गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

Tolstoy and His Wife - 6.2




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सन् 1869 में अगस्त के अंत में टॉल्स्टॉय ने सुना, कि पेन्ज़ा प्रांत में, कहीं बहुत अंदर, सस्ते में कोई जागीर बेची जा रही है. वह अपने सेवक सिर्गेइ को साथ लेकर रवाना हुआ. नीझ्नी नोवगरद से घोडों पर करीब 300 मील जाना था. रास्ते में एक छोटे से शहर अर्ज़मास में रात गुज़ारने के लिए रुका. यहाँ अचानक उसे कुछ दुखद अनुभवों से गुज़रना पड़ा.

अगले पड़ाव से उसने पत्नी को लिखा:
“तुम्हारा और बच्चों का क्या हाल है? कहीं कुछ हुआ तो नहीं है? मैं दो दिनों से बेहद परेशान हूँ. तीसरे दिन, रात को मैं अर्ज़मास में रुका, और मेरे साथ कुछ असाधारण सी बात हुई. रात के दो बजे थे, मैं बेहद थक गया था, सोने की इच्छा हो रही थी, और कहीं भी कोई दर्द नहीं हो रहा था. मगर अचानक मुझे दुख ने, भय ने दबोच लिया, ऐसा ख़ौफ़, जैसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया था. इस एहसास के बारे में मैं तुम्हें बाद में विस्तार से बताऊँगा, मगर इस तरह की पीड़ादायक भावना का अनुभव मुझे कभी भी नहीं हुआ था, और ख़ुदा न करे कि किसी को भी हो. मैं उछल कर उठ गया, बिस्तर बिछाने का हुक्म दिया. जब तक बिस्तर बिछाया जा रहा था, मेरी आँख लग गई और जब मैं उठा, तो बिल्कुल तंदुरुस्त था. कल सफ़र के दौरान यही एहसास कुछ कम तीव्रता से फिर वापस लौटा, मगर मैं तैयार था और उससे प्रभावित नहीं हुआ, फिर वह काफ़ी कमज़ोर भी था. आज अपने आप को तंदुरुस्त और प्रसन्न अनुभव कर रहा हूँ, जितना परिवार के बगैर हो सकता हूँ. इस सफ़र के दौरान मैंने पहली बार महसूस किया, कि मैं किस हद तक तुमसे और बच्चों से जुड़ा हुआ हूँ. मैं लगातार काम करते हुए अकेला रह सकता हूँ, जैसा कि मॉस्को में होता हूँ, मगर जब कोई काम नहीं होता, तो मुझे महसूस होने लगता है, कि अकेला नहीं रह सकता...”

टॉल्स्टॉय ने पत्नी से मुलाकात होने पर उसे विस्तारपूर्वक क्या बताया? ये तो हमें मालूम नहीं है. मगर फिर, पंद्रह साल बाद, वह “एक सिरफिरे की डायरी” नामक कहानी लिखता है, जो सिर्फ उसकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुई थी. कहानी, बेशक, आत्मकथात्मक है. कहानी का नायक पेन्ज़ा प्रांत की ओर रवाना होता है, ताकि वहाँ सस्ते में जागीर खरीद सके. उसके साथ है सेवक - सिर्गइ. नीझ्नी से वे घोड़ों पर रवाना होते हैं. रात बिताने के लिए अर्ज़मास में रुकते हैं. और अचानक, – टॉल्स्टॉय कहते हैं – “जाग गया”.

“मैंने महसूस किया, कि सोने की कोई संभावना नहीं थी. मैं यहाँ क्यों आ गया? मैं अपने आपको कहाँ ले जा रहा हूँ? किससे, कहाँ भाग रहा हूँ? मैं किसी ख़ौफ़नाक चीज़ से दूर भाग रहा हूँ, मगर भाग नहीं सकता. मैं हमेशा अपने साथ हूँ, और मैं ही तो स्वयम् को पीड़ा दे रहा हूँ. मैं – ये वो है, मैं अपनी सम्पूर्णता में यहीं हूँ. न तो पेन्ज़ा की, और ना ही कोई और जागीर मुझे कुछ नहीं देगी, और ना मुझसे कुछ छीनेगी. मगर मैं तो अपने आप से उकता गया हूँ, अपने आप के लिए असहनीय हो गया हूँ, दुखदायी हो गया हूँ. अपने आप से दूर नहीं भाग सकता.

मैं बाहर कॉरीडोर में आया. सिर्गेइ संकरी बेंच पर सोया था, हाथ नीचे लटकाए, मगर मीठी नींद सो रहा था, और चौकीदार भी सो रहा था. मैं कॉरीडोर में आया, ये सोचकर, कि उससे दूर चला जाऊँ, जो मुझे तड़पा रहा था. मगर वोभी मेरे पीछे आया और हर चीज़ पर अपनी छाया डाल दी. मुझे और भी ज़्यादा डर लगा. “ये क्या बेवकूफ़ी है,” मैंने अपने आप से कहा, “मैं किस बात से दुखी हूँ, किससे डर रहा हूँ?”
“मुझसे,” बेहद धीमी आवाज़ में मृत्यु जवाब देती है. “मैं यहाँ हूँ. मेरे बदन पर बर्फीली ठण्डक दौड़ गई. हाँ, मृत्यु से. वह आयेगी, वह – ये रही वो, मगर उसे यहाँ नहीं होना चाहिए. अगर मुझे सचमुच में ही मौत आनेवाली है, तो मैं वो अनुभव नहीं करता, जो अनुभव किया था. तब मैं डरता. मगर अभी मैं डर नहीं रहा हूँ, बल्कि देख रहा था, महसूस कर रहा था, कि मृत्यु आ रही है, और साथ ही अनुभव कर रहा था, कि उसे नहीं होना चाहिए. मेरा पूरा अस्तित्व महसूस कर रहा था जीने की ज़रूरत को, जीने के अधिकार को और साथ ही सम्पन्न होती जा रही मृत्यु को. और ये आंतरिक टूटन ख़ौफ़नाक थी. मैंने इस ख़ौफ़ को झटकने की कोशिश की. मैंने तांबे का मोमबत्ती का स्टैण्ड ढूँढ़ा, जिसमें जली हुई मोमबत्ती थी और उसे जलाया. मोमबत्ती की लाल लौ और उसका आकार, जो स्टैण्ड से थोड़ा कम था, - वही बात कह रहा था. ज़िन्दगी में कुछ भी नहीं है, बस मृत्यु है, मगर उसे नहीं होना चाहिए. मैंने उस बारे में सोचने की कोशिश की, जिसमें व्यस्त था : जागीर ख़रीदने के बारे में, पत्नी के बारे में. कोई भी ख़याल न केवल ख़ुशी न दे सका, बल्कि सब कुछ सिफ़र हो गया. अपनी ख़त्म होती हुई ज़िंदगी के बारे में डर ने हर चीज़ अपने आगोश में ले ली. सोना चाहिए. मैं लेटने वाला था, मगर जैसे ही लेटा, अचानक डर से उछल पड़ा. और पीड़ा, और पीड़ा – वैसी ही मानसिक पीड़ा, जैसी वमन से पूर्व होती है, सिर्फ ये आध्यात्मिक थी. कुछ डरावना, ख़ौफ़नाक. लगता है, कि मौत का डर है, मगर जब ज़िंदगी को याद करते हो, उसके बारे में सोचते हो, तो मर रही ज़िंदगी से डर लगता है. जैसे ज़िंदगी और मौत मिलकर एक हो गई हैं. कोई चीज़ मेरी आत्मा को चीर रही थी और चीर नहीं पा रही थी. फिर से सोने वालों को देखने गया, फिर से सोने की कोशिश की; फिर वही भय, - लाल, सफ़ेद, चौकोर. कुछ कट रहा है और कट नहीं पा रहा है. पीड़ादायक, और दर्दभरा रूखापन और गुस्सा, अपने भीतर मैंने एक भी बूंद दया की महसूस नहीं की, बल्कि सिर्फ एक-सा ख़ामोश गुस्सा अपने ऊपर और उस पर जिसने मुझे बनाया...”

वह प्रार्थना करने की कोशिश करता है, हालाँकि विश्वास तो कब का खो चुका है. कोई फ़ायदा नहीं होता. आख़िर में, ताज़ी हवा में, सफ़र में, लोगों के बीच में दुख गुज़र जाता है. मगर उसे महसूस हो रहा था, कि कोई नई चीज़ उसकी आत्मा में प्रवेश कर गई है और उसने पिछली ज़िंदगी में ज़हर घोल दिया है.

शायद, मृत्यु का दर्शन ही था उस भावना का सारांश, जिसके बारे में टॉल्स्टॉय ने पत्नी को मिलने पर विस्तार से बताने का वादा किया था. परिवार में हमेशा के लिए उस भावना का नाम पड़ गया “अर्ज़मास का दर्द”. मगर उस समय ये दर्शन, शायद, बिना कोई निशान छोड़े लुप्त हो गया : मृत्यु के दूत ने अपने पंखों से टॉल्स्टॉय के सुखी जीवन को चीर दिया और...लुप्त हो गया. सब कुछ पहले जैसा ही रहा. टॉल्स्टॉय फिर से उत्साही, प्रसन्न, ज़िंदादिल, ऊर्जावान हो गया. ये सच है, कि उसकी कल्पनाशक्ति में इस तरह की यातनाओं की पुनरावृत्ति का ख़तरा झाँक जाता था. वह इसे महसूस करता था और अपनी तरफ़ से उपाय भी कर रहा था. घर में लम्बे समय तक वह “अर्ज़मास के दर्द” से सुरक्षित रहा. बाहर जाते समय वह हमेशा परिवार के किसी सदस्य को अपने साथ ले जाता. ये दौरे पड़ते रहे. इस बारे में स्त्रोतों में धुंधला सा इशारा है. मगर, लगता है, कि बाद में उनका स्वरूप इतना भयंकर नहीं रहा, जैसा टॉल्स्टॉय ने ऊपर दी हुई कहानी में चित्रित किया है. ये, ज़्यादातर, चारों ओर के जीवन की निरर्थकता के विचारों का दौरा होता था, निराशापूर्ण मनःस्थिति, उत्साही और सुखी जीवन के पड़ाव होते थे. मृत्यु का वैसा प्रत्यक्ष दर्शन, जिसने अर्ज़मास में टॉल्स्टॉय को हिलाकर रख दिया था, दुबारा नहीं हुआ. क्षणिक भावनाएँ गुज़रती रहीं, और फिर से वह सुखी हो गया, फिर से उसे किसी बेहतर चीज़ की इच्छा नहीं हुई...

मगर, मृत्यु के भूत ने ज़्यादा दिनों तक टॉल्स्टॉय को नहीं छोड़ा. 9 नवम्बर 1873 को, ग्यारह साल की ख़ुशहाल ज़िंदगी के बाद, परिवार में पहली बार मृत्यु आई : डेढ़ साल का बच्चा पेत्या गुज़र गया. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना बेहद दुखी थी. उसने अपनी बहन को लिखा : “तकलीफ़ उसे, शायद, ज़्यादा नहीं हुई, बीमारी के दौरान काफ़ी सोता था, और कोई डर जैसी बात नहीं थी, न ही फिट्स, न पीड़ा, इसके लिए ख़ुदा की शुक्रगुज़ार हूँ. बल्कि मैं इसे उसकी कृपा ही समझती हूँ, कि छोटा वाला ही गुज़र गया, बड़े बच्चों में से कोई नहीं. कुछ कहने को ही नहीं है, उसे खोना इतना पीड़ादायक है...दस दिन गुज़र गए, मैं अभी तक खोई-खोई सी घूम रही हूँ, आहट का इंतज़ार करती हूँ, कि कैसे नन्हे-नन्हे पैर तेज़ी से भागते हुए आते हैं और कैसे उसकी आवाज़ दूर ही से मुझे पुकारती है. कोई भी बच्चा मुझसे इतना हिलगा हुआ नहीं था और कोई भी इतनी ख़ुशी और भलमनसाहत से नहीं दमकता था. दुख की घड़ी में, बच्चों को पढ़ाने के बाद विश्राम के पलों में मैं उसे अपने पास लेकर दिल बहलाती...और सब कुछ तो रह गया है, मगर ज़िंदगी की सारी ख़ुशी, सारा आनन्द खो गया...और हमारी ज़िंदगी फिर से पुरानी लीकपर चलने लगी है, और सिर्फ मुझ अकेली के लिए हमारे घर की ख़ुशियों भरी रोशनी बुझ गई है, - रोशनी, जो मुझे ख़ुशी देती थी, प्यारा, भला पेत्या, और जिससे मेरे सारे उदास पल प्रकाशित हो जाते थे...”

20 जून 1874 को टॉल्स्टॉय का पालन-पोषण करने वाली – तात्याना अलेक्सान्द्रोव्ना एर्गोल्स्काया चल बसी.

“बुआजी - तात्याना अलेक्सान्द्रोव्ना को दफ़नाए हुए आज तीन दिन हो गए हैं,” टॉल्स्टॉय ने लिखा, “वह धीरे-धीरे, निरंतर मर रही थीं, और मुझे उसके मरने की प्रक्रिया की आदत हो गई थी, मगर उसकी मृत्यु, जैसा कि हमेशा ही निकटतम और प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, बिल्कुल नई, इकलौती और अप्रत्याशित रूप से धक्का देने वाली घटना थी...”                                         
आधा साल और बीता. और फरवरी के एक तूफ़ानी दिन टॉल्स्टॉय परिवार फिर से कब्रिस्तान आया : तीन सप्ताह की भयानक तकलीफ़ के बाद उनका दस महीने का बेटा निकोलूश्का मर गया था.                  
उसी साल के अंत में टॉल्स्टॉय के परिवार के बच्चों को काली खाँसी हो गई. उनकी देखभाल करते हुए, सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को भी संसर्ग के कारण ये रोग लग गया, और बीमारी के दौरे में उसने समय से पूर्व ही एक बच्ची को जन्म दिया, जो जल्दी ही मर गई. माँ मृत्यु शय्या पर पड़ी थी.
और एक महीने बाद (सन् 1875 के दिसम्बर के अंत में) टॉल्स्टॉय परिवार के घर में आण्टी पेलागेया इल्यिनीश्ना यूश्कोवा चल बसी, जो हाल ही में मॉनेस्ट्री से यास्नाया पल्याना आई थी. ये वो ही आण्टी थी, जिसके पास टॉल्स्टॉय ने कज़ान में अपनी युवावस्था बिताई थी. उसकी मृत्यु से (जो काफ़ी यातनामय थी) टॉल्स्टॉय के कुछ ख़ास अनुभव जुड़े थे : हालाँकि वह कभी भी इस बुढ़िया के विशेष करीब नहीं था, मगर उसकी मृत्यु ने, उसके अनुसार, “उस पर इतना गहरा असर डाला, जितना किसी और मौत ने नहीं डाला था...”

दो सालों में हुई इन पाँच मौतों ने अजीब असर डाला था! जैसे कोई लगातार और सब्र से पीछा कर रहा हो और समय के निश्चित अंतरालों के बाद टॉल्स्टॉय की आत्मा पर दस्तक देकर उसे उस ओर की दुनिया की याद दिला रहा हो...

उसी काल में, लगभग लगातार, सोफ्या अन्द्रेयेव्ना गंभीर रूप से बीमार रही : वह दुबली हो रही थी, खाँस रही थी, उसकी पीठ में बेहद दर्द होता था...

दुख और बीमारी की अवस्था में, उसने बहन को लिखा: “लेवच्का का उपन्यास ( “आन्ना करेनिना”) प्रकाशित हो रहा है, और कहते हैं, कि उसे काफ़ी सफ़लता मिल रही है. मगर मुझमें एक अजीब सा एहसास पैदा हो रहा है : हमारे घर में इतना मातम है, और हमें हर जगह सम्मानित किया जा रहा है”.

ल्येव निकोलायेविच की भावनाएँ काफ़ी गहरी थीं और ज़्यादा महत्वपूर्ण थीं.

उसके शब्दों में, सन् 1874-1875 से वह अक्सर जीवन के “पडावों” का अनुभव कर रहा था. गहमागहमी भरी गतिविधियों के बीच, वह अचानक रुक जाता और अपने आप से पूछता : “किसलिए?” “ठीक है, मगर बाद में?” और इन पलों में उसे लगता, कि, ‘किसलिए?’ का जवाब बिना जाने, कुछ नहीं करना चाहिए, नहीं जीना चाहिए. समारा के व्यवसाय में वह बहुत व्यस्त था. और अचानक उसके दिमाग़ में ख़याल आता है : “ चलो, अच्छा है, कि तुम्हारे पास समारा प्रांत में 6000 एकड़ ज़मीन होगी, 300 घोड़े होंगे...ठीक है, मगर इससे क्या? बाद में क्या?”

कोई जवाब नहीं था.

या, लोगों के कल्याण के बारे में बहस करते हुए, वह अचानक अपने आप से पूछता : “तो, मुझे इससे क्या करना है?”

या, अपनी साहित्यिक प्रसिद्धि के बारे में सोचते हुए, वह स्वयम् से कहता : “ठीक है, अच्छा है, तुम गोगल, पूश्किन, शेक्सपियर, मोल्येर से, दुनिया के सब लेखकों से ज़्यादा अच्छे होगे, - तो, इससे क्या?!...” निकट आती, अवश्यंभावी मृत्यु के सामने – जवाब नहीं थे.                    

“मेरे काम,” वह सोचता, “चाहे जैसे भी क्यों न हों, सब विस्मृति में चले जाएँगे – पहले, बाद में, और मैं तो नहीं रहूंगा. तो फिर क्यों भागदौड़ की जाए? कोई आदमी इसे अनदेखा करके कैसे जी सकता है – ये ही अचरज की बात है! जीना तभी तक चाहिए, जब तुम जीवन के नशे में सराबोर हो; मगर जैसे ही होश में आओ, तो इसे अनदेखा करना नामुमकिन है, कि ये सब – सिर्फ धोखा है, बेवकूफ़ धोखा! यही, कि कुछ भी हास्यास्पद और बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं, बल्कि सिर्फ क्रूर और बेवकूफ़ीभरा है”.      

उसकी कल्पनाशक्ति बहुत सजीव थी. अंतहीन अंधेरे का, मृत्यु का भय विकराल था. और उनसे छुटकारा पाने के जो उपाय वह करता था उनमें – यकीन करना मुश्किल है! – वह अक्सर आत्महत्या करने के बारे में सोचता. वह, सुखी आदमी, अपने आप से फीता छुपाकर रखता, जिससे कि अपने कमरे में, जहाँ हर शाम वह अकेला होता था, अलमारियों के बाच की छड़ पर अपने आप को फांसी न लगा ले, और उसने शिकार पर बंदूक ले जाना बंद कर दिया, जिससे ज़िंदगी ख़त्म करने के इस सबसे आसान तरीके से ललचा न जाए.

काफ़ी पहले, करीब बीस साल पहले टॉल्स्टॉय ने जीवन के प्रति घृणा के तीव्र झटके को अनुभव किया था. ये उसके प्रिय भाई की मौत के अवसर पर हुआ था. “ पत्थर को मनाना मुश्किल है, कि ऊपर जाकर गिरे, ना कि नीचे, जहाँ वह खिंचा चला जाता है. उस मज़ाक पर नहीं हँसना चाहिए, जिसने बेज़ार कर दिया हो. जब इच्छा न हो, तो खाना नहीं चाहिए. ये सब किसलिए, जब कल मृत्यु की पीड़ा आरंभ होने वाली है - झूठ, आत्मवंचना के समस्त घिनौनेपन से, और ख़त्म होने वाली है - स्वयम् के लिए तुच्छता से, शून्य से...”                                                                    
मगर तब उसके भीतर ऊर्जा खदखदा रही थी. काम की लालसा, प्रसिद्धि की लालसा, व्यक्तिगत सुख की लालसा उसके भीतर लौट आई थी, और जल्दी ही वह जीवन-चक्र में फंस गया.

इस बार बात कुछ और थी. उसकी उम्र करीब पचास वर्ष की थी. लगता था, कि हर चीज़ का अनुभव ले चुका है, हर चीज़ हासिल कर ली है. उसके पास “भली, प्यार करने वाली और प्रिय पत्नी थी, अच्छे बच्चे थे, बड़ी भारी जागीर थी, जो बिना उसकी तरफ़ से बगैर किसी परिश्रम के बढ़ रही थी और फल-फूल रही थी”. निकटतम व्यक्तियों और परिचितों के लिए वह पहले की अपेक्षा अधिक आदरणीय था, अपरिचित उसकी तारीफ़ करते थे और वह ये मान सकता था, बिना विशेष आत्म-भ्रम के, कि उसका नाम गौरवशाली है.

ऐसा वह कहता था. वास्तव में, उसकी जीत काफ़ी दूरगामी थी. जीवन में जो कुछ भी उसने प्राप्त करना चाहा, वह उसे मिल गया. उसकी प्रसिद्धि, उसके आर्थिक संसाधन, उसके व्यक्तिगत सुख ने कुछ और बेहतर पाने की ख़्वाहिश ही नहीं छोड़ी.

मगर, दूर से जैसा दिखाई देता था, उतना स्वादिष्ट ये सब नहीं निकला. टॉल्स्टॉय की कल्पना शक्ति से, जब तक वह ख़ुशियों के निकट पहुँचता, वे उससे और दूर चली जातीं. और अधिक पाने की दौड़ उसके सुखी जीवन को आवृत करने लगी थी.

बेशक, अगर उसके पास कोई जादूगरनी आती और पूछती, कि उसे क्या चाहिए? – तो अभी भी वह सिर्फ एक ही जवाब देता: “सब कुछ पहले जैसा ही रहे!” मगर, जादूगरनी बस इसी एक चीज़ का वादा नहीं कर सकती थी. उसकी ऊर्जा का प्रबल विकास थम गया. अब आगे, सिर्फ ढलान से उतरना, शारीरिक और मानसिक शक्तियों का कमज़ोर होना, बीमारियाँ – यही शेष था. और क्षितिज पर मृत्यु का भूत खड़ा था.

टॉल्स्टॉय अपने लिए अमरत्व चाहता था. क्या जादूगरनी उसे अमरत्व दे सकती थी?

कुछ ही दिन पहले तो मृत्यु के विचार पर ध्यान केंद्रित करके वह जीवन के अर्थ को विषद करने की उम्मीद कर रहा था.

मगर निकट आते हुए निर्वाण की ठण्डी रोशनी में सुखी संसार की सारी तुच्छता, सारी निरर्थकता अनावृत हो गई.   

मानवीय अस्तित्व का मतलब ही क्या है, जब ख़ुद वह, टॉल्स्टॉय और उसकी प्रसिद्धि और उसका परिवार शून्य में बदल जाएँगे?

और उसके अपने विचार तथा विज्ञान एवम् दर्शन के क्षेत्र में निरंतर खोजबीन उसे एक परिणाम तक ले आए, जो लगता था, निर्विवाद सत्य है : लोगों का जीवन – निरर्थक है. और ग़ौर करना चाहिए : दुख के इन दौरों का कारण केवल मृत्यु का भय ही नहीं था, बल्कि इसके पीछे जीवन की निरर्थकता की भयावहता भी थी, जो मृत्यु के साथ समाप्त होता था.

ये दौरे बार-बार पड़ते रहे. और उसकी आत्मा बार-बार यातना से शरीर से दूर छिटकती रही. ऊपर उल्लेखित “एक सिरफिरे की डायरी” में उसने लिखा था : “मैं जी रहा हूँ, मैं जिया और मुझे जीना चाहिए, और अचानक – मृत्यु, हर चीज़ का विनाश. किसलिए जीना है? मरने के लिए?...फ़ौरन अपने आप को मार डालूँ? डरता हूँ. मौत का इंतज़ार करना, कि वह कब आएगी?...”

और सोफ्या अन्द्रेयेव्ना सन् 1876 के अंत में बहन को लिखती है : “लेवच्का लगातार कहता है, कि उसके लिए सब कुछ समाप्त हो गया है, जल्दी ही मर जाना है, कोई भी चीज़ ख़ुशी नहीं देती, ज़िंदगी से अब किसी और चीज़ की उम्मीद नहीं है”.

उन मुश्किल दिनों की उसकी मानसिकता का विवरण : “आन्ना करेनिना” के आठ भागों – 239 अध्यायों में है. शीर्षक सिर्फ एक को दिया गया है. और ये शीर्षक है : “मृत्यु” (पाँचवे खण्ड का अध्याय XX).

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Tolstoy and His Wife - 10.4

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