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ल्येव
निकोलायेविच के आध्यात्मिक संकट के आरंभ में सोफ्या अन्द्रेयेव्ना तीस वर्ष की हो
चुकी थी. जब वह लड़की ही थी, लगभग बच्ची, तभी
उसने अपने भावी पति की “निर्णयों की अत्यधिक परिवर्तनशीलता” को जान लिया था. शादी के बाद, उसे अपने प्रिय व्यक्ति के इस गुण से कोई परेशानी नहीं होती थी. मगर
धीरे-धीरे, बेशक, मुक्ति तो होनी ही
थी. महान व्यक्ति से घनिष्ठ दोस्ताना संबंध रखते हुए, वह
आध्यात्मिक तौर पर विकसित होती गई. जब तक उनकी पसंद और रुचियाँ अलग नहीं हुईं,
वह अपनी समूची आंतरिक शक्ति से उसके निर्धारित उद्देश्यों की ओर
बढ़ती रही. सम्पन्नता और प्रसिद्धि प्राप्त करने के पति के लक्ष्य में उसकी हर तरह
से मदद करते हुए वह पूरी व्यस्तता और अथक परिश्रम से बढ़ते हुए परिवार की देखभाल
करती रही. ख़ुद ल्येव निकोलायेविच और आसपास के सभी लोगों के अनुसार उसके चरित्र के
मुख्य गुण थे सादगी, साफ़गोई और ईमानदारी. मगर इन गुणों के
साथ उसके भीतर कुछ अशिष्ठता भी थी, जिस पर जवानी और ख़ूबसूरती
के सम्मोहन के कारण ध्यान नहीं जाता था. अब, बढ़ती हुई उम्र
में ये अशिष्ठता अधिकाधिक महसूस होती जा रही थी. उम्र के साथ आत्मविश्वास भी बढ़ता
गया, जिसके बारे में वैवाहिक जीवन के आरंभिक वर्षों में ही
ल्येव निकोलायेविच उसे दोष दिया करता था. पति की सभी दिलचस्पियों में हिस्सा लेने
से आरंभ करके, अपनी मुक्ति के सफ़र में वह धीरे-धीरे स्वयम्
को उसके शौक से अलग करने लगी ( खेती-बाड़ी के काम में शारीरिक श्रम से, स्कूल में किसान बच्चों के साथ समय बिताने से). जब-जब ये अल्पकालीन शौक
टॉल्स्टॉय को रचनात्मक काम से दूर करते, तो वह बेहद परेशान
हो जाती. वह उसकी योग्यता से प्यार करती थी. ऊपर से इसकी बदौलत उन्हें पैसे और
प्रसिद्धि भी प्राप्त होती थी. और पैसे और प्रसिद्धि के मामले में सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना हमेशा संवेदनशील थी. अपने पति के निरंतर बदलते हुए शौकों के प्रति
ईर्ष्या करते हुए, अब वह उनके प्रति शत्रुतापूर्ण रवैये को
छुपाना भी नहीं चाहती थी. अब वह इन सब ‘एबीसीडी’ वाली किताबों से, अंकगणित से, व्याकरण
से, और स्कूल से भी खुल्लमखुल्ला नफ़रत करती, जो उसे “असली काम” से विचलित करते थे.
उसे किसी भी तरह
की धार्मिक खोजों से कोई मतलब नहीं था. वह बड़े आत्मविश्वास और शांति से स्वयम् को
एक अच्छी क्रिश्चियन समझती थी, सामाजिक शिष्ठाचार के दायरे में वह
चर्च की अपेक्षाओं को पूरा करती थी और आधिकारिक ऑर्थोडॉक्स तरीके से बच्चों का
लालन-पालन करती थी.
टॉल्स्टॉय के
आध्यात्मिक संकट को वह कम ही समझती थी. मृत्यु और बीमारियाँ उसे परेशान करती थीं, जिनके
कारण विगत सुख के निरभ्र दिन धूमिल हो रहे थे. मगर मृत्यु का भूत, जिसने उसके पति की असाधारण कल्पनाशक्ति को दबोच लिया था, उसकी रोज़मर्रा की व्यावहारिक बुद्धि पर प्रभाव डालने में असमर्थ था.
पहले तो उसने
सोचा,
कि ये कोई नई सनक है. वह गुस्सा हो जाती थी, जब
वह हर शब्द के साथ ‘लॉर्ड-गॉड’ जोड़
देता या उसे लिखे गये ख़तों को “लॉर्ड हैव मर्सी!”, “हर बात
में ख़ुदा की मर्ज़ी है!” इत्यादि शब्दों से समाप्त करता.
बाद में ग़ौर से
उसकी पीड़ा को देखते हुए, उसने निश्चय किया कि ये किसी बीमारी की शुरुआत
है, ये ज़िद की कि सही इलाज होना चाहिए, उसे कुमिस के इलाज के लिए भेजा और ख़ुद भी पूरे परिवार समेत समारा की
स्तेपी पर गई, हालाँकि नई जागीर से उसे ख़ास लगाव नहीं था.
पति की भयानक
तकलीफों को देखते हुए, उसने उनसे समझौता करने की कोशिश की : क्योंकि,
आख़िर उसके धार्मिक जुनून से परिवार की मूलभूत मान्यताओं को तो कोई
ख़तरा नहीं था. सब कुछ सम्माननीय ऑर्थोडॉक्स दायरे में ही चल रहा था. बेशक, वह पति की इस चरम धार्मिक उत्तेजना को शांत करना चाहती थी. मगर उसके साथ
बिताए हुए जीवन के 12-15 वर्षों में उसे विश्वास हो गया था, कि
उसकी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं पर दूर से किए गए उपायों का असर नहीं होगा. सब कुछ
अपने आप ही हो रहा था. हर चीज़ को सही समय के भरोसे छोड़ना ज़रूरी था.
उनके व्यक्तिगत
संबंधों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. प्यार का ज्वार-भाटा पहले ही की तरह आता रहा.
वैसे, देखा जाए, तो ये पारिवारिक सुख ही था.
परीक्षा के इन अत्यंत
संकटमय वर्षों में टॉल्स्टॉय द्वारा पत्नी को लिखे गए पत्र पहले जैसी ही नज़ाकत से
सराबोर होते थे. जैसे, उदाहरण के लिए, सन् 1876
में वह कहता है : “मैं कभी कभी तुम्हें लिखता था, अपनी
भावनाओं के बारे में कुछ भी न बताते हुए, क्योंकि उस पल,
जब मैं लिख रहा होता, तो उस मनोदशा में नहीं
होता था. और इस बार की यात्रा में हर पल नज़ाकत से तुम्हारे बारे में सोचता रहा और
पूरा ख़त प्यार भरे शब्दों से भर देना चाहता हूँ. माफ़ करना, मेरी
प्यारी, मेरी लाडली, उस एहसास से,
जो तुम्हारे प्रति मेरे दिल में है, मैं कितना
ख़ुश होता हूँ, और इस बात से भी, कि तुम
इस दुनिया में हो...”
“माफ़
करना, प्रिये, अब तक तुम्हारा ख़त नहीं
मिला. तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं तुम्हारे बारे में ना सोचने का प्रयत्न करता
हूँ. कल तुम्हारी मेज़ तक गया और ऐसे उछला, जैसे जल गया हूँ,
जिससे अपने सामने तुम्हारी सजीव कल्पना न कर सकूं. उसी तरह रात को
भी मैं उस तरफ़ नहीं देखता हूँ...”
या सन् 1878 में
: “ख़ुदा ने चाहा,
तो हमारी जुदाई के दिनों में सब कुछ ठीक-ठाक रहेगा, और मुझे तो ये विशेष, सर्वोच्च, तुम्हारे प्रति आध्यात्मिक प्यार की भावना अच्छी लगती है, जिसे तुम्हारे विरह में और भी ज़्यादा तीव्रता से महसूस कर रहा हूँ. अब
मुख्य प्रश्न : क्या तुम्हें (समारा में) आना है या नहीं? मेरे
ख़याल से, नहीं, और वो इसलिए : मुझे
मालूम है कि तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण हूँ – मैं, मैं
यहाँ रहने की अपेक्षा जल्दी ही वापस लौटना चाहता हूँ...”
मगर जल्दी ही टॉल्स्टॉय
की ऑर्थोडॉक्सी में दुविधाएँ और चर्च के ख़िलाफ़ विद्रोह करने की प्रवृत्ति नज़र आने
लगी. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के लिए ये नया आघात था. पति के साथ उसकी खोजों के
उतार-चढ़ाव को बर्दाश्त करने में वह सक्षम नहीं थी और इसलिए अक्सर उसका व्यवहार
अगम्य और अप्रत्याशित प्रतीत होता.
पिछले कुछ समय से
उसने घर में ऑर्थोडॉक्स चर्च के नियमों को सख़्ती से लागू किया था. पति की उलझन को
देखते हुए उसने हर तरह से ऑर्थोडॉक्स चर्च के संस्कारों और रीति-रिवाजों के पालन
पर ज़ोर देना शुरू कर दिया. लेन्ट के दिनों में पूरे घर को कड़ाई से व्रत रखना पड़ता
था. और अचानक ऐसी घटना हुई. दो शिक्षकों - फ्रांसीसी गवर्नर और नास्तिक अलेक्सेयेव
के लिए अलग से मांसाहार बनाया गया. उन्हें मांस के स्वादिष्ट कटलेट्स दिये गए.
सेवक ने प्लेट खिड़की पर रख दी. ल्येव निकोलायेविच ने अचानक बेटे से कहा : “ईल्यूशा, ज़रा
मुझे कटलेट तो दे”. बेटे ने दे दिया. ल्येव निकोलायेविच ने भरपेट मांस के कटलेट्स
खाए और तबसे उसने व्रत रखना बंद कर दिया.
सोफ़्या
अन्द्रेयेव्ना को समझ में ही नहीं आया कि सोचे तो क्या सोचे.
इस दौर के अंत
में उसने बहन को लिखा : “लेवच्का अब पूरी तरह अपने लेखन में व्यस्त है. उसकी आँखें
जैसे ठहर गई हैं,
विचित्र हैं, वह लगभग कुछ भी नहीं बोलता है,
जैसे बिल्कुल इस दुनिया का ना हो और रोज़मर्रा के कामों के बारे में
सोचने में बिल्कुल असमर्थ है...”. “लेवच्का बस पढ़ता है, पढ़ता
है, पढ़ता है...लिखता बहुत कम है, मगर
कभी कभी कहता है: “अब समझ में आ रहा है”, या : “आह, अगर ख़ुदा ने चाहा, तो वो जो मैं लिख रहा हूँ,
बहुत महत्वपूर्ण होगा!”....”लेवच्का काम किये जा रहा है, जैसा कि वह कहता है; मगर – ओय! – वह किन्हीं धार्मिक
तर्कों के बारे में लिख रहा है, पढ़ता है और इतना सोचता है,
कि सिर दर्द करने लगता है, और ये सब, ये दिखाने के लिए कि चर्च किस तरह होली बाइबल की शिक्षाओं को ऊटपटांग
तरीके से प्रस्तुत करता है.
रूस में मुश्किल
से एक दर्जन ऐसे लोग मिलेंगे, जिन्हें इसमें दिलचस्पी होगी. मगर
कुछ नहीं किया जा सकता, मेरी बस एक ख़्वाहिश है, कि वो जल्दी से ये ख़त्म करे और ये, कि ये किसी
बीमारी की तरह गुज़र जाए. इस पर स्वामित्व होना या इस बारे में किसी तरह का बौद्धिक
काम करना किसी के बस में नहीं है, उसका ख़ुद का भी इस पर ज़ोर
नहीं चलता”.
मगर टॉल्स्टॉय इस
बीच पूरी तरह निराश नहीं हुआ था. उसने बिल्कुल नये क्षेत्र में एक महान आलोचनात्मक
कार्य आरंभ किया था, मगर उसे विश्वास था, कि
वह मुख्यभूमि तक गहरे पैंठ जाएगा, सत्य को हासिल कर लेगा और
तब ऊँचा उठेगा.
22 अक्तूबर को
उसने अपनी डायरी में लिखा : “दुनिया में ऐसे लोग हैं, जो
भारी, बिना पंखों वाले हैं. वे नीचे की ओर जाते हैं. उनमें
कुछ शक्तिशाली भी होते हैं – नेपोलियन, जो लोगों के बीच अपनी
ख़तरनाक राह बनाते जाते हैं, लोगों के बीच उलझनें पैदा करते
हैं, मगर सब कुछ – धरती पर. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं,
जो अपने पंख उगाते हैं और धीरे-धीरे ऊपर उठकर उड़ते हैं. मॉन्क्स (भिक्षु-अनु.).
कुछ हल्के लोग होते हैं, हल्के पंखों वाले, आसानी से घुटन से ऊपर उठने वाले और फिर से नीचे उतरने वाले, - अच्छे आदर्शवादी. कुछ लोग होते हैं बड़े-बड़े, मज़बूत
पंखों वाले, जो हवस की ख़ातिर भीड़ में उतरते हैं और अपने पंख
तोड़ बैठते हैं. ऐसा मैं हूँ. फिर बेतहाशा टूटे हुए पंख फड़फड़ाते हैं और गिर जाते हैं.
पंख ठीक हो जाएँगे तो ऊँचे उड़ जाऊँगा. ख़ुदा, मेहेरबानी कर.
कुछ लोग आसमानी पंखों वाले होते हैं, जानबूझकर लोगों के
प्यार की ख़ातिर ज़मीन पर उतर आते हैं (पंखों को समेट कर) और लोगों को उड़ना सिखाते
हैं. और जब काम पूरा हो जाता है, तो उड़ जाते हैं –
क्राइस्ट”.
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