ले जायेगा, उसे देगा प्रिय और स्वतंत्र श्रम (विशेष रूप से – शारीरिक श्रम), परिवार से वास्तविक निकटता, दुनिया के सभी लोगों के साथ स्वतंत्र और प्रिय वार्तालाप की संभावना और पीड़ारहित मृत्यु.

इन सभी दृष्टियों से, वे लोग जो सांसारिक सुखों से दृढ़ता से चिपके रहते हैं, अत्यंत निर्धन मनुष्य से भी बुरी परिस्थितियों में होते हैं, जिनका कोई मुकाबला ही नहीं है.

“मगर तुम्हें कोई खाना नहीं खिलायेगा, और तुम भूख से मर जाओगे,” लोग कहेंगे, क्राइस्ट के वचनों को भूलकर कि : “श्रमिक भोजन पाने के लिए सुयोग्य है”.

“अपने लिए सम्पत्ति बनाने की इच्छा न करते हुए निःस्वार्थ रूप से मेहनत करो. हर वो व्यक्ति, जिसे तुम्हारे काम की ज़रूरत है, तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के जीवन को सहारा देगा.

इस शिक्षा का पालन करना कठिन नहीं है; वो इस जीवन में दुखों और अभावों का आह्वान नहीं करती, बल्कि दस में से नौ दुःखों से भी मुक्ति दिलाएगी, जिन्हें हम दुनिया की शिक्षा के नाम पर ढोते हैं.

किताब का अंतिम (XII वां) अध्याय उत्साह के भाव से परिपूर्ण है.

टॉल्स्टॉय कहते हैं:
“मेरा विश्वास है, कि धरती पर मेरा भला तभी संभव है, जब सब लोग क्राइस्ट की शिक्षा का पालन करेंगे. मेरा विश्वास है, कि इस शिक्षा का आसानी से और प्रसन्नता से पालन किया जा सकता है. मुझे विश्वास है, कि जब तक इस शिक्षा का पालन नहीं किया जाता तब भी, अगर मैं अकेला ही पालन न करने वाला रहूँ, मुझे अवश्यंभावी मृत्यु से अपने जीवन को बचाने के लिए कुछ् और नहीं करना चाहिए. मुझे विश्वास है, कि मेरा जीवन दुनिया की शिक्षा के अनुसार दुखभरा रहा, और सिर्फ क्राइस्ट की शिक्षा के अनुसार ही जीवन इस दुनिया में मुझे वो सुख देगा, जो आसमानी पिता ने मेरे लिए निर्धारित किया है”.

“वो सब, जो पहले मुझे अच्छा और उच्चकोटि का लगता था – सम्मान, प्रसिद्धि, शिक्षा, समृद्धि, जीवन की, परिस्थिति की, भोजन की, वेषभूषा की, स्वागत-समारोहों की जटिलता और परिष्कृतता – अब ये सब मेरे लिए निकृष्ट और मूर्खतापूर्ण हो गया है; - मर्दानगी, अनिश्चितता, गरीबी, अशिष्टता, परिस्थिति की, भोजन की, वेषभूषा की, स्वागत समारोहों की सादगी – ये सब मेरे लिए अच्छा और उच्च कोटि का हो गया है...”                  

मुझे विश्वास है, कि बुद्धिमत्तापूर्ण जीवन – मेरा प्रकाश – मुझे सिर्फ इसीलिए दिया गया है, ताकि मैं लोगों के सामने शब्दों से नहीं, बल्कि अच्छे कामों से प्रकाशित हो सकूं, ताकि लोग आसमानी पिता की महिमा के गुण गा सकें...”  “मुझे विश्वास है, कि मेरे जीवन का इकलौता अर्थ – उसमें निहित है, कि उस प्रकाश में रहूँ, जो मेरे भीतर है, और उसे छुपाकर न रखूं, बल्कि लोगों के सामने इस तरह से ऊँचा रखूँ, जिससे लोग उसे देख सकें...” “क्योंकि लोगों के बीच सत्य का प्रसार सच्चे कामों द्वारा ही होता है”.

ऐसी है ये शिक्षा. इसे आत्मसात् करना न केवल इस संक्षिप्त निबंध के आधार पर कठिन है, बल्कि टॉल्स्टॉय की विद्वत्तापूर्ण पुस्तक पढ़ने के बाद भी कठिन है. जीवन में इस शिक्षा का पालन करने की सादगी और आसानी पर विश्वास करना कठिन है. टॉल्स्टॉय ने अपना धर्म किसानों से प्राप्त किया था. इसमें संदेह है, कि उनमें से कोई भी “मेरा धर्म क्या है?” किताब के लेखक से सहमत हुआ होगा. किसान को कुलीनों, अमीरों और विद्वानों की परिस्थिति की तुलना में उसकी अपनी स्थिति के फ़ायदों के बारे में यकीन दिलाना आसान नहीं है. ऊपर से किसान का धर्म, उसके आचरण के नियम, व्यक्तिगत अमरत्व, “उस दुनिया में” सज़ा अथवा इनाम पाने की कल्पना पर आधारित हैं. और मृत्य के पश्चात् व्यक्तिगत अस्तित्व की कल्पना टॉल्स्टॉय के नये दृष्टिकोण को मान्य नहीं है.
चाहे जो भी हुआ हो, हमारे सामने – “सच्चे जीवन को जानने की ख़ुशी”, “उसे फ़ौरन मूर्त रूप देने की इच्छा और उम्मीद है”. इसके लिए उपदेशक की परिस्थिति में, उसके बाह्य रूप में पूर्ण परिवर्तन ज़रूरी है, क्योंकि “लोगों को सत्य शब्दो के माध्यम से नहीं, बल्कि सिर्फ सच्चे कामों के माधयम से प्रदान किया जाता है”.

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