शुक्रवार, 18 मई 2018

Tolstoy and His Wife - 7.3



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टॉल्स्टॉय अपनी खोजों को, “अपने सुख को” अपने आप तक सीमित न रख सका, वह ऐसा चाहता भी नहीं था. नये धर्म में परिवर्तित होने के आरंभिक प्रयोगों में से एक उसने पीटरबुर्ग में किया. उसकी विश्वासपात्र मित्र, उसकी “सुंदर आत्मा वाली” राजमहल की आण्टी – हमेशा, लगभग दर्दभरी बेसब्री से – उसके भीतर सम्पूर्ण और स्पष्ट विश्वास को देखना चाहती थी. पहले से ही सम्पूर्ण सफ़लता का अनुमान लगाते हुए, वह अचानक उसके राजमहल के आवास में प्रकट हुआ. लम्बी जुदाई के बाद मुश्किल से अभिवादन करके, वह उसके सामने वो सब स्पष्ट करने लगा, जो उसकी आत्मा में संचित हो गया था.
वह ख़ामोश रही.
“मैं देख रहा हूँ, कि आपने मेरा विचार आत्मसात् कर लिया है,” अंत में वह चहका.
“तुम ग़लत सोच रहे हो, मेरे प्यारे, मैं तो उसे समझ भी नहीं पा रही हूँ.”
वह अपनी जगह से ऐसे उछला, जैसे किसी ने डंक मार दिया हो.
“आप इसे समझ क्यों नहीं पा रही हैं? ये इतना आसान है और सिर्फ दो लब्ज़ों में समझाया जा सकता है. ये देखिए: मेरी आत्मा में एक खिड़की खुल गई है, - इस खिड़की में मैं ख़ुदा को देखता हूँ, और उसके बाद, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं चाहिए.”
“कुछ नहीं का क्या मतलब है? ज़ाहिर है, सबसे महत्वपूर्ण है ख़ुदा में विश्वास होना; मगर इससे पहले, आपसे सहमत होने से पहले, मुझे ये मालूम होना चाहिए, कि आप उसमें किस तरह स्रे विश्वास करते हैं?”
जवाब में उसने बड़े तैश से चर्च की अनुपयोगिता और उसके नुक्सान को प्रमाणित किया. उसने क्राइस्ट के दैवत्व को, और उसके माध्यम से, प्रायश्चित्त के माध्यम से मुक्ति पाने की संभावना को नकार दिया.
मगर अलेक्सान्द्रा टॉल्स्टाया सख़्ती से ऑर्थोडॉक्सी के पक्ष में रही और अपने सामान्य आवेश से चर्च का बचाव करती रही, जिसे उसने त्याग दिया था. उनके बीच युद्ध छिड़ गया, जो पूरे दिन चलता रहा. दूसरे दिन सुबह उसे चिट्ठी मिली: “गुस्सा न होइये, कि मैं आपसे बिदा लिए बगैर जा रहा हूँ. नहीं कर सकता. कल की बहस से मैं काफ़ी परेशान हूँ...”
वह ग़ायब हो गया. और तभी से उनके बीच तीव्र मतभेद आरंभ हो गए. वह इसे अपना कर्तव्य समझती थी, कि लम्बे-लम्बे पत्रों में उसे ऑर्थोडॉक्स चर्च की छत्रछाया में आने के लिए मनाए. इन पत्रों से उसे बेहद चिड़चिड़ाहट होती थी. उसने निर्णयात्मक ढंग से मांग की, कि वह उसे “परिवर्तित” करने की कोशिशें करना बंद करे (“मतलब, नम्रतापूर्वक कहूँ तो,” उसने लिखा, “उससे अप्रिय बातें कहना बंद करे”). उनकी कई वर्षों की दोस्ती में दरार पड़ गई. वह बिरले ही मिलते और एक दूसरे को पत्र लिखते. मगर पहले के रिश्ते, जो उसकी शादी के बाद ही कमज़ोर पड़ गए थे, अब धूमिल हो गए, मुरझा गए और उनमें फिर कभी भी नयापन नहीं आ सका.

परिवार पर तो उसके प्रवचनों का और भी बुरा परिणाम हुआ. यहाँ सवाल ऑर्थोडॉक्स विश्वास की शुद्धता का नहीं था. मगर निर्धनता के बारे में उसकी शिक्षा ने किसी को भी नहीं ललचाया, ना ही कोई उससे आकर्षित हुआ. इस बात पर किसी को भी विश्वास नहीं हुआ, कि ऐसे भले आदमी मिल जाएँगे, जो बूढ़े हो चले टॉल्स्टॉय के शारीरिक श्रम के बदले उसे और उसके विशाल परिवार को भोजन देंगे. किसी को भी विश्वास नहीं था, कि वह ऐसा श्रम करने लायक है. ऊपर से, जीवन की कुलीन पद्धति को,  जिसकी नींव ख़ुद टॉल्स्टॉय ने रखी थी और जो इस पर ज़ोर देता था, बदलने की उनमें से किसी के भी पास ना तो पर्याप्त इच्छा थी, ना ही कारण थे. व्यर्थ ही में वह अपनी साहित्यिक रचनाओं के अधिकारों को छोड़ना चाहता था, और अपनी सम्पत्ति गरीबों में बांट देना चाहता था. इन उद्देश्यों का डट कर विरोध हुआ. उससे साफ़-साफ़ कह दिया गया, कि यदि वह सम्पत्ति गरीबों में बांटना शुरू करेगा, तो मानसिक परेशानी के कारण की जा रही इस बर्बादी के लिए उस पर शासकीय अभिभावक बिठा दिया जाएगा. इस तरह से उसे पागलखाने भेजने की धमकी भी दी गई.

इस बात की कल्पना करना कठिन है, कि इन धमकियों का पालन किया ही जाता. मगर धमकियाँ, निःसंदेह, दी तो गई थी. उनके बारे में पूरी दृढ़ता से टॉल्स्टॉय की जीवनी के लेखक पावेल इवानोविच बिर्युकव ने लिखा है. उसकी किताब की पांडुलिपि सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के हाथों से गुज़री थी. कुछ अन्य स्थानों पर उसने कई बार विषयवस्तु का स्पष्टीकरण देते हुए पाठकों के लिए टिप्पणियाँ लिखी हैं. इस स्थान पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई थी. सम्पत्ति बर्बाद करने की दशा में शासकीय अभिभावक बिठाने के बारे में उसका भाई (स्तेपान बेर्स) भी अपने संस्मरणों में लिखता है, ये संस्मरण भी प्रकाशन से पूर्व उसके हाथों से होकर गए थे. धमकियों वाले तथ्य की, ये मान सकते हैं, सत्यता स्थापित हो चुकी थी. शायद, ये धमकियाँ समय-समय पर धार्मिक विवादों के प्रबल होने के कारण दी गई थीं.

टॉल्स्टॉय दृढ़, क्रूर, चिड़चिड़ा हो गया था. बाद में उसने ख़ुद ही कहा : “सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को दोष देना ठीक नहीं है : इसमें उसका कोई दोष नहीं है, कि वह मेरा अनुसरण नहीं करती है. आख़िर वो, जिसे अब वह इतने ज़िद्दीपन से पकड़कर बैठी है, ये वो ही तो है, जो मैंने इतने सालों में उसे सिखाया था. ऊपर से, मेरी जागृति के आरंभिक समय में अपनी सत्यता का यकीन दिलाते हुए मैं काफ़ी चिड़चिडा हो जाता था और उस पर ज़ोर देता था. उस समय मैंने जीवन की अपनी नई समझ को उसके लिए इतने घृणित, इतने अमान्य तरीके से उसके सम्मुख रखा, कि पूरी तरह उसे दूर धकेल दिया. और अब मैं महसूस करता हूँ, कि मेरे रास्ते पर चलकर वह सत्य के निकट कभी भी नहीं पहुँच पायेगी, और ये मेरी अपनी ही गलती के कारण हुआ है. उसके लिए ये द्वार बंद हो चुका है”.    

टॉल्स्टॉय के बच्चों के बीच भी उसका प्रवचन कम ही सफ़ल रहा. बड़ा बेटा, जो विश्वविद्यालय में प्रवेश कर चुका था, भला था, जिसका पिता के प्रति बेहद लगाव था उसके नये मतों के विरोध में खुल्लमखुल्ला खड़ा हो गया. उसने ज़ोर देकर कहा, कि ख़ुदा के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं किया जा सकता, कि उसे नहीं मालूम कि उसके पिता के निष्कर्ष सही हैं अथवा नहीं, कि उसके इस दर्शन की उसे कोई ज़रूरत नहीं है, कि वह हाड-मांस की ज़िंदगी से प्यार करता है, और उसमें विश्वास करता है. बाकी बच्चों के लिए टॉल्स्टॉय बस बोरिंग’ (उकताहट भरा हो गया था). उनके निरीक्षणों के अनुसार वह उदास, चिड़चिड़ा हो गया था, छोटी-छोटी बातों पर सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना से लड़ता था, और पहले वाले ख़ुशमिजाज़, ज़िंदादिल मुखिया से बूढ़े उपदेशक और प्रतिपादक में बदल गया था.

“ज़िंदगी को “ख़ुदा के मार्ग से” कैसे जोड़ सकते हैं,” उसका दूसरा बेटा अचरज करता है, “किसानों और फकीरों की ज़िंदगी से, जिसकी पापा इतनी प्रशंसा करते थे -  उन मासूम आदतों से जो बचपन से ही हमें डाली गई थीं : दोपहर के भोजन के समय सूप और कटलेट्स ज़बर्दस्ती खाने की, अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी में बोलने की, स्कूल और विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए हमें तैयार करने की, अपने पसंदीदा नाटक में भूमिका के प्रशिक्षण की? और हम, बच्चों को, अक्सर ऐसा लगता था, कि ये हम नहीं हैं, जो पापा को समझने में असमर्थ हैं, बल्कि इसका उल्टा ही है : उन्होंने हमें समझना बंद कर दिया है, क्योंकि वह “अपनी” किसी चीज़ में व्यस्त हैं...परिवार की पुरानी नींव अभी मज़बूत थी, और उसके सभी सदस्यों के स्वार्थ की दृष्टि से ज़रूरी थी”.

दोस्तों के साथ भी ये प्रवचन वाला मामला कुछ ठीक नहीं रहा. सन् 1881 में यास्नाया पल्याना में फ़ेत आये थे. टॉल्स्टॉय अपनी डायरी में लिखता है: “फ़ेत और उसकी पत्नी के साथ बातचीत, क्रिश्चियन शिक्षा का काम पूरा नहीं हुआ.
तो, ये बेवकूफ़ी है? नहीं, मगर पूरा नहीं हुआ. क्या तुमने पूरा करने की कोशिश की? नहीं, मगर पूरा नहीं हुआ!”...                    

एक बार दार्शनिक स्त्राखव यास्नाया पल्याना आया था, और, सारी बातें होने के बाद टॉल्स्टॉय ने अपने प्रति समर्पित इस व्यक्ति को कठोर शब्दों के साथ बिदा किया : “जो मेरे साथ नहीं, वो मेरे ख़िलाफ़ है!” और स्त्राखव ने उसे लिखा : “मैंने सोचा: ये मुझे चर्च से जुदा कर रहा है! ख़ैर, क्या करें! अपने विचारों को मैं इसलिए रोक रहा हूँ, क्योंकि, मेरे पास कोई और चारा नहीं है, और मैं अपने आप से झूठ नहीं बोल सकता. मगर वह चाहे मुझे झिड़क ही क्यों न दे, मैं उसके प्रति वफ़ादार रहूँगा”.

और टॉल्स्टॉय को, मजबूरन, अपनी “खोजों” के बारे में गहराई से विचार करना पड़ा. असल में क्राइस्ट की शिक्षा से एक ही सीधा निष्कर्ष, जो उसने निकाला था, वह था सम्पत्ति को पूरी तरह त्याग देना, भविष्य में भी उसे हासिल करने की संभावना से इनकार करना. नई शिक्षा परिवार का भी त्याग करने की मांग करती थी (“आदमी के दुश्मन उसके घर के लोग ही होते हैं”). मतलब, उसे अकेले ही दूर चले जाना चाहिये और वो भी हमेशा के लिए – लुप्त हो जाना, टॉल्स्टॉय होना बंद करना, भीड़ में खो जाना, बेनाम आवारा फकीर हो जाना. ऐसे कदम के लिए टॉल्स्टॉय तैयार नहीं था. उसे मालूम था : पत्नी और बच्चे उसे प्यार करते हैं. वह ख़ुद भी इस कदर उनमें घुल मिल गया था, कि लम्बे समय तक परिवार से दूर रहने पर उसे ज़ालिम, मृत्यु समान पीड़ा होती थी. और अपनी नई शिक्षा में उसने अभी अभी ये प्रतिपादित किया था कि एक स्वस्थ्य और बड़ा परिवार सुख के आवश्यक तत्वों में से एक है. बाद में, काफ़ी बुढ़ापे में, इस सवाल के जवाब में, कि क्राइस्ट की परिवार त्यागने की मांग को वह किस तरह समझा है, टॉल्स्टॉय ने जवाब दिया : “ मैं उसे इस तरह समझता हूँ : उनके बारे में फिक्र करना बंद करो, उस तरह, जैसे अपनों के बारे में करते हो. अगर सचमुच में शाब्दिक अर्थ के अनुसार त्याग दूँ, भाग्य के भरोसे छोड़ दूँ, तो ये प्रेम की उसी मूलभूत कल्पना के विरुद्ध होगा, जिसके नाम से परिवार बनता है...” अस्सी के दशक में ये – अत्यंत आश्वस्त करने वाली और अत्यंत व्यापक – व्याख्या उसके लिए अपरिचित थी. वह अपने परिवार से प्यार करता था, स्वयम् को उसका अटूट हिस्सा समझता था और उसकी फिक्र करना अपना कर्तव्य समझता था. उसे वह छोड़ नहीं सकता था. ज़बर्दस्ती अपनी नई शिक्षा का अनुसरण करने पर मजबूर भी नहीं कर सकता था. कुछ समझौते करना ज़रूरी था.

सन् 1881 की गर्मियों में वह फिर बीमार हो गया, समारा की स्तेपी में कुमिस के इलाज के लिए गया और वहाँ अपनी असंगठित अर्थव्यवस्था को ठीक करने में लग गया. उसे इस विचार से पीड़ा हो रही थी, कि उसने परिवार की और सारे कामों की ज़िम्मेदारी सोफ्या अन्द्रेयेव्ना पर छोड़ दी है : वह अपनी प्रसवावस्था के अंतिम चरण में थी और शरद ऋतु में परिवार को मॉस्को ले जाने की तैयारी करनी थी. ये स्थानांतरण काफ़ी पहले ही निश्चित हो गया था. बड़ा बेटा विश्वविद्यालय में प्रवेश ले रहा था; बेटी को समाज से परिचित कराने का समय भी आ गया था. विचारों के परिवर्तन के कारण टॉल्स्टॉय को आगामी कार्यक्रम के बारे में सोचना कठिन लग रहा था, जो परिवार को गाँव की ज़िंदगी से हटाकर उस दिशा में ले जाने वाला था, जिसे वह हानिकारक समझता था. ज़ाहिर है, कि इस मसले पर लम्बे समय तक झगड़ा हुआ होगा. मगर समारा में, पारिवारिक मतभेदों से दूर, कुछ समय बिताने के बाद, वह “मॉस्को-आवास की ओर अलग दृष्टिकोण से देखने लगा”, वह “उसमें विश्वास भी करने लगा”. अपने आसपास वह लोगों को देख रहा था जो “धरती से जुड़े हुए थे” और अपने हाथों से मेहनत करके जीने की कोशिश कर रहे थे. तो फिर क्या?

“आदर्श के अनुसार ज़िंदगी जीने की असंभवता को इससे अधिक स्पष्ट कोई और चीज़ नहीं समझा सकती. ये लोग बढ़िया हैं, पूरी शक्ति से, पूरी ऊर्जा से अच्छी, ईमानदार ज़िंदगी के लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, और ज़िंदगी और परिवार अपनी अपनी दिशा में चलते हैं, और एक मध्यम मार्ग नज़र आता है. एक तरफ़ से मुझे दिखाई देता है, कि ये मध्यम मार्ग, हालाँकि अच्छा है, फिर भी उनके लक्ष्य से कितना दूर है. यही बात अपने आप पर लागू करते हो, तो मध्यम मार्ग से संतुष्ट होना सीख जाते हो. वो ही मध्यम मार्ग है मलकानिज़्म में (दुग्धाहारी - अठारहवी शताब्दी के अंत में – एक क्रिश्चियन सम्प्रदाय जो ऑर्थोडॉक्स रीति रिवाजों के विरुद्ध था – अनु.) , वो ही मध्यम मार्ग है लोगों के जीवन में, ख़ास तौर से यहाँ...”

लगभग हर पत्र में वह पछताता, कि पत्नी के फैले हुए कामों में उसकी ठीक से मदद नहीं की, वादा किया कि उसके अनुसार “अच्छा आदमी” बनकर वापस लौटेगा. उसने लिखा : “मैं पूरे समय वही बात सोचता रहता हूँ, मगर मैं इस भ्रम से बाहर आ गया हूँ, कि दूसरे लोगों को भी हर चीज़ की तरफ़ उसी नज़र से देखना चाहिए, जैसे मैं देखता हूँ. तुम्हारे सामने मैं काफ़ी सारी बातों के लिए गुनहगार हूँ, मेरी प्यारी. अनजाने, अनचाहे ही गुनाह कर बैठा, तुम इस बात को जानती हो, मगर गुनहगार हूँ. मेरा बहाना बस यही है, कि उस तरह के तनाव में रहकर काम करना, जैसा मैं कर रहा था, और कुछ करने के लिए, सब कुछ भूलना चाहिए. और मैं तुम्हारे बारे में काफ़ी भूल गया, और पछता रहा हूँ. ख़ुदा के लिए और हमारे प्यार की ख़ातिर, अपना ख़याल रखना. ज़्यादातर चीज़ों को मेरे आने तक स्थगित करो; मैं ख़ुशी ख़ुशी सब कुछ कर लूँगा, और अच्छी तरह से ही करूँगा, क्योंकि कोशिश करूँगा...”

उसने एक आदर्श आधार भी रखा अपने समझौतों में:
“परिवार – ये हाड-मांस है,” उसने अपनी डायरी में लिखा. “परिवार को छोड़ना – ये दूसरा प्रलोभन है – ख़ुद को मारने का. परिवार – एक शरीर है. मगर तीसरे प्रलोभन में न पड़ो, सेवा परिवार की नहीं, बल्कि उस एक ख़ुदा की करो. आर्थिक सीढ़ी पर उस स्थान का सूचक, जहाँ आदमी को होना चाहिए. वह हाड-मांस है; जैसे कमज़ोर पेट के लिए हल्के आहार की ज़रूरत होती है, उसी तरह एक लाड में पले बढे परिवार को उस परिवार की तुलना में अधिक की आवश्यकता होती है, जिसे अभावों की आदत है...”
और वह यहाँ तक पहुँचा, कि सन् 1882 में उसने मॉस्को में खमोव्नीचेस्की गली में वह प्रसिद्ध घर पसंद किया और ख़रीद लिया, जहाँ से अगले तीस वर्षों तक सभी धर्मों और सभी राष्ट्रीयताओं के लोगों की निरंतर श्रंखला गुज़रती रही. पहली सर्दियाँ टॉल्स्टॉय परिवार ने किराये के मकान में गुज़ारीं. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना यकीन दिलाती है, कि घर उसकी इच्छा के विरुद्ध ख़रीदा गया था. चाहे जो भी हुआ हो, सन् 1882 की शिशिर ऋतु में टॉल्स्टॉय ने मॉस्को में घर की मरम्मत और उसे नया रूप देने का काम शुरू कर दिया, फर्नीचर खरीदा, चार घोड़ों वाली गाड़ी खरीदी, बच्चों के लिए बड़े-बड़े पहियों की गाड़ी खरीदी, दो बर्फ वाली गाड़ियाँ खरीदीं, उसने हुक्म दिया कि यास्नाया से घोड़े लाए जाएँ. उसने बच्चों के स्कूल में एडमिशन का इंतज़ाम किया और बड़ी बेटी को उसके पहले नृत्योत्सव भी ले गया.

हर काम को समझाने के लिए शब्द मिल जाएँगे. मगर असल में, वह अपनी ही शिक्षा के दुर्भाग्यपूर्ण विरोध में उतर चुका था. कुछ समय बाद उसने ख़ुद ही लिखा : “बड़ा आश्चर्यजनक है उस जीवन के पक्ष में माता-पिता की दलील सुनना : मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, पिता कहते हैं, मुझे ज़िंदगी बोझ मालूम पड़ने लगी है, मगर, बच्चों से प्यार करता हूँ, उन्हीं के लिए यह सब कर रहा हूँ”. मतलब, मैं, निःसंदेह, अपने अनुभव से जानता हूँ, कि हमारा जीवन दुखभरा है, और इसलिये...मैं बच्चों का पालन-पोषण इस तरह से कर रहा हूँ, कि वे भी वैसे ही दुखी रहें, जैसा मैं हूँ. और इसके लिए, मेरे उनके प्रति स्नेह की ख़ातिर, मैं उन्हें भौतिक और मानसिक संक्रमणों से भरे हुए शहर में लाता हूँ, उन्हें पराये लोगों के हाथों में सौंपता हूँ, जिनका लालन-लालन में एक ही लालच भरा उद्देश्य है, और मैं प्रयत्नपूर्वक भौतिक, मानसिक, और बौद्धिक दृष्टि से अपने बच्चों को बिगाड़ रहा हूँ. और इसी तर्क का ख़ुद माता-पिता की अतार्किक ज़िंदगी को सही ठहराने में इस्तेमाल किया जा सकता है!”

ये विरोधाभास, टॉल्स्टॉय के सेवाभावी दिमाग़ के लचीलेपन के बावजूद, उसे परेशान करते रहे. सभी नेक इरादे, जिनसे समारा से लिखे गए उसके पत्र भरे होते थे, पूरे नहीं हो सके. असलियत में तो, उसके घर लौटने के बाद भी, परिवार को मॉस्को स्थानांतरित करने के सारे इंतज़ामों का बोझ बीमार सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के कंधों पर ही पड़ा.

वह कमज़ोर हो रहा था, उस पर न केवल मानसिक अवसाद का, बल्कि गहन उदासीनता का दौरा पड़ता था. वह सोता नहीं था और खाता नहीं था और कभी कभी तो रोने लगता था. उसकी तकलीफ़ों को देखकर, मॉस्को आने के बाद पहले दो सप्ताह हर रोज़ उसकी पत्नी भी रोती रहती थी.

उसने अपनी डाय्ररी में लिखा (5 अक्टूबर 1881 को) : “एक महीना गुज़र गया. मेरी ज़िंदगी का सबसे पीड़ादायक महीना. मॉस्को में स्थानांतरण. सब लोग व्यवस्थित होने में लगे हैं. जीना कब शुरू करेंगे? ये सब, जीने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि लोग ऐसा ही करते हैं. अभागे! और ज़िंदगी है ही नहीं. – दुर्गंध, पत्थर, भोग-विलास, गरीबी, ऐयाशी. खलनायक इकट्ठे हो गए, जिन्होंने लोगों को लूटा था, सैनिकों को, जजों को चुन लिया है, जिससे उनके व्यभिचारों की रक्षा हो सके, और – जश्न मना रहे हैं. लोगों के पास करने के लिए कुछ है ही नहीं, सिवा इसके कि इन लोगों की हवस का लाभ उठाते हुए, उनसे अपना लूटा हुआ माल वापस ले सकें. किसान ये आसानी से कर लेते हैं. औरतें घर में रहती हैं, मर्द फर्श साफ़ करते हैं और हम्मामों में अपने जिस्म रगड़-रगड़ कर साफ़ करते हैं और गाडीवानों का काम करते हैं.

सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने सपना देखा, जिसे सुनाना उसे अच्छा लगता था. जैसे, वह बड़े चर्च के सामने खड़ी है, जो अभी तक पूरा बना नहीं है; मंदिर के दरवाजों के सामने एक बड़ी भारी सलीब थी, और उस पर सूली पर चढ़ाया गया, ज़िंदा क्राइस्ट... अचानक ये सलीब चलने लगी और, मंदिर के तीन चक्कर लगाकर उसके(सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के) सामने खड़ी हो गई. संरक्षक क्राइस्ट ने उसकी ओर देखा – और, अपना हाथ ऊपर उठाकर, सुनहरी सलीब की ओर इशारा किया, जो मंदिर के गुम्बज के ऊपर चमक रही थी...

असल में ऑर्थोडॉक्स चर्च के प्रति ल्येव टॉल्स्टॉय के रुख से सोफ्या अन्द्रेयेव्ना बहुत ज़्यादा परेशान नहीं थी. मगर सुख के दिन समाप्त हो रहे थे, और उसकी तरफ़, निःसंदेह, एक बड़ी-भारी सलीब बढ़ी चली आ रही थी, जिसे जीवन के अंत तक उसे ढोना था. सबसे ज़्यादा परेशान कर रहा था परिवार का भाग्य और लम्बे समय से चिपके हुए रीति-रिवाजों का अंजाम, जिनके अनुसार उसके बच्चे पले-बढ़े थे. बाद में (सन् 1914 में) अपनी आत्मकथा में उसने लिखा : मैं समझ नहीं पा रही थी, कि ऐसे विचारों (जैसे पति के हैं), के साथ कैसे जिया जा सकता है, डर रही थी, उत्तेजित हो जाती थी, दुखी होती थी. मगर नौ बच्चों के साथ, मैं वेदर कॉक(वायु दिशा दर्शक) की तरह, उस ओर तो नहीं मुड़ सकती थी, जहाँ, अपने ख़यालों में, निरंतर परिवर्तित होते हुए, मेरा पति जा रहा था. उसके लिए ये जुनून से भरी, ईमानदारीपूर्ण खोज थी, मेरे लिए ये भोंथरी नकल होती, जो परिवार के लिए हानिकारक भी हो सकती थी...” “पति की इच्छानुसार अपनी सारी सम्पत्ति (न जाने किसे) देने के बाद, नौ बच्चों के साथ गरीबी में रहना, मुझे तो परिवार की ख़ातिर कहीं काम ही करना पड़ता, - खिलाना, सिलाई करना, धोना, बिना कोई शिक्षा दिए बच्चों का पालन-पोषण करना. अपनी पसंद और झुकाव के चलते ल्येव टॉल्स्टॉय तो सिवाय लिखने के, कुछ और कर ही नहीं सकते   थे...”                                                                                                                                    
जिन दिनों पारिवारिक संघर्ष उभर रहे थे, तब भी सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ऐसा ही सोचती थी, हालाँकि वह कुछ ज़्यादा पैने और स्पष्ट रूप से कह देती थी. सन् 1881 की गर्मियों में पति की आर्थिक योजनाओं और आसपास के लोगों की ज़रूरतों पर शिकायतों के बारे में उसने जवाब दिया था : “ फार्म का काम जैसा चल रहा है, चलता रहे, मैं कोई परिवर्तन करना नहीं चाहती. नुक्सान होगा, मगर उसकी आदत नहीं होना चाहिए; बड़ा नफ़ा होगा, मगर यदि बांट दोगे, तो पैसे जा सकते हैं और न मुझे, ना बच्चों को ही मिलेंगे. वैसे, गरीबों की मदद करने के बारे में मेरी राय तुम जानते हो : समारा के और हर ग़रीब बस्ती के हज़ारों लोगों को तुम खिला नहीं सकते, मगर यदि किसी को देखते हो, या किसी को जानते हो, जिसके पास रोटी नहीं है, या घोड़ा, गाय, झोंपडी वगैरह नहीं है, तो उसे हर चीज़ फ़ौरन देना चाहिए, लटका कर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि दया आती है और क्योंकि ऐसा करना चाहिए”.

अगले साल उसने उसे गाँव में लिखा : “...जब मैं जागी, तो पहले देखा तुम्हारा सबसे ज़्यादा उदास और ग़मगीन ख़त. बुरा, और ज़्यादा बुरा. मैं सोचने लगी हूँ, कि अगर एक सुखी आदमी को अचानक ज़िंदगी में सब कुछ सिर्फ भयानक ही दिखाई देखा हो, और अच्छी बातों की ओर से उसने आँखें मूंद ली हों, तो ये सिर्फ अस्वस्थता के कारण है. तुम्हें अपना इलाज करवाना चाहिए. मैं ये बिना किसी पूर्वाग्रह के कह रही हूँ, मुझे ये साफ़ दिखाई दे रहा है; मुझे तुम पर बेहद दया आती है, और अगर तुम बिना गुस्सा किए मेरे शब्दों और अपनी हालत पर ग़ौर करोगे, तो हो सकता है, तुम्हें कोई रास्ता नज़र आ जाए. ये पीड़ाजनक परिस्थिति एक बार पहले, बहुत पहले आई थी : तुम कहते हो: “ बिना किसी धार्मिक विश्वास के (नास्तिकता के) कारण फांसी लगा लेने को जी चाहता था”? और अब? अब तो तुम बिना विश्वास के नहीं जी रहे हो, तो फिर तुम क्यों दुखी हो? और क्या तुम्हें पहले मालूम नहीं था, कि भूखे, दुखी और बुरे लोग होते हैं? अच्छी तरह देखो : अच्छे और तंदुरुस्त, सुखी और भले लोग भी हैं. कम से कम ख़ुदा ही तुम्हारी मदद करे, और मैं कर ही क्या सकती हूँ?”
सन् 1883 के आरंभ में उसने अपनी बहन को सूचित किया : “लेवच्का बेहद शांत है, काम कर रहा है, कोई लेख लिख रहा है, कभी-कभी शहरी और आम तौर से कुलीनों की ज़िंदगी के ख़िलाफ़ उसके शब्द फूटते हैं. मुझे इससे दुख होता है : मगर मुझे मालूम है, कि वह और किसी तरह कर ही नहीं सकता. वो पुरोगामी व्यक्ति है, भीड़ के आगे चलता है और राह दिखाता है, जिस पर लोगों को चलना है. और मैं, भीड़, भीड़ के प्रवाह में रहती हूँ, भीड़ के ही साथ लालटेन की रोशनी देखती हूँ, जो हर पुरोगामी व्यक्ति लेकर चलता है, और लेवच्का भी, बेशक, मैं मानती हूँ कि वो रोशनी है. मगर मैं जल्दी नहीं चल सकती, मुझे भीड़ भी दबाती है, और आसपास का वातावरण भी, और मेरी आदतें भी”.                      

अंत में, 27 जून 1883 को पति को लिखे हुए पत्र का एक अंश: “मैं तुम्हारा लेख, या बेहतर कहूँ तो तुम्हारा निबंध पढ़ रही हूँ. बेशक, इसके ख़िलाफ़ कुछ भी कहना बेकार है, कि सम्पूर्ण होना अच्छी बात है और लोगों को अवश्य याद दिलाना चाहिए, कि सम्पूर्ण कैसे हुआ जा सकता है और इसे कैसे हासिल किया जा सकता है. मगर फिर भी ये कहे बिना नहीं रह सकती, कि ज़िंदगी में सभी खिलौनों को फेंकना मुश्किल है, और हर कोई, और सबसे ज़्यादा मैं, इन खिलौनों को दिल से लगाए हूँ और उनसे ख़ुश होती हूँ, जब वे चमकते हैं और शोर करते हैं और दिल बहलाते हैं. और अगर न फेंकें, तो सम्पूर्ण नहीं होंगे, - क्रिश्चियन नहीं होंगे, अपना कफ़्तान नहीं देंगे, और एक पत्नी से ज़िंदगी भर प्यार नहीं करेंगे, और हथियार नहीं फेंकेंगे, क्योंकि इसके लिए हमें बंद कर दिया जाएगा...”

इन पत्रों को और उनमें प्रदर्शित विचारों को सामान्यतः नकारा नहीं जा सकता. वे बहुत ईमानदार हैं और, ग़ौर कीजिए, नम्रता से लिखे गए हैं. और ईमानदारी, टॉल्स्टॉय के विचार में, लोगों का सबसे महत्वपूर्ण गुण है: कीटी शेर्बात्स्काया (“आन्ना करेनिना” में) की ईमानदारी और सच्चाई उसे यूँ ही इतनी प्यारी नहीं लगती थी...

बेशक, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ये मतभेद ऐसी शांति से नहीं प्रकट होते थे. वे दोनों जोशीले, गर्म दिमाग के, ताकतवर व्यक्ति थे.        

जब सन् 1882 में टॉल्स्टॉय ने अचानक हिब्रू भाषा सीखने का इरादा किया, तो सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को, जो बेसब्री से उसके साहित्यिक सृजन की ओर लौटने का इंतज़ार कर रही थी, बेहद गुस्सा आया, कि “वह बेकार की बातों पर अपनी शक्ति बर्बाद कर रहा है”. अपनी नाराज़गी वह छुपा न पाई, और वह ऐसा करना चाहती भी नहीं थी. ये नाराज़गी लगभग हर रोज़ प्रकट होती थी – उसके दोषारोपण करने वाले भाषणों की वजह से, उदास मनःस्थिति की वजह से और विशेषतः – परिवार को अंशतः ही सही, आर्थिक नुकसान पहुँचाने की कोशिशों की वजह से. उसकी उस समय की डायरियों में ये हताश पीड़ा झलकती है. सन् 1884 में उसने लिखा: “परिवार में रहना बहुत कठिन हो रहा है. बहुत पीड़ा होती है, कि मैं उनके साथ हमदर्दी नहीं दिखा सकता. उनकी सारी ख़ुशियाँ, परीक्षाएँ, सामाजिक सफलता, संगीत, परिस्थिति, खरीदारी – ये सब मुझे उनके लिए दुर्भाग्यपूर्ण और कटु प्रतीत होता है और मैं उनसे ये कह नहीं सकता. मैं कह सकता हूँ, मैं कहता भी हूँ, मगर मेरी बातों का किसी पर कोई असर ही नहीं होता है. जैसे उन्हें मेरी बातों का मतलब ही समझ में नहीं आता, बल्कि ये लगता है, कि मुझे ये कहने की बुरी आदत है. कमज़ोर क्षणों में, - फिलहाल ऐसा है – मुझे उनकी क्रूरता पर हैरानी होती है. उन्हें ये क्यों नहीं दिखाई देता है, कि मैं वो नहीं हूँ, जो तकलीफ़ उठा रहा हूँ, मैं तो तीन सालों से ज़िंदगी से कटा हुआ हूँ. मुझे तो एक कुड़बुड़ाते बुड्ढे की भूमिका दी गई है, और उनकी नज़रों में मैं इससे बाहर नहीं निकल सकता. अगर मैं उनकी ज़िंदगी में दखल देता हूँ, तो – मैं सत्य से दूर छिटक जाऊँगा, और पहले वे ही इसके लिए मेरी आँखों में उँगलियाँ चुभोयेंगे. अगर मैं, जैसा अभी कर रहा हूँ, उनकी बेवकूफ़ी को अफ़सोस के साथ देखता हूँ, तो – मैं, अन्य सभी बुड्ढों की तरह, एक कुड़बुड़ाता बुड्ढा हूँ.

उसे महसूस होता था, कि वह उनके जीवन के कीचड़ में धंस रहा है. कभी-कभी वह “मरणप्राय निर्बलता” का अनुभव करता. कभी-कभी वह टूट जाता और विद्रोह कर देता. उसे लगता है, कि इस सबकी वजह है – उसकी पत्नी का ग़ुस्सैल स्वभाव और उसका चिड़चिड़ापन. उसे ऐसा महसूस होता है, कि उसके चारों ओर “ एक शेर घूम रहा है और अभ्भी...” वह लिखता है : “मूढ़ता, आत्मा की जड़ता – इसे तो बर्दाश्त किया जा सकता है, मगर साथ में धृष्ठता, आत्मविश्वास भी हो तो...” उसे ऐसा लगता है, कि परिवार में सब कुछ ठीक हो सकता है, अगर “प्यारी और प्यार करने वाली पत्नी की अनुपस्थिति न हो तो”.

वह घर से भाग जाने के बारे में सोचता है. “और, सचमुच, उन्हें मेरी ज़रूरत किसलिए है? मेरी सारी तकलीफ़ें, किसलिए? और फिर एक आवारा की परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही कठिन (हाँ, वे आसान हैं) क्यों न हों, वहाँ दिल के इस दर्द जैसा तो कुछ नहीं होगा!... सिर्फ मुझमें आत्मविश्वास होना चाहिए, मगर मैं ये जंगलियों जैसी ज़िंदगी नहीं जी सकता. उनके लिए भी ये अच्छा ही होगा. अगर उनके पास दिल जैसी कोई चीज़ है, तो वे मनन करेंगे...”

वह स्वीकार करता है, कि पत्नी के निरंतर “विस्फोटों” और “कटुतापूर्ण” चालों का वर्णन करते समय, कभी कभी वह अपने गुस्से को रोक नहीं पाता है.
“वह मेरे पास आई और उन्मादपूर्ण नाटक शुरू कर दिया – मतलब वो ही, कि कुछ भी बदलना असंभव है, और वो दुखी है, और उसे कहीं भाग जाना चाहिए. मुझे उस पर दया आई, मगर साथ ही मैंने महसूस किया, कि कोई उम्मीद नहीं है...”. “मेरी मौत तक वह मेरी और बच्चों की गर्दन पर चक्की के पाट जैसी लटकती रहेगी...शायद, ऐसा ही होना चाहिए. गर्दन पर लटकते चक्की के पाट के साथ न डूबना सीखना चाहिए. मगर बच्चे? दिखाई दे रहा है, कि ऐसा ही होने वाला है. और मुझे सिर्फ एक बात का दुख है, कि मेरी नज़र कमज़ोर है. मैंने उसे सांत्वना दी, जैसे किसी मरीज़ को देते हैं...”
कभी कभी सोफ्या अन्नद्रेयेव्ना “बेहद शांत” और प्रसन्न होती है और उसे ये फ़ासला नज़र नहीं आता...

निरंतर के इन उतार-चढ़ावों से उसे बहुत तकलीफ़ होती थी. एक बार, जून की साफ़ शाम को उसने बाग में घास काटी. फिर उसने स्नान किया और उत्साह और प्रसन्नता से घर लौटा. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना बेहद उदास थी, क्योंकि कुछ ही दिनों में उसे प्रसूति के बोझ से मुक्ति पाना था. उसने आवेशयुक्त तानों से पति का स्वागत किया, क्योंकि वह घोड़े बेचना चाहता था, “जिनकी उसे ज़रूरत नहीं थी और जिनसे वह छुटकारा पाना चाहता था”. उसे अचानक असहनीय दुख हुआ. ये आवेशभरी बातचीत बीच ही में छोड़कर, उसने अपने कमरे से एक थैला उठाया, जिसमें कुछ चीज़ें भरी थीं, उसे कंधे पर लादकर घर से निकल पड़ा, ये कहकर कि फिर कभी वापस नहीं लौटेगा. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई और ये दो तकलीफ़ें – शारीरिक और मानसिक – उसे बर्दाश्त के बाहर महसूस हुईं. उसने ख़ुदा की प्रार्थना की कि उसे मौत दे दे. और वह चला जा रहा था, अकेला, तूला वाले राजमार्ग पर, इस “पागलखाने से दूर, जिसे पागल लोग चलाते हैं...”

मगर उसे याद आया कि शीघ्र ही उसका प्रसव होने वाला है, और वह वापस आ गया. घर पर “मुच्छड़ मर्द” – उसके बेटे - ताश खेल रहे थे. बाकी के क्रॉकेट खेल रहे थे. वह सीधा अपने अध्ययन कक्ष में गया और दीवान पर लेट गया. मगर नींद का नाम नहीं था. रात दो बजे के बाद वह उसके पास आई.
“मुझे माफ़ कर दो, मैं बच्चे को जन्म दे रही हूँ, शायद मर जाऊँ...”
प्रसव पीडा शुरू हुई और सुबह सात बजे उनकी बेटी अलेक्सान्द्रा ने जन्म लिया. माँ के स्वास्थ्य की वजह से बच्ची के लिए दूध पिलाने वाली आया का इंतज़ाम करना पडा.
“जून की इस भयानक, उजली रात को मैं कभी नहीं भूल पाई!” तीस साल बाद सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने कहा.

और इन घटनाओं की गहमा गहमी के बीच, सन् 1884 की डायरी में उसने लिखा : “अगर कोई हमारी ज़िंदगी के कामों का संचालन करता है, तो मैं उससे नफ़रत करना चाहता हूँ. ये बेहद मुश्किल और निर्दयतापूर्ण है. निर्दयतापूर्ण – उसके लिहाज़ से. मैं देख रहा हूँ, कि वह आवेगपूर्ण शीघ्रता से विनाश तथा भयानक मानसिक यातनाओं की ओर बढ़ती जा रही है...”

उनके उलझे हुए रिश्तों के अनेक विस्फोटों में से एक नोंक-झोंक खास है, जो सन् 1885 के दिसम्बर में हुई थी. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना बहन से उसका वर्णन इस तरह करती है:
“वही हुआ, जो कई बार हो चुका है : लेवच्का बेहद उदास और घबराहट भरी मनोदशा में आया. एक बार मैं, बैठी हूँ, लिख रही हूँ, मैंने देखा – चेहरा भयानक हो रहा है. अब तक तो अच्छी तरह था: एक भी अप्रिय शब्द नहीं कहा था, कुछ भी, कुछ भी नहीं हुआ था. “मैं ये कहने के लिए आया हूँ, कि तुमसे तलाक लेना चाहता हूँ, इस तरह से मैं नहीं रह सकता, पैरिस चला जाऊँगा, या अमेरिका.” समझ रही हो ना, तान्या, अगर मेरे सिर पे पूरा घर भी गिर पड़ता, तो भी मुझे इतना अचरज नहीं होता. मैंने आश्चर्य से पूछा : “हुआ क्या है?”
“कुछ नहीं, मगर अगर गाड़ी पर ज़्यादा-और ज़्यादा सामान लादा जाए, तो घोड़ा खड़ा हो जाएगा और आगे नहीं जायेगा”. – क्या लाद रहे हैं – पता नहीं. मगर फिर शुरू हो गई चिल्ला-चोट, दोषारोपण, कठोर शब्द, जो अधिकाधिक बुरे होते गए और आख़िरकार, मैं बर्दाश्त करती रही, करती रही, एक भी बात का जवाब नहीं दिया, देख रही हूँ, कि आदमी पागल हो गया है और जब उसने कहा, “जहाँ तुम हो, वहाँ की हवा ज़हरीली हो गई है”, मैंने संदूक लाने का हुक्म दिया और उसमें अपने कपड़े भरने लगी. तुम्हारे पास आना चाहती थी, कम से कम कुछ दिनों के लिए. बच्चे भाग कर आए, बिसूरने लगे. तान्या कहती है : “मैं तुम्हारे साथ आऊँगी, ये सब किसलिए?” वह रुक जाने के लिए मनाने लगा. मैं रुक गई, मगर अचानक उन्मादपूर्ण हिचकियाँ शुरू हो गईं, बस, भयानक, ज़रा सोचो, हिचकियों के कारण लेवच्का थरथरा रहा है और हिल रहा है. अब मुझे उस पर बहुत दया आई, चारों बच्चे (तान्या, ईल्या, लेल्या, माशा) दहाड़ मार कर रोने लगे. मुझे तो जैसे काठ मार गया, न बोल पा रही हूँ, ना रो रही हूँ, उल्टी-सीधी सुनाने का मन हो रहा था, और मैं ऐसा करने से डर रही हूँ और ख़ामोश हूँ, और तीन घंटों तक ख़ामोश हूँ, चाहे मार डालो – बोल ही नहीं फूट रहे थे. ऐसे ही ख़तम हुआ. मगर पीड़ा, दुख, दूरी, परायेपन का बीमार सा अहसास – ये सब मेरे भीतर रह गया. – समझ रही हो, मैं पागलपन की हद तक अपने आप से पूछती हूँ : और अब, ये सब किसलिए? मैं घर से बाहर कदम भी नहीं रखती हूँ, प्रकाशन के कामों में रात के तीन बजे तक व्यस्त रहती हूँ, ख़ामोश-तबियत हूँ, सबको इतना प्यार किया था और इस वकत को हमेशा याद करती हूँ, बेहद, और ये किसलिए?...”

इस तरह उन्होंने एक दूसरे के भीतर प्यार के बचे-खुचे अवशेष भी नष्ट कर दिये.

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