गुरुवार, 3 मई 2018

Tolstoy and His Wife - 6.3




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“मुझे कैसे बचना है? मैं महसूस करता हूँ, कि मर रहा हूँ. ज़िंदा हूँ और मर रहा हूँ, ज़िंदगी से प्यार करता हूँ, और मौत से डरता हूँ – मुझे कैसे बचना है?”

टॉल्स्टॉय ने अपनी स्थिति का वर्णन इस तरह किया था जून 1878 में.

“कन्फेशन” (स्वीकारोक्ति – अनु.) विस्तार से उस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करता है, जिसने उसे धर्म में सुरक्षा खोजने पर मजबूर किया.

उसने अपने दायरे के लोगों की ओर तथा उनकी शिक्षा की ओर देखा. उनका बहुत बड़ा अंश आस्तिकों की श्रेणी में नहीं आता था. उनके बीच स्वयम् को पीड़ा देने वाले प्रश्नों के उत्तर उसे नहीं मिले.

उसने ऐसे लोगों को देखा, जो या तो इस समस्या को बिल्कुल ही समझ नहीं पाये; या समझ तो गए मगर उसे ज़िंदगी के नशे में – भोगवाद से कुंठित कर दिया; या समझ गए थे और उन्होंने आत्महत्या कर ली थी; या समझ गए थे और बेबसी से इस निराशाजनक ज़िंदगी को जी रहे थे.
उसके दायरे के धर्म में आस्तिकों का हाल भी कुछ बेहतर नहीं था. सम्पन्नता और प्रचुरता में रहते हुए भी, वे उसमें वृद्धि करने की, या उसे बचाने की कोशिश करते; अभावों से, मुश्किलों से, मृत्यु से डरते हुए जी रहे थे, हवस को संतुष्ट करते हुए, यदि ज़्यादा बुरी तरह नहीं, तो उसी तरह बदहवासी से जी रहे थे जैसे नास्तिक जीते हैं.                                   

टॉल्स्टॉय को सुरक्षा दिखाई दी “असली मज़दूर वर्ग” के जीवन का आदर्शीकरण करने में. उसे ऐसा प्रतीत हुआ, कि ये लोग उसे परेशान करने वाले सवाल से दूर नहीं भागते हैं और “असाधारण स्पष्टता से उसका जवाब देते है” ; अभावों के बावजूद, “वे ज़िंदगी से ख़ुश हैं; वे जीते हैं, कष्ट उठाते हैं, शांति से मृत्यु की ओर बढ़ते हैं, अधिकतर प्रसन्नता से ही”; वे ज़िंदगी की सभी ख़ुशियों से वंचित हैं, मगर फिर भी महान सुख का अनुभव करते हैं...

इस तरह के सीधे सादे विचारों ने उसे शांति पहुँचाई. उसने आम लोगों से जीवन और मृत्यु के प्रति उनका दृढ़ और आत्मविश्वासपूर्ण दृष्टिकोण उधार लेने का निश्चय किया. उसने ख़ुदा के बारे में, धार्मिक विश्वास के बारे में, रक्षण के बारे में लोगों की बातें सुनीं – और, उसे लगा, कि धार्मिक विश्वास का ज्ञान उसके सामने स्पष्ट हो गया है, और वह “सत्य को अधिकाधिक समझ रहा है”. 

उसका मित्र स्त्राखव बताता है, कि कैसे एक बार टॉल्स्टॉय उसे अपने साथ राजमार्ग पर ले गया (घर से एक चौथाई मील दूर). वहाँ उन्हें तुरन्त उपासक और तीर्थयात्री मिल गए. “बातचीत और आश्चर्यजनक कहानियाँ शुरू हो गई. करीब दो मील की दूरी पर छोटी- छोटी बस्तियाँ थीं और वहाँ उपासकों के लिए दो सरायें थीं (उन्हें फ़ायदे के लिए नहीं, बल्कि “आत्मा की सुरक्षा” के लिए चलाया जाता था)... करीब आठ आदमी - अलग अलग तरह के आदमी, बूढ़े, औरतें आज़ादी से अपना अपना काम कर रहे थे : कोई खाना खा रहा था, कोई प्रार्थना कर रहा था, कोई आराम कर रहा था. एक व्यक्ति लगातार बोल रहा था, कुछ सुना रहा था, मतलब बता रहा था...सुनना बहुत दिलचस्प था...”

रूसी आदमियों ने, उपासकों ने, और यात्रियों ने टॉल्स्टॉय को क्या सिखाया था?

रूसी श्रमिक की नज़र में जीवन का क्या अर्थ है, उसे टॉल्स्टॉय इस तरह बतलाते हैं : “हर इन्सान इस दुनिया में ख़ुदा की मर्ज़ी से आया है. और ख़ुदा ने इन्सान का निर्माण इस तरह किया, कि हर इन्सान अपनी रूह को या तो मार सकता है, या उसे बचा सकता है. ज़िंदगी में इन्सान का काम है, अपनी आत्मा की रक्षा करना; आत्मा की रक्षा करने के लिए, ख़ुदा की मर्ज़ी से जीना चाहिए, और ख़ुदा की मर्ज़ी से जीने के लिए, ज़िंदगी के सभी प्रलोभनों से दूर रहना चाहिए, काम करना चाहिए, विनम्र होना चाहिए, सहन करना चाहिए और दयालु होना चाहिए...”

जीवन की यह समझ, जिससे टॉल्स्टॉय प्रसन्न हो गया, उसके विचार में क्रिश्चियन सिद्धांतों से निकली थी, जिसे लोगों ने परंपराओं, सिद्धांतों और ऑर्थोडोक्स चर्च के संस्कारों से आत्मसात् किया था. या तो जीवन के अर्थ के बारे में लोगों की इस समझ को एकदम नकारना था या उसे समस्त मूलभूत आधारों सहित स्वीकार करना था, जिनसे इस विचार की पुष्टि होती थी (गुप्तता, चर्च की सेवाएँ, उपवास, स्मृति चिह्नों और प्रतीकों की पूजा).                                      

और, चाहे टॉल्स्टॉय को लोगों के धार्मिक विश्वास के अंतर्गत कितनी ही विचित्रता क्यों न नज़र आई, उसने सब कुछ स्वीकार किया : वह चर्च में सर्विस के लिए जाता, सुबह शाम प्रार्थना करता, व्रत करता, पश्चात्ताप के लिए स्वयम् को तैयार करता. शुरू में तो उसके दिमाग़ ने किसी भी बात का विरोध नहीं किया. चाहे कुछ भी हो जाए, उसे जीवन के वैसे अर्थ की ज़रूरत थी, जो मृत्यु से नष्ट नहीं होता हो. लगता था, कि उसने उसे पा लिया है. बाकी सब चीज़ों की तरफ़ से उसने आँखें मूंद लीं.

ग़ौर करने वाली बात है, कि बीस साल पहले जीवन का जो अर्थ लोगों को ज्ञात था, वह टॉल्स्टॉय को धर्म से ज़रा भी संबंधित नहीं प्रतीत हुआ. अपनी कहानी “तीन मौतें” का सार समझाते हुए, अन्य बातों के अलावा उसने लिखा था: “आदमी शांति से सिर्फ इसलिए मरता है, क्योंकि वह ईसाई नहीं है. उसका धर्म दूसरा है, हालाँकि रिवाजों के अनुसार उसने क्रिश्चियन अनुष्ठानों को सम्पन्न किया है; उसका धर्म है – प्रकृति, जिसके साथ वह जिया था. उसने ख़ुद ही पेड़ काटे, फ़सल बोई और फ़सल काटी, भेड़ें मारीं, और उसके यहाँ भेड़ें पैदा हुईं, और बच्चे पैदा हुए, और बूढ़े मरते रहे, और उसे यही नियम अच्छी तरह मालूम है, जिससे उसने कभी भी मुँह नहीं मोड़ा...और सीधे, बस, उसका सामना करता रहा”.

चाहे जो भी हो, अब, सत्तर के दशक के अंत में, टॉल्स्टॉय को यकीन हो गया था, कि उसे ललचाने वाला, दुनिया के प्रति आदमी का जो दृष्टिकोण है, वह पूरी तरह ऑर्थोडोक्स चर्च की शिक्षा पर आधारित है, और वह उसे स्वीकार करने के लिए भी तैयार है, क्योंकि, जैसा वह कहता है, “कोई और उपाय नहीं है.”

टॉल्स्टॉय की धार्मिक खोजों की शुरुआत का वर्णन “आन्ना करेनिना” के अंतिम पृष्ठों में दिखाया गया है. इन पृष्ठों को पढ़ते हुए, दस्तयेव्स्की को उस धार्मिक विश्वास के पुख़्तापन पर संदेह हो रहा था, जो ज़मींदार लेविन ने किसान से हासिल किया था. उसने ये सोचा, कि ये – अभी भी विश्वास नहीं है. लेविन जैसे लोगों के लिये अंतिम विश्वास का होना संदेहास्पद है. “उसकी आत्मा में,” दस्तयेव्स्की ने कहा, “वह कितनी ही कोशिश क्यों न करे, किसी चीज़ की छाया रह ही जाती है, जिसे, मैं सोचता हूँ, निकम्मापन कहा जा सकता है – वही निकम्मापन, शारीरिक और आध्यात्मिक, जो, वह चाहे कितना ही मज़बूत क्यों न हो जाए, मगर उसे विरासत में मिला है...और अपना विश्वास वह फिर से नष्ट कर देगा, ख़ुद ही नष्ट कर देगा, देर तक उसे संभाल नहीं पाएगा : कोई नई कोपल फूटेगी, और एक झटके में सब ख़त्म हो जाएगा...”
दस्तयेव्स्की का अनुमान सही निकला. 

टॉल्स्टॉय लोगों के धर्म को पूरी तरह आत्मसात करने में सक्षम नहीं था. “व्यस्त दिमाग़” ने अपना आलोचनात्मक काम कर ही दिया. और फिर भी, समय समय पर टॉल्स्टॉय हठधर्मिता से ऑर्थोडोक्स चर्च के अनुसार जीने की कोशिश करता रहा. चर्च के संस्कारों का पालन करते हुए उसने अपने दिमाग को काबू में रखा और अपने आप को उन विश्वासों के हवाले कर दिया, जिनके बल पर उसके चारों ओर रूसी श्रमिक जी रहे थे.

एक बार लेन्ट के दिनों में पीटरबुर्ग आने पर, वह अपनी राजमहल वाली बुआ के घर गया. परिवार कट्टर ऑर्थोडॉक्स था. मगर वृद्धा गृहस्वामिनी के स्वास्थ्य और कमज़ोरी के कारण सबने हल्का सा खाना खाया. टॉल्स्टॉय को गुस्सा आ गया. उसके माथे पर बल थे, और स्पष्ट था कि वह झल्ला गया था; मेज़ से उठने के बाद वह फ़ौरन काउण्टेस अलेक्सान्द्रा अन्द्रेयेव्ना के पास गया और पूछा, कि उन्होंने व्रत क्यों नहीं रखा. उसने समझाया.

“क्या आपको ये अच्छा नहीं लगता?”

“बेशक, जब तुम किसी चर्च से संबद्ध होते हो, तो कम से कम, इतना ही कर सकते हो, कि उसके नियमों का पालन करो...”

ल्येव निकोलायेविच असाधारण कडाई से व्रत रखता था. एक बार वह बीमार हुआ. डॉक्टर ने हल्का भोजन करने को कहा. टॉल्स्टॉय चर्च की इजाज़त के बिना ये नहीं कर सकता था : वह मॉनेस्ट्री गया उसने वहाँ के प्रमुख से हल्का भोजन करने की इजाज़त मांगी.

सन् 1877 में यास्नाया पल्याना में अलेक्सेयेव नामक एक व्यक्ति शिक्षक के रूप में आया. वो खुल्लमखुल्ला नास्तिक था और कभी क्रांतिकारी भी रह चुका था. टॉल्स्टॉय के निकट सम्पर्क में आने के बाद, वह कभी कभी आश्चर्य प्रकट कर देता था, कि कैसे ल्येव निकोलायेविच, अपनी तरक्की, समझदारी और ईमानदारी के होते हुए सभी अनुष्ठान कर सकते हैं. एक बार एक साफ़ बर्फीले दिन वे ड्राइंग रूम में इस बारे में बातें कर रहे थे. ल्येव निकोलायेविच खिड़की के सामने बैठा था, जिस पर बर्फ जम गई थी, और जो इन जमी हुई आकृतियों से डूबते हुए सूरज की तिरछी किरणें भीतर आने दे रही थी.

“ये देखो, इन आकृतियों की ओर, जो सूर्य से प्रकाशित हो रही हैं,” टॉल्स्टॉय ने कहा. “इन आकृतियों में हम सिर्फ की परछाईं ही देख रहे हैं, मगर साथ ही ये भी जानते हैं, कि इन आकृतियों से परे, दूर कहीं असली सूरज है, उस प्रकाश का स्त्रोत, जो वह तस्वीर बनाता है, जो हमें दिखाई देती है. लोगों को धर्म में सिर्फ ये परछाईं ही दिखाई देती है, मगर मैं आगे नज़र दौड़ाता हूँ, और देखता हूँ, या कम से कम, जानता हूँ, कि प्रकाश का असली स्त्रोत क्या है. और हमारे इस दृष्टिकोण का अंतर हमें एक दूसरे से बात करने से नहीं रोकता; हम दोनों ही सूर्य की इस परछाईं को देखते हैं, सिर्फ हमारी तर्क-बुद्धि विभिन्न गहराई तक उसमें पैंठती है."

मगर, कभी कभी, टॉल्स्टॉय निराश हो जाता था: तमाम इच्छा के बावजूद, वह लोगों से घुलमिल नहीं सकता था.

“नहीं, नहीं कर सकता, मुश्किल है,” चर्च से लौटकर वह कह रहा था. “मैं उनके बीच खड़ा हूँ, सुनता हूँ, कि जब वे सलीब का निशान बनाते हैं, तो कैसे उनकी उँगलियाँ हाफ़-कोट पर बजती हैं, और उसी समय औरतों और मर्दों की दबी-दबी फुसफुसाहट रोज़मर्रा की बातों के बारे में, जिनका सर्विससे कोई ताल्लुक नहीं होता. किसानों की काम-धंधे के बारे में बातचीत, औरतों की चुगलियाँ, जो फुसफुसाहट से एक दूसरे तक पहुँचती हैं – ठीक ख़ुदा की प्रार्थना के गंभीर क्षणों में – ये साबित करती हैं कि वे बिल्कुल बेदिली से ये सब कर रहे हैं.                    

मुश्किलें बढ़ती गईं. पहले तो विश्वास करना इसलिए ज़रूरी था, ताकि जी सके. और उसने धार्मिक रूढ़ियों के विरोधाभासों और अस्पष्टताओं को स्वयम् से छुपाए रखा. मगर धीरे धीरे उसे मानना पड़ा, कि चर्च की प्रार्थनाओं में से दो तिहाई उसे समझ में नहीं आई हैं और उनको चतुराई से समझाया भी नहीं जा सकता. धर्म के मामले में जानबूझ कर स्वयम् से झूठ बोलना ना तो वह चाहता था और ना ही कर सकता था.

दुश्मनों और विरोधियों के चरणों पर विजय की प्रार्थनाएँ उसे ख़ास तौर से उलझन में डाल देती थीं. पवित्र भोज से पहले वह सिर्फ परेशानी से ही सबके सामने अपने इस विश्वास को स्वीकार कर सकता था, कि उसके सामने ब्रेड और वाइन नहीं, बल्कि ईसा मसीह का शरीर और खून है: इस बात पर विश्वास करने के लिए तो वह वाकई में स्वयम् पर ज़ोर नहीं डाल सकता था.  त्यौहारों के सम्मान में आयोजित उत्सवों में भाग लेना उसे बड़ा कठिन लगता : क्योंकि उनमें से महत्वपूर्ण ( क्रिसमस को छोड़कर) उन चमत्कारों की याद में मनाए जाते थे, जिन पर उसे विश्वास नहीं था. मृत्यु के बाद ईसा के पुनर्जन्म को समझना और उसकी कल्पना करना उसे ख़ास तौर से मुश्किल लगता था...

कितनी बार उसने तहे दिल से किसानों से, उनकी निरक्षरता से और अज्ञान से ईर्ष्या की थी!...आख़िर इस भीड़ में सिर्फ उसके लिए, अभागे के लिए, - सब कुछ अधिक स्पष्ट था, कि “चर्च की शिक्षा में सत्य को झूठ के महीन धागों से गुंथा हुआ है”.

इस तरह वह तीन साल तक तड़पता रहा.

मगर ज़िंदगी के प्रश्न उठते रहे, जिन्हें सुलझाना अनिवार्य था. चर्च द्वारा इन प्रश्नों को, जैसा उसे लगा, उसी धर्म की आधारभूत मान्यताओं के विपरीत सुलझाया गया, जिसमें वह यकीन करता था. ऑर्थोडॉक्सों के अन्य धर्मों ( कैथोलिक, प्रोटेस्टन्ट) और रूसी विधर्मी सम्प्रदायों के प्रति रवैये से वह बहुत परेशान हो जाता था. “अगर दो कथन एक दूसरे को नकारते हैं,” वह सोचता था, “तो ना इसमें, और ना ही उसमें, वह एक, निर्विवाद सत्य उपस्थित हो सकता है, जिसे धर्म होना चाहिए.”                                              
“युद्ध के प्रति, जो उस समय रूस और तुर्की में हो रहा था, और राजनीतिक एवम् अन्य अपराधियों को मृत्य दंड देने के बारे में ऑर्थोडॉक्स चर्च के रवैये से उसकी आत्मा समझौता नहीं कर सकती थी.”

टॉल्स्टॉय ने कट्टरपंथी लेखों में एक मध्यम मार्ग ढूँढने का प्रयत्न किया. सलाह के लिए वह आर्कबिशपों, बिशपों के पास गया; मॉनेस्ट्रीज़ गया और भिक्षुओं तथा फकीरों के सामने अपने संदेह रखे.

यास्नाया पल्याना के निकट वाले राजमार्ग से निरंतर गुज़रते धर्मानुयायियों के जत्थों को देखकर, जो धार्मिक अवशेषों के सामने माथा टेकने कीएव जाया करते थे, उसने भी वहाँ जाने का और प्रत्यक्ष जानने का निश्चय किया कि सुप्रसिद्ध कीएव-मॉनेस्ट्री में भिक्षु और मठाधिपति लोगों को क्या शिक्षा देते हैं...

मगर सब बेकार रहा. उसे पीड़ा देने वाले संदेहों का संतोषजनक समाधान कोई भी नहीं दे सका. ऊपर से, धर्मग्रंथों के प्रति भिक्षुओं के अज्ञान को सिद्ध करने के लिए उसे उनसे बहस भी करनी पड़ी. उसके आवेशयुक्त स्वभाव के कारण अक्सर वादविवाद में कड़वाहट भर जाती और उसकी आत्मा को शांति न मिल पाती, उसे ख़ुद को भी सुकून नहीं मिलता. उसे महसूस होता, कि जैसे जैसे वह धार्मिकता की बातों में गहरे प्रवेश कर रहा है, वैसे-वैसे वह सत्य से दूर हट कर विनाश की ओर जा रहा है.

उसे यकीन था, कि धार्मिक शिक्षा में सत्य है. मगर, नि:संदेह, उसमें झूठ भी था. झूठ को सत्य से अलग करना ज़रूरी था.

एक बार वह एक प्रीस्ट की कक्षा में गया, जो बच्चों को प्रश्नोत्तर रूप में धार्मिक ग्रंथों का परिचय दे रहा था. ये सब उसे इतना बेढंगा लगा...होशियार बच्चे, इतना स्पष्ट था, कि इन शब्दों पर विश्वास नहीं कर रहे थे और न ही उनका तिरस्कार करने से अपने आप को रोक सकते थे. उसका दिल चाहा कि अपने विश्वास को वह प्रश्नोत्तर रूप में प्रस्तुत करे. उसने कोशिश की. मगर उसे लगा, कि ये मुश्किल और असंभव है.

इस तरह टॉल्स्टॉय धार्मिक शिक्षा के मूलभूत सिद्धांतों – पवित्र पुस्तकें, उनके अर्थ, धार्मिक ग्रंथ - के आलोचनात्मक अध्ययन की ओर मुड़ा.

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