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28 अक्टूबर को रात में दो
बजे के बाद टॉल्स्टॉय की आँख खुल गई. पिछली रातों की ही तरह दरवाज़े खोलने की और
सावधान कदमों की आहट सुनाई दी. उसने अपने अध्ययन कक्ष की तरफ़ देखा. वहाँ तेज़ रोशनी
थी. कागज़ की सरसराहट सुनाई दे रही थी. वह समझ गया कि सोफ्या अन्द्रेयेव्ना उसके
कागज़ात खंगाल रही है, कुछ ढूँढ़ रही है. कल ही रात
को उसने विनती की थी, मांग की थी, कि
वह दरवाज़े बंद न करे. उसके दोनों दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं, जिससे कि पति की ज़रा सी भी हलचल उसे सुनाई दे. दिन में और रात में भी उसकी
सारी गतिविधियाँ, शब्द उसे मालूम होने चाहिए और उसके
नियंत्रण में रहने चाहिए.... फिर से आहट, अध्ययन कक्ष का
दरवाज़ा सावधानी से खुलता है, और वह जाती है. असहनीय तिरस्कार,
क्रोध उस पर हावी हो जाता है. अपनी परिस्थिति में उसे कुछ अनुचित-सा,
शर्मनाक-सा महसूस होता है...
वह सोना चाहता था,
मगर नहीं सो सका, करीब एक घंटा बीत गया;
उसने मोमबत्ती जलाई और बैठ गया. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना तुरंत आ गई और
तबियत के बारे में सवाल पूछने लगी.
तिरस्कार और क्रोध बढ़ गए.
वह हाँफने लगा. अपनी नब्ज़ गिनने लगा – 97. वह लेट न सका. और उसके भीतर अचानक भाग
जाने का अंतिम, दृढ़ निर्णय पक्का हो गया.
उसने जल्दी से पत्नी को ख़त
लिखा और जल्दी-जल्दी अपनी चीज़ें समेटने लगा. फिर उसने डॉक्टर दूशान माकवीत्स्की को
और अपनी बेटी तथा उसकी सहेली को जगाया.
हौले से,
आहट न करते हुए, टॉल्स्टॉय पत्नी के कमरे तक
गया, उसके शयन कक्ष के दरवाज़े और कॉरीडोर के दरवाज़े बंद
किए.
और लगातार : “धीरे,
धीरे, शोर नहीं!” इस ख़याल से उसे कंपकंपी हो
रही थी, कि पत्नी सुन लेगी, उसके
उन्मादयुक्त दौरे शुरू हो जाएँगे और बिना तमाशे के जाना मुमकिन नहीं होगा...
वे बिना आवाज़ किए,
बिना बात किए चल पड़े. हालत बिगड़ रही थी : हाथ काँप रहे थे, बेल्ट नहीं खिंच रहे थे, सूटकेसें बंद नहीं हो रही
थीं...
पाँच बजे के बाद वह अस्तबल
में लोगों को जगाने और घोड़े तैयार करवाने के लिए जाता है. रात – घनघोर अंधेरे वाली
है. वह रास्ते से उतर जाता है, झाड़ियों में गिर
जाता है, खरोचें पड़
जाती हैं, पेड़ों से टकराता है, गिरता
है, टोपी खो देता है, ढूँढ़ नहीं पाता,
ज़बर्दस्ती वापस, घर की ओर जाता है. बेटी उसे
दूसरी टोपी देती है, और बिजली के लैम्प की रोशनी में वे
सामान उठाकर अस्तबल में लाते हैं. लोगों को उठाते हैं, सामान
रखते हैं...टॉल्स्टॉय शीघ्रता से और परेशानी से, अत्यंत
प्रयासपूर्वक घोड़े पर लगाम कसता है, पीछा किए जाने के डर से
वह थरथर काँप रहा है. मगर, सब तैयार हो गया. हाथ में मशाल
लिए साईस घोड़े पर कूदा. उसके पीछे, घर का चक्कर लगाते हुए
टमटम चल पड़ी...
इस अंधेरी रात में बयासी
साल के टॉल्स्टॉय ने, थरथराते हुए, गुप्त रूप से हमेशा के लिए यास्नाया पल्याना को छोड़ दिया.
उसके साथ सिर्फ उसका मित्र,
डॉक्टर माकवीत्स्की था.
********
करीब ग्यारह बजे सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना के शयनकक्ष में कदमों की आहट सुनाई दी.
बेटी उससे मिलने हॉल में
आई.
“पापा कहाँ हैं?”
घबराई हुई आवाज़ में काउन्टेस ने पूछा.
“पापा चले गए.”
“कहाँ?”
“मालूम नहीं.”
“ऐसे कैसे नहीं मालूम,
कहाँ चले गए? हमेशा के लिए चले गए?”
“वो तुम्हारे लिए ख़त छोड़
गए हैं, ये रहा वो.”
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने
लपक कर ख़त छीन लिया और जल्दी से उसे पढ़ा.
टॉल्स्टॉय ने लिखा था:
“सुबह 4 बजे. 28 अक्टूबर
1910.
मेरा जाना तुम्हें दुखी कर
देगा, इस बारे में अफ़सोस है, मगर
समझो और यकीन करो, कि मैं कुछ और कर भी नहीं सकता था. घर में
मेरी स्थिति असहनीय हो रही है – हो गई थी. और बातों के अलावा, मैं उन शानो-शौकत के हालात में नहीं रह सकता, जिनमें
रह रहा था, और वही कर रहा हूँ, जो मेरी
उम्र के बूढ़ लोग करते हैं – जीवन के आख़िरी दिनों में दुनियाई ज़िंदगी से निकल जाते
हैं, जिससे एकान्त में रहें. प्लीज़, इस
बात को समझो और अगर तुम्हें पता भी चले कि मैं कहाँ हूँ, तो
भी मेरे पीछे मत आओ. तुम्हारा इस तरह से आना सिर्फ तुम्हारी और मेरी स्थिति को और
भी बदतर बना देगा, मगर मेरे इरादे को नहीं बदलेगा. मेरे साथ
गुज़ारी 48 सालों की तुम्हारी पाक-साफ़ ज़िंदगी के लिए तुम्हें धन्यवाद देता हूँ और
मुझे हर उस बात के लिए, जिसमें मैं तुम्हारा गुनहगार था,
माफ़ करने की विनती करता हूँ, उसी तरह, जैसे मैं भी पूरी आत्मा से तुम्हें हर उस बात के लिए माफ़ करता हूँ,
जिसमें तुमने मेरे प्रति गुनाह किए होंगे. तुम्हें सलाह देता हूँ,
कि मेरे जाने के बाद जो नए हालात तुम्हारे लिए पैदा होंगे, उनसे समझौता कर लो, और मेरे ख़िलाफ़ कोई कटु भावना मत
रखना. अगर मुझे कुछ सूचित करना चाहो – तो साशा को दे देना, उसे
पता रहेगा, कि मैं कहाँ हूँ, और वह जो
ज़रूरी है, मुझे भेज देगी. इस बारे में बताने की, कि मैं कहाँ हूँ, उसे इजाज़त नहीं है, क्योंकि मैंने उससे वचन लिया है कि इस बारे में किसी को भी न बताए. ल्येव
टॉल्स्टॉय”.
“चला गया,
हमेशा के लिए चला गया!...” काउन्टेस चीखी. “अलबिदा! मैं उसके बगैर
ज़िंदा नहीं रह सकती, मैं डूब जाऊँगी!...”
उसने ख़त फर्श पर फेंक दिया
और एक ही पोषाक में घर से बाहर भागी. वो तालाब की तरफ़ भाग रही है. उसके पीछे भाग
रहे हैं बेटी, टॉल्स्टॉय की सेक्रेटरी, नौकर...
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना कपड़े
धोने वाले प्लेटफॉर्म पर पहुँचती है, फिसल जाती है,
गिरती है, तालाब में कम गहरी जगह पर लुढ़क जाती
है, और पानी में डूबने लगती है...
बेटी उसके पीछे भागती है.
कमर तक पानी में खड़े होकर वह माँ को बाहर खींचती है और उसे पीछे से भागकर आते हुए
लोगों के हवाले करती है.
उस भयानक दिन काउन्टेस ने
कई बार तालाब तक भागने की कोशिश की. मगर उसका पीछा करके उसे ज़बर्दस्ती वापस लाया
गया. वह लगातार रोए जा रही थी, अपने सीने पर कभी
भारी पेपरवेट, तो कभी हथौड़ा मार रही थी, अपने जिस्म में चाकू, कैंची चुभो रही थी, खिड़की से बाहर कूदना चाह रही थी...
पूरी रात वह एक कमरे से
दूसरे कमरे में घूमती रही, कभी ज़ोर से विलाप
करती, तो कभी शांत हो जाती.
शाम को तूला से नर्स के
साथ मनोचिकित्सक आया. दूसरे दिन पूरा परिवार यास्नाया में इकट्ठा हो गया.
******
इस बीच टॉल्स्टॉय
महिला-मॉनेस्ट्री पहुँच गया था, जहाँ उसकी बहन –
नन - रहती थी. यहाँ अचानक उसकी छोटी बेटी अपनी सहेली के साथ पहुँच गई. इस डर से
उसकी रहने की जगह के बारे में सबको पता चल जायेगा, वह अचानक
अगली यात्रा पर निकल पड़ा. नोवोचेर्कास्क जाने का फ़ैसला किया गया, जहाँ टॉल्स्टॉय का एक रिश्तेदार सेवारत था, वहाँ
विदेश जाने के लिए पासपोर्ट प्राप्त करने की कोशिश करके पश्चिमी यूरोप की किसी
छोटी जगह पर - जैसे बल्गारिया - जाने का विचार था.
मगर टॉल्स्टॉय के अगले
मार्ग का प्लान और उस बारे में विचार मुख्यतः उसके साथी ही कर रहे थे. वह ख़ुद,
दयनीय, कमज़ोर, लड़खड़ाता
हुआ, पीछा किये जाने के डर से, सिर्फ
दूर भाग जाने के लिए जल्दी मचा रहा था...
“बस,
बस,” उसने कहा, “सिर्फ
किसी कॉलोनी में नहीं, किसी परिचित के पास नहीं, बल्कि सिर्फ झोंपडी में किसानों के पास...
“अगर माँ को कुछ हो गया,
तो क्या जो तुमने किया है, उसके बारे में
अफ़सोस कर सकते हो, या अपने आपको दोष दे सकते हो?” बेटी ने उससे पूछा.
“ज़ाहिर है,
नहीं,” उसने जवाब दिया. जब इन्सान कुछ और कर
ही नहीं सकता, तो क्या उसे अपने किए पर अफ़सोस हो सकता है.
मगर, यदि उसे कुछ हो जाता है, तो मेरे
लिए बेहद, बेहद तकलीफ़देह होगा...”
उसका विचार था,
कि उसके लिए वो घड़ी आ गई है, जब उसे अपने आप
को, ल्येव टॉल्स्टॉय को नहीं, बल्कि उस
मानवीय गरिमा और ख़ुदाई चमक को बचाना है, जो यास्नाया पल्याना
में उसकी स्थिति के कारण अपमानित हुई थीं.
पत्नी के साथ उसका
पत्र-व्यवहार जारी था. उसका अंतिम पत्र पढ़ते हुए गहरी सहानुभूति का अनुभव होता है
: दयनीय, परेशान, कुचली
गई औरत नहीं जानती, कि क्या कह रही है : उसे अब भी उम्मीद है,
अब भी वह सहानुभूति के लिए
प्रार्थना कर रही है, प्यार की कसमें खाती है, वादा कर रही है, मना रही है.
टॉल्स्टॉय उसे लिखता है,
कि उनकी मुलाकात भयानक होती. वह उसकी ईमानदारी पर विश्वास करता है,
मगर उसने सोचा, कि अब वह उस बात को पूरा नहीं
कर पायेगी, जिसका वादा कर रही है.
पीछा किए जाने की संभावना
से दूर जाते हुए, वह “निरंतर उनकी स्थिति से पलायन
करने के मार्ग के बारे में सोच रहा था और उसे कुछ सूझा नहीं, और अगर वो हो भी, चाहो – न चाहो, मगर ये वो नहीं होगा, जिसकी तुम कल्पना करते हो...”
भाग्य ने उसके लिए ये
मार्ग पहले ही तय कर दिया था. रेलगाड़ी के कम्पार्टमेन्ट में वह बीमार हो गया.
रुकना पड़ा और बड़े स्टेशन – अस्तापवा पर उतरना पड़ा. स्टेशन मास्टर ने मरीज़ को अपना
क्वार्टर दे दिया. टॉल्स्टॉय के फेफड़ों पर चुपके से सूजन आ रही थी,
जो अक्सर बूढ़े लोगों को ले जाती है.
अत्यंत सावधान देखभाल,
डॉक्टरों के झुण्ड, प्यार और दुलार से घिरा,
वह सात दिन बाद मर गया. उसका मित्र चेर्त्कोव, दो बेटियाँ और बड़ा बेटा उसके अंतिम क्षण में मौजूद थे. बीमारी की चरम सीमा
पर भी उसने अपने छोटे बेटों को टेलिग्राम लिखवाया : “हालत बेहतर, मगर दिल इतना कमज़ोर, कि मम्मा से मुलाकात मेरे लिए
आत्मघाती हो सकती है.”
सबसे ज़्यादा डर उसे इस बात
का था, कि उसके रहने की जगह का पता चल जाएगा, और सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना उसके पास प्रकट हो जाएगी.
एक बार उसने बड़ी बेटी की
ओर देखा, जो पलंग के पास बैठी थी, और हौले से कहा : “सोन्या पर बहुत असर होगा...”
तात्याना ल्वोव्ना ने फिर
से पूछा.
“सोन्या पर...सोन्या पर बहुर
असर होगा...हमने एक दूसरे से बुरा बर्ताव किया...”
फिर उसने कुछ समझ में न
आने वाली बात कही.
“क्या तुम उससे मिलना
चाहते हो? सोन्या को देखना चाहते हो?”
वह ख़ामोश रहा.
कभी कभी तेज़ बुखार में वह
चीख़ता:
“भागो...भागो...पकड़
लेंगे...”
इस बीच अस्तापवा का रेल्वे
स्टेशन संवाददाताओं से भर गया था. टेलिग्राफ़ ऑफिस काम कर रहा था और दुनियाभर में
टॉल्स्टॉय के अंतिम दिनों के बारे में जानकारी भेज रहा था. और साइड-लाइन पर एक
ट्रेन खड़ी थी, जिसमें सोफ्या अन्द्रेयेव्ना और
परिवार के छोटे सदस्य रहते थे. उसे मनाया गया था, कि
टॉल्स्टॉय के तंदुरुस्त होने तक उसके पास न जाए.
बेटों में से एक के हाथ का
सहारा लेते हुए, वह हौले-हौले स्टेशन मास्टर के
छोटे से घर तक आती और परदा लगी खिड़कियों पर नज़र गड़ाती. एक कमरे का रोशनदान खुलता,
और उसे ताज़ा समाचारों की जानकारी दी जाती. कुछ देर खड़े रहकर,
वह अपने कम्पार्टमेन्ट में वापस चली जाती, जिससे
कि अकेले में अपने बारे में और बेचारे लेवच्क्का के बारे में जी भर के रो ले.
“डॉक्टरों ने मुझे उसके
पास जाने दिया,” सोफ्या अन्द्रेयेव्ना लिखती है,
“जब वह मुश्किल से सांस ले पा रहा था, पीठ के
बल निश्चल पड़ा था, आख़ें बंद हो चुकी थीं. मैंने हौले से उसके
कान में नज़ाकत से कहा, इस उम्मीद से कि वह अभी भी सुन रहा है,
- कि मैं पूरे समय यहीं थी, अस्तापवा में,
कि उसे अंतिम सांस तक प्यार करती रही...याद नहीं, कि मैंने उससे और क्या कहा था, मगर दो गहरी सांसों
ने, जो बड़ी मुश्किल से ली गई थीं, मेरे
लब्ज़ों का जवाब दे दिया, और उसके बाद सब शांत हो गया”.
बीमारी के दौरान टॉल्स्टॉय
को बेहद शारीरिक कष्ट हुआ, मगर वह आस पास के
लोगों से नर्मी और प्यार से पेश आता रहा. वह सिर्फ तभी परेशान होता जब उसके पलंग
के पास खड़े लोग उसके विचारों को लिख और पढ़ नहीं पाते थे, जिन्हें
वह व्यर्थ ही लिखवाने की कोशिश करता था.
आधी बेहोशी में वह
बुदबुदाता:
“ढूँढ़ना,
पूरे समय ढूँढ़ना...”
उसके उन सभी लब्ज़ों को,
जिन्हें समझा जा सकता था, दर्ज कर लिया गया
था. मगर उन लम्बे दिनों और रातों में, जो उसने अस्तापवा में
बिताए थे, वह क्या सोच रहा था? ज़ाहिर
है, उसे अपने शीघ्र अंत का एहसास हो गया था. ये तो निश्चित
रूप से कहा जा सकता है, कि मौत, जिसे
वह पिछले कुछ सालों से अक्सर बुलाया करता था – इस बार उसके लिए कठोर और अप्रिय
प्रतीत हो रही थी. वह मरना नहीं चाहता था. मगर सब कुछ, जैसा
वह कभी सोचता था, उसकी अपेक्षा काफ़ी सरल और साधारण ढंग से
सम्पन्न हो गया...
एक बार अलेक्सान्द्रा
ल्वोव्ना की सहेली कमरे में आई.
अचानक वह बिस्तर से उठ गया,
उसकी ओर हाथ बढ़ाया और ज़ोर से, प्रसन्नता भरी
आवाज़ में चिल्लाया:
“माशा! माशा!...”
जैसे वह इंतज़ार कर रहा था
और, आख़िरकार, उसने अपनी प्रिय
बेटी को देख ही लिया, जिसकी चार साल पहले मृत्यु हो गई थी.
अंतिम सांस उसने शांति से
छोड़ी.
*******
आठ साल बीत गए. टॉल्स्टॉय
की रचनाओं के प्रकाशन के काम से मुझे यास्नाया पल्याना में कुछ दिन गुज़ारने पड़े.
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने अपनी छोटी बेटी से समझौता कर लिया था. वह बड़ी गरिमा,
थकावट और इत्मीनान से मुझसे मिली. वह 74 साल की हो चुकी थी. लम्बी,
कुछ झुकी हुई, बेहद दुबला गई – वह ख़ामोशी से,
परछाई की तरह, कमरों में फिसलती और ऐसा लगता,
कि तेज़ हवा के झोंके में अपने पैरों पर खड़ी न रह पायेगी. हर रोज़ वह एक
मील चलकर पति की कब्र तक जाती और उस पर चढ़ाए हुए फूल बदलती.
मैं भी कब्र पर गया. टॉल्स्टॉय
को पार्क के मध्य में, खाई के किनारे पर, बड़े बड़े, घने पेडों की छाँव में दफ़नाया गया है. मिट्टी
के टीले के चारों ओर – लकड़ी की जाली लगी है. भीतर, साधारण बेंच.
इस अकेली जगह पर सब कुछ शांत है. सिर्फ नीचे झुक आईं टहनियों की अबूझ सरसराहट ही शोकपूर्ण
विचारों को जगा रही है.
बातें करते हुए सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना
मुस्कुरा नहीं रही थी, मगर ख़ुशी से बातें कर रही थी.
वह, जैसे बुझ गई थी. हालाँकि उसने प्रसन्नता से यास्नाया पल्याना
के ख़ुशगवार दिनों के बारे में अपने संस्मरण पढ़कर सुनाए. उसे कुछ कविताएँ मुँहज़बानी
याद थीं, जो फ़ेत ने उसे समर्पित की थीं. चेर्त्कोव के बारे में
बिना कड़वाहट के, मगर एक ठण्डी, स्पष्ट रूप
से प्रकट हो रही अप्रियता के साथ बात की.
अपने महान पति के अंतिम दशकों
के बारे में उसके उद्गार में हमेशा ही प्रिय नहीं थे.
कुछ देर चुप रह कर वह ये बात
ज़रूर जोड़ती:
“हाँ,
अडतालीस साल मैंने ल्येव टॉल्स्टॉय के साथ गुज़ारे, मगर फिर भी समझ नहीं पाई, कि वह किस तरह का आदमी था...”
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