रविवार, 20 मई 2018

Tolstoy and His Wife - 8.1





अध्याय आठ
समझौते
                                      
1
सन् 1882 के आरंभ में मॉस्को में आम जनगणना होने वाली थी. अन्य प्रमुख सामाजिक व्यक्तियों के साथ टॉल्स्टॉय को भी यह प्रस्ताव दिया गया, कि वह किसी एक जिले के जनगणना करने वाले समूह का नेतृत्व करे. वह तैयार हो गया और उसने मॉस्को के अत्यंत गरीब लोगों की बस्ती को अपना कार्यक्षेत्र चुना.

जनगणना की तैयारी हेतु टॉल्स्टॉय एक बड़े रैन-बसेरे में पहुँचा. दिसम्बर के धुंधलके में, रैन-बसेरे के भीतर घुसने की उम्मीद में ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई थी, जिनके बदन पर मुश्किल से ही कपडे नाम की चीज़ थी, और जो ठण्ड से कांप रहे थे. टॉल्स्टॉय भय से कांप गया. इन अभागे लोगों से बातें करते हुए, उसने गर्म पेय बेचने वाले को बुलाया और उन्हें गर्म पेय दिया. गर्म पेय वाले का समोवार कुछ ही मिनटों में खाली हो गया. अपने पास के थोड़े से पैसे देकर, टॉल्स्टॉय अपने नए परिचितों के साथ, आख़िरकार खोले गए गेट के भीतर गया. दुर्गंध, गंदगी, ग़रीबी ने चारों तरफ से उसे घेर लिया. एक आपराधिक भावना लिए वह अपने आरामदेह क्वार्टर में वापस आया और पांच व्यंजनों वाला भोजन करने बैठा, जिसे सफ़ेद दस्ताने पहने सेवक परोस रहे थे. इस विरोधाभास ने उसकी कल्पना को झकझोर दिया. चिड़चिड़ाहट और कटुता से, आँसुओं से भीगी आवाज़ में, हाथ हिलाते हुए, वह घरवालों और मेहमानों पर चिल्लाया:

“इस तरह जीना नामुमकिन है, नामुमकिन है इस तरह जीना, नामुमकिन!...”

उसे शांत किया गया. मगर उसने कुछ करने का फ़ैसला कर लिया. उसने एक जोशीला लेख लिखा, जिसके प्रूफ को शहर ड्यूमा में पढ़ा. उसने जनगणना कर रहे दो हज़ार कार्यकर्ताओं से अपील की कि रजिस्ट्रेशन के समय उनकी आवश्यकताओं के बारे में पता लगाएँ, और काम के बाद, बिना किसी विशेष संगठन के, ज़रूरतमंदों से सम्पर्क स्थापित करें और उनके हालात कुछ बेहतर बनाने की दिशा में काम करें.

वह अपने कुछ अमीर परिचितों से मिला और उनसे चंदा देने का वादा प्राप्त किया.

ये आवेशपूर्ण लेख प्रकाशित किया गया और उसके बारे में काफ़ी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं. मगर ये काम पूरी तरह असफ़ल रहा.

अपनी नई स्वीकारोक्ति (“तो फिर हमें करना क्या चाहिए?”) में टॉल्स्टॉय बताता है, कि ये कैसे हुआ.

उसके पास वादा की गई धनराशि को इकट्ठा करने का सब्र नहीं था. हालाँकि, जैसा उसने अनुमान लगाया था, पैसों की आवश्यकता ही नहीं थी. अपने प्रयोग को पूरा करते हुए और बसंत के महीन में यास्नाया पल्याना जाते समय उसे समझ में नहीं आ रहा था, कि उन 37 रूबल्स को कहाँ संलग्न करे, जो उसके पास बच गए थे.

मॉस्को की झोंपड़ियों में उसे मज़दूर लोग मिले, जो न सिर्फ अपनी रोज़ी-रोटी कमाते थे, बल्कि विकट परिस्थितियों में आसपास के लोगों की मदद भी कर दिया करते थे. ये सही है, कि टॉल्स्टॉय ऐसे लोगों की भीड़ से भी मिला, जिन्हें वर्ग-भ्रष्ट किया गया था, इनमें निचले स्तर की वेश्याएँ, लावारिस बच्चे और (प्रमुखता से) ऐसे लोग थे, जो विभिन्न कारणों से अपनी विशेषाधिकार प्राप्तवाली स्थिति खो चुके थे. मगर इन श्रेणियों की पैसों से मदद करना मुश्किल था. क्या उनकी मदद प्यार से, भाईचारे से, दोस्ताना फिक्र से, दीर्घ, कठिन काम से करनी चाहिए? मगर इन लोगों के प्रति टॉल्स्टॉय को (उसके अनजाने ही) सच्चे प्यार का अनुभव नहीं हो रहा था. बल्कि, इसका उल्टा ही था. मक्सिम गोर्की, जिनसे टॉल्स्टॉय के अच्छे व्यक्तिगत संबंध थे, अपने संस्मरणों में लिखते हैं, कि कैसे, कितनी भारी अप्रियता से सन् 1902 में ल्येव टॉल्स्टॉय, क्रीमिया में, “तलछट” नाटक का वाचन सुन रहे था. वह बार बार लेखक को रोक रहा था, बाहर जा रहा था, मुश्किल से अपनी घृणा पर काबू पा रहा था और, वाचन समाप्त होने पर, उसने कठोरता से गोर्की से पूछा:
“आपने ये क्यों लिखा है?”

सन् 1882 में, मॉस्को में रैन-बसेरों के दुखी प्राणियों के प्रति (टॉल्स्टॉय ने उनमें से कुछ की मदद करने की भी कोशिश की थी) उसके मन में प्यार की नहीं, बल्कि कुछ और ही भावनाएँ जागी थीं. कहने में अजीब लगता है, मगर वह दुर्भावना से उबल रहा था. बेशक, ये गुस्सा अपने परोपकार के पात्र लोगों के प्रति नहीं, बल्कि उन्हीं विशेषाधिकारों के प्रति था, जिनको पुनः प्राप्त करने के लिए ये वर्ग-भ्रष्ट लोग अत्यंत लालायित थे. भयानक निर्धनता से सामना होने के पश्चात्, जिसकी वह मदद नहीं कर सकता था, टॉल्स्टॉय ने उसके मूल कारण तक पहुँचने का प्रयत्न किया. मगर “सत्य” सिर्फ तीन साल बाद ही उसे “समझ में आने लगा”.

सत्य चीख़ रहा था : “ ये न्यायसंगत नहीं है, कि कुछ लोग हमेशा त्यौहार मनाएँ, और दूसरे हमेशा भूखे रहें और काम करें”. चालाक लोग अनेक तरकीबों से जादुई, अपरिवर्तनीय रूबल को हासिल करने में कामयाब हो गए हैं, जिसके बल पर उन्होंने बाकी लोगों को अपना गुलाम बना लिया और उन्हें काम करने पर मजबूर किया. गाँवों में किसानों को लूटकर, विशेषाधिकार प्राप्त लोग (“मालिक”) शहर आ जाते हैं, यहाँ “ उन्मादयुक्त शानदार” ज़िंदगी जीते हैं, जिससे निर्धनों को लालच दिखाकर भ्रष्ट करते हैं,  जो मजबूरन गाँव से अमीरों के पीछे-पीछे आते हैं, जिससे उनसे अपने कुछ टुकड़े तो वापस पा सकें. इस लूटी हुई रकम से ज़रूरतमंदों की कैसे मदद की जाए? अमीरों और ज़रूरतमंदों के बीच प्यार, भाईचारा, दोस्ती कैसे संभव है? अमीर कभी भी अपने प्रति विश्वास की भावना नहीं जगा पाएँगे. प्यार और भाईचारे के संबंध कभी नहीं बन पाएँगे, जिनके बिना गंभीरता से किसी भी तरह की मदद करना असंभव है.                                                

टॉल्स्टॉय की नई किताब “तो फिर हमें क्या करना चाहिए?” सामाजिक विसंगतियों के चित्रों से भरपूर है. इस बारे में भूलकर, कि “श्रम करने वाला भोजन पाने के योग्य है”, वह बेरहमी से, क्रूरता से शहर की गरीबी, शहर और गाँव में मज़दूरों की मायूस ज़िंदगी और हताश प्रयासों का वर्णन करता है. और इसके साथ ही अमीर, मशहूर, शिक्षित लोगों के निरंतर मनाये जाने वाले त्यौहारों के चित्र भी खुलते जाते हैं. टॉल्स्टॉय अपने और अपने परिवार को भी बेनकाब करना नहीं भूलता. वह लगातार हर प्रकार के विशेषाधिकारों की उत्पत्ति का अध्ययन करता है और ख़ासकर पैसों के प्रश्न का – “गरीबों के काम के बिलों का” अध्ययन करता है, जिनकी सहायता से लोगों ने प्राचीन दास प्रथा को पुनर्जीवित कर दिया है. वह प्रमाणित करता है, कि “हमारी विशेषाधिकार वाली परिस्थिति का हमारे पास कोई औचित्य नहीं है : हमने बलपूर्वक इस जगह को हथिया लिया है और धोखे से उसे पकड़े हुए हैं”.

पैसों से मदद नहीं करना चाहिए. “मैंने देखा, कि पैसे का किसी भी प्रकार से उपयोग; चाहे कुछ ख़रीदने के लिए हो, किसी को मुफ़्त में देने के लिए हो, ये गरीबों के बिलों के लिए ही है या किसी और को गरीबों के बिल के लिए देना ही है. और इसलिए मेरे सामने उस काम की निरर्थकता स्पष्ट हो गई, जो मैं करना चाहता था – गरीबों से ही वसूली करके गरीबों की मदद करना”.

“मैं कानों तक गंदगी में धंसा था और दूसरों को इस गंदगी से निकालना चाहता था”.

मगर फिर होना क्या चाहिए? करना क्या चाहिए?

“जैसे ही मुझे समझ में आया, कि अमीरी क्या चीज़ है, पैसा क्या चीज़ है, मेरे सामने सिर्फ यही स्पष्ट और निश्चित नहीं हुआ, कि मुझे क्या करना चाहिए, बल्कि ये भी स्पष्ट और निश्चित हो गया, कि दूसरों को क्या करना चाहिए. मैं वास्तव में सिर्फ वही समझ पाया, जो मैं काफ़ी पहले से जानता था, वह सत्य, जिसे आदि काल से बुद्ध, और इसाय, और लाओज़े, और सुकरात द्वारा लोगों को दिया जाता रहा है, और विशेष स्पष्टता और बिना किसी संदेह के हमें जीज़स क्राइस्ट और उनके पूर्ववर्ती जॉन द बाप्टिस्ट द्वारा दिया गया है. लोगों के इस सवाल पर, कि “हमें क्या करना चाहिये?” जॉन द बाप्टिस्ट ने सरल, संक्षिप्त और स्पष्ट जवाब दिया : “अगर किसी के पास दो कमीज़ें हैं, तो उनमें से एक उसे दे दे जिसके पास कमीज़ नहीं है, और अगर किसी के पास खाना है, तो भी वैसा ही करे”. ( ल्यूक III, 10, 11). यही बात और अधिक स्पष्टता के साथ क्राइस्ट ने भी कई बार कही थी”.

मगर फिर भी, लोगों को क्या करना चाहिए, जिन्हें (जैसे कि टॉल्स्टॉय को भी) अनेक कारणों और परिस्थितियों की श्रृंखला, वह करने से रोकती है जिसकी सिफ़ारिश न्यू टेस्टामेन्ट इतनी “सरलता, संक्षिप्तता और स्पष्टता से करता है”?

इस सवाल का जवाब देना भी बहुत “आसान और सरल है”. ईमानदारी से पश्चात्ताप करना चाहिए, स्वीकार करना चाहिए कि “प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष में भाग न लेने का, दूसरों के श्रम का अवशोषण करने का मतलब है औरों के जीवन को नष्ट करना”. अपने आप को सरल बनाना चाहिए, अपनी आवश्यकताओं और आदतों को संक्षिप्त करके किसानों के दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं तक लाना चाहिए. अपने श्रम से घर को गरमाना चाहिए, कपडे पहनना चाहिए, निर्माण करना चाहिए और – मुख्य बात – खाना खाना चाहिए.

टॉल्स्टॉय इस मामले को इस तरह समझा : हर आदमी का दिन भोजन के हिसाब से चार हिस्सों या चार गुटों में बंटा होता है : 1) फलाहार से पहले, 2) फलाहार से दोपहर के भोजन तक, 3) दोपहर के भोजन से मध्यान्ह तक और 4) मध्यान्ह से लेकर शाम तक. आदमी की गतिविधियाँ जो उसे अपनी ओर आकर्षित करती हैं, चार तरह की होती हैं : 1) स्नायुओं की गतिविधियाँ, हाथों, पैरों, कंधों, पीठ का कार्य, भारी श्रम, जिससे पसीना आता है; 2) उँगलियों और हाथों की गतिविधियाँ, लचीलेपन की गतिविधियाँ, कौशल; 3) दिमाग़ और कल्पना की गतिविधियाँ; 4) दूसरे लोगों से विचार विनिमय करने की गतिविधियाँ. और वे लाभ जिनका आनंद इन्सान उठाता है, उन्हें भी चार गुटों में बांटा जा सकता है. हर आदमी, पहली बात – कठिन श्रम के निर्माण का लाभ उठाता है : अनाज, मवेशी, निर्माण, कुँए, तालाब इत्यादि, दूसरी बात – हस्त कौशल की गतिविधियों का लाभ उठाता है : वस्त्र, जूते, बर्तन वगैरह, तीसरी बात – बौद्धिक गतिविधियों की रचनाओं की : विज्ञान, कला, और चौथी बात – लोगों के बीच विचारों का आदान-प्रदान करके : परिचय से इत्यादि. सबसे अच्छा होगा दिन भर के कार्यों को इस तरह से उलट-पुलट करके  आयोजित करना कि मनुष्य की इन चारों प्रकार की योग्यताओं का उपयोग हो और इन्हीं चारों प्रकार की रचनाओं को (कृतियों को), जिनका उपयोग कर रहे हो, इस तरह वापस लौटाया जा सके कि चारों गुट समर्पित हों : पहला - कठोर परिश्रम को, दूसरा- बौद्धिक कार्यकलापों को, तीसरा – हस्तकौशल को और चौथा – लोगों से संवाद साधने को.                       

तो, आख़िर में – हमें क्या करना चाहिए?

जहाँ तक संभव हो अपने अधिकारों का कम से कम उपयोग करो, जब तक तुम पूरी तरह इन अधिकारों को त्याग नहीं सकते, जो तुम्हें अचल सम्पत्ति और पैसों के कारण दिये गए हैं, और जिनकी सैनिकों की हिंसा द्वारा समर्थन किया जाता है. जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में शारीरिक श्रम का योगदान देना. दूसरे लोगों को उन काल्पनिक अधिकारों की अमानवियता और अवैधता से परिचित करवाओ, जो सामाजिक स्थिति, अमीरी, शिक्षा की सुविधाओं से जुड़े होते हैं.

इस तरह से टॉल्स्टॉय ने अपने लिए गरीबी और अमीरी के बीच के संबंध के बारे में वैश्विक प्रश्न को सुलझाया.

इस कार्यक्रम को लागू करते हुए, उसने यकीन दिलाया, कि जीना उसके लिए ज़्यादा आसान हो गया है. अपराध और गुनाह की भावनाएँ कमज़ोर पड़ गईं. शारीरिक श्रम के कारण बौद्धिक कार्यकलापों की ऊर्जा बढ़ ही गई. और शारीरिक श्रम जितना ज़्यादा कठोर होता, उतना ही टॉल्स्टॉय स्वयम् को “अधिक शक्तिशाली, अधिक उत्साहपूर्ण, अधिक प्रसन्न और अधिक भला” महसूस करता था.

आत्म-सुधार की प्रक्रिया में, नये कार्यक्रम के अनुसार जीवन की “सही” व्यवस्था करने के काल में रैन-बसेरों के निवासियों को वह भूल गया.

दो साल पहले एक ज्वलन्त विश्वास और बेहतरीन भाषणों से उसने सुविधाप्राप्त स्थिति को जड़ से उखाडने का, गरीबी का, आवारगी का, गुमनामी का, और अपना तथा परिवार का पालन-पोषण करने के लिए शारीरिक श्रम का प्रचार किया. ये सब लागू करना बहुत आसान और सरल होगा, ऐसा प्रतीत होता था. ये सब अपने जीवन में लागू करना ज़रूरी था, जिससे दुनिया को कार्यों के आधार पर क्रिश्चिएनिटी की शिक्षा दी जा सके.

ये सब संभव नहीं हो सका. ये सच है, कि उसकी गलती के कारण नहीं. कई समझौते करने पड़े, “औसत” से संतुष्ट होना पड़ा. और तब, आमूल परिवर्तन के स्थान पर प्रकट हुए जीवन के नये नियम”, जैसे युवावस्था में हुए थे. गरीबी और साहस को कृत्रिम रूप से प्रतिस्थापित किया गया. सरलीकरण, आवशकताओं को न्यूनतम सीमा तक लाना, अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने और लोगों की मदद करने के लिए आवश्यक समय देना – ये हैं नए आदर्श.

ये विकास का नया चरण है. ऐसे जीवन का संकेतक मूल्य - नगण्य है. क्योंकि हर कोई जानता है, कि अपने अस्तित्व का इस प्रकार से चार गुटों के आधार पर निर्माण करना, - हो सकता है, बहुत साफ़-सुथरा हो, मगर ये केवल पूर्ण सुविधाप्राप्त व्यक्ति के लिए ही संभव है.


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