2.
अपनी बीमारियों के दरम्यान
टॉल्स्टॉय, बुढ़ापे की ओर ध्यान न देते हुए,
स्वयम् को इतना फुर्तीला महसूस करता, कि हर
रोज़ 10-15-20 मील की घुड़सवारी कर लेता. इस काम के लिए वह जंगल की अनजान पगडंडियों को
ही चुनता, खाइयों में उतर जाता, घोड़े
को कठिन बाधाएँ पार करने पर मजबूर करता, लगभग सीधी, खड़ी चढ़ाई पर चढ़ जाता और नौजवान साथियों को अपने साहस से चौंका देता. नब्बे
के दशक में, मॉस्को में, उसने अरेना
में साइकिल सवारी सीखने का भी फ़ैसला किया था, जल्दी ही तकनीक
सीख ली और कुछ समय साइकिल पर लम्बी दूरियों पर जाता रहा.
फिर भी बुढ़ापा अपना एहसास
दिला रहा था. शारीरिक श्रम कम करना पड़ा. साहित्य के कार्य में टॉल्स्टॉय की अद्भुत
कार्यक्षमता काफ़ी कम हो गई. अब वह शामों को सिर्फ पढ़ सकता था,
शतरंज खेल सकता था या संगीत सुन सकता था. मगर फिर भी, जीवन के अंतिम दस वर्षों में उसने दार्शनिक, धार्मिक,
और सामाजिक प्रश्नों पर करीब 40 लेख लिखे. इस काल में उसने 30 से अधिक
साहित्यिक रचनाएँ लिखी, जिनमें शामिल हैं “ज़िंदा लाश”,
“और अंधेरे में रोशनी चमकती है”, “हाजी मुराद”
, “नृत्योत्सव के बाद”, “बचपन की
यादें”.
सन् 1901 में सात “नम्र”
मेट्रोपोलिटन्स और बिशप्स ने, जो तत्कालीन
ऑर्थॉडोक्स चर्च की धर्मसभा मे थे, टॉल्स्टॉय को चर्च से
बहिष्कृत कर दिया. उसे चर्च से बहिष्कृत करने में वे, बेशक,
सही थे : उसने काफ़ी पहले ही उसके ख़िलाफ़ हथियार उठा लिये थे. मगर इस
कार्रवाई से टॉल्स्टॉय की लोकप्रियता में और भी वृद्धि हुई. पहले तो टॉल्स्टॉय
जवाब देना नहीं चाहता था, और उसने सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को
भी रोका. वह युद्ध पर उतर आई, अपनी ही ज़िद पर अड़ी रही :
मेट्रोपोलिटन एंथनी के नाम उसका बेहद बेवकूफ़ीभरा खुला ख़त अख़बारों में प्रकाशित हो गया.
बाद में टॉल्स्टॉय ने
धर्मसभा को जवाब दिया. उसने इस अवसर का फ़ायदा उठाया, ताकि एक
बार फिर अपने धर्म के मूलभूत सिद्धांतों को प्रस्तुत कर सके. बातों बातों में उसने
ये घोषणा की : “मैंने शुरुआत इस बात से की, कि अपने
ऑर्थॉडॉक्स विश्वास को अपनी शांति से ज़्यादा प्यार किया, फिर
क्रिश्चियानिटी को अपने चर्च से ज़्यादा प्यार किया, अब मैं
दुनिया में सबसे ज़्यादा सत्य से प्यार करता हूँ”.
इस
सत्य को वह किसी पर थोंपना नहीं चाहता था, मगर
उससे इनकार करने का भी उसका कोई इरादा नहीं था. क्योंकि उसे “ख़ुद अकेले ही जीना है, ख़ुद ही अकेले मरना भी है”.
ऊपर
दिए गए अंश टॉल्स्टॉय की आत्मा में एक नए परिवर्तन की शुरुआत की ओर, उसके विकास के अगले चरण की ओर इशारा करते हैं.
अब
उसे कोई भी उपदेश देना मुश्किल लगता है, क्योंकि
वह धीरे-धीरे हर तरह के धार्मिक सिद्धांत से दूर हट रहा है. क्रिश्चियानिटी के
असाधारण महत्व पर भी वह कम ही विश्वास करता है. वह अन्य धर्मों का अध्ययन करता है, और हर जगह उसे एक ही चीज़ मिलती है. इस उल्लेखनीय घटना
को विद्वान रब्बी ने समझाया था,
जिसके साथ टॉल्स्टॉय ने हिब्रू
भाषा में ताल्मुद और पैगम्बरों का अध्ययन किया था.
“टॉल्स्टॉय
किसी पाठ से सिर्फ वही लेता था,
जिसकी उसे ज़रूरत होती
थी. बाकी सब वह उदासीनता से पढ़ता”.
हर
धर्म में सिर्फ उन्हीं विचारों पर ध्यान देते हुए, जो उसे
प्रिय थे, टॉल्स्टॉय ने आख़िरकार ये फ़ैसला किया, कि सिर्फ ये ही सत्य ख़ुदा द्वारा प्रेरित हैं, क्योंकि वे सभी के विवेक के अनुकूल हैं. बाकी सब –
विरोधी स्वर हैं और,
इसलिए, इन्सानी हाथों का काम है.
इस
दृष्टिकोण से गॉस्पेल्स ने अपना असाधारण महत्व खो दिया. और टॉल्स्टॉय की उसमें
दिलचस्पी ख़त्म हो गई.
मगर
सर्वव्यापी होने के लिए,
धार्मिक विचार का काफ़ी
सरल होना आवश्यक है. और वाकई में टॉल्स्टॉय का पूरा धर्म अब केवल कुछ ही बिंदुओं
में सिमट गया. ख़ुदा की इच्छा के अनुसार काम करो, जिसने
तुम्हें धरती पर भेजा है. शारीरिक मृत्यु के बाद तुम्हें उसमें विलीन हो जाना है. ख़ुदा की इच्छा ये है, कि लोग एक दूसरे से प्यार करें और इसके परिणाम स्वरूप
वे दूसरों से वैसा ही बर्ताव करें,
जैसा वे चाहते हैं, कि दूसरे उनके साथ करें.
मगर, इतने सामान्य सूत्र भी उसे हमेशा संतुष्ट नहीं करते हैं.
वह डायरी में लिखता है :
“मैंने
एक बार अपने आप से पूछा : क्या मैं विश्वास करता हूँ? क्या
वाकई में मैं इस बात पर विश्वास करता हूँ, कि
जीवन का मकसद है ख़ुदा की इच्छा का पालन करना, ये
इच्छा है प्यार (सौहार्द्र) बढ़ाने की अपने भीतर और दुनिया में, और इस वृद्धि से, किसी
प्रिय से जुड़ जाने से – क्या मैं अपने लिए भावी जीवन तैयार कर रहा हूँ? और अनचाहे ही जवाब दिया, कि इस
तरह से, इस विशिष्ठ रूप में विश्वास नहीं करता. फिर किसमें
विश्वास करता हूँ?
– मैंने पूछा, और ईमानदारी से जवाब दिया, कि मैं
दयालु होने में विश्वास करता हूँ : विनम्र होना चाहिए, क्षमा
करना चाहिए, प्यार करना चाहिए. अपने पूरे अस्तित्व से इसमें
विश्वास करता हूँ”.
इतने
वर्षों की खोज का इतना कम शेष बचा था! कभी कभी वह हर बात पर संदेह करता – ख़ुदा के
अस्तित्व पर भी. ख़ुदा-निर्माता के,
ख़ुदा-देने वाले के मर्म पर, उस ख़ुदा के, जिससे
कुछ भी मांगा जा सकता है – टॉल्स्टॉय सिद्धांत रूप में स्वीकार नहीं करता था. ख़ुदा
उसके लिए अगम्य है. ख़ुदा – ये वो ‘सब’ है,
अंतहीन ‘सब’,
जिसके एक अंश के रूप में
वह स्वयम् को अनुभव करता है. और इसलिए उसके भीतर सब कुछ ख़ुदा से सीमित है, और वह हर चीज़ में उसे अनुभव करता है.
ये
बहुत ज़्यादा और बहुत अस्पष्ट है. ऐसी कल्पना के फलस्वरूप टॉल्स्टॉय अक्सर सोच में
पड़ जाता : क्या आम तौर से ख़ुदा के बगैर काम नहीं चल सकता?
“मेरे
दिमाग़ में ये ख़याल आने लगा”,
- वह लिखता है, - “कि,
संभव है; कि ख़ास तौर से महत्वपूर्ण है चीनियों के, कन्फ्युशियन्स के, बुद्धिस्टों
के और हमारे नास्तिकों के,
अज्ञेयवादियों के साथ
एकीकरण के लिए;
कि इस अवधारणा से पूरी
तरह बच कर निकल जाना. मैं सोच रहा था,
कि सिर्फ अवधारणा से और
उस ख़ुदा को मान्यता देने से ही संतुष्ट हुआ जा सकता है, जो
मुझमें है, उसके अपने भीतर के ख़ुदा को न मानते हुए, - उसे,
जिसने मेरे भीतर अपने
अंश को स्थापित किया है. और अचरज की बात ये हुई – मुझे अचानक उकताहट, आलस,
भय का अनुभव होने लगा. मैं नहीं जानता था, कि ऐसा
क्यों है, मगर ये महसूस कर रहा था, कि
अचानक आध्यात्मिक रूप से मेरा पतन हो गया है, मैं
अपनी सारी ख़ुशी और आध्यात्मिक ऊर्जा खो चुका हूँ. और तभी मुझे अंदाज़ हुआ, कि ये इसलिए हुआ है, कि मैं
ख़ुदा से दूर हो गया हूँ. और मैं सोचने लगा – अजीब लगता है कहने में – मैं बूझने
लगा, क्या ख़ुदा है या नहीं है, और, जैसे,
मैंने उसे फिर से पा लिया...”
वह
ख़ुदा पर विश्वास और आत्मा के अमरत्व का “सहारा लेना” चाहता है. ख़ास बात ये है, कि ख़ुदा की उसे “ज़रूरत” है, जिससे
ये प्रकट कर सके,
कि वह कहाँ जा रहा है और
किसके पास जा रहा है.
टॉल्स्टॉय
के विभिन्न उद्देश्यों के लिए “आवश्यक” इस ख़ुदा से संबंध – अत्यंत अस्पष्ट हैं.
अस्सी के दशक में ही प्रचारक एवम् कवि अक्साकव ने कहा था, कि टॉल्स्टॉय का ख़ुदा के साथ – एक ख़ास तरह का
अनुबन्ध-खाता है. नब्बे के दशक में मक्सिम गोर्की, जो
क्रीमिया में उसे निकट से देख रहा था,
पुष्टि की : ‘ख़ुदा के साथ उसके एकदम अस्पष्ट संबंध हैं, मगर कभी कभी वे मुझे “एक मांद में दो भालू” वाले रिश्ते
की याद दिलाते हैं’
” .
टॉल्स्टॉय
के आध्यात्मिक विकास का नया चरण हठ धर्मिता के कमज़ोर पड़ने और, परिणाम स्वरूप, धार्मिक
सहिष्णुता की वृद्धि से प्रकट हो रहा था. पहले के गर्वीले और अविचल सत्य बुझ गए थे
और भुला दिए गए थे. अब वह अचानक डायरी में ये विचार लिख सकता है : “मेरी ज़िंदगी के
सुखी पल सिर्फ वे ही थे,
जब मैंने लोगों की सेवा
में पूरा जीवन अर्पित कर दिया था. ये थे : स्कूल, मध्यस्थता, भुखमरी और धार्मिक सहायता”. उसके पिछले सिद्धांतों के
दृष्टिकोण से – इनमें से हर कार्य की कठोरतम आलोचना की जा सकती थी.
उसे
ऐसा लगा, कि उसने बहुत पहले ही अपने तर्कों से मृत्यु को जीत
लिया है. उसने लम्बे समय तक (अस्सी के दशक में ही) अपनी किताब “जीवन और म्रुत्यु”
पर काम किया था. इस कार्य के दौरान ऐसा लगा कि एक क्रिश्चियन के लिए “म्रुत्यु
नहीं है”, और ये ग्रंथ “जीवन के बारे में” शीर्षक से प्रकाशित
हुआ. टॉल्स्टॉय के विचार में,
अमर आत्मा, शरीर की मृत्यु के बाद, “हर चीज़
से”, ख़ुदा से एकरूप
हो जाती है, और इस तरह,
अपने विषयासक्त शरीर से, अपने कारागृह से, मुक्त
होकर, चिरंतन जीवन के एक नये चरण में प्रवेश करती है. अगले
20-25 साल वह हर तरह से ख़ुद को इस बात का यकीन दिलाने की कोशिश करता रहा. शाश्वत जीवन
के विषय पर निरंतर बातचीत से,
लेखों से और विचारों से
वह स्वयम् को सम्मोहित करता रहा. ये सच है, कि
अनेक बार इस क्षेत्र में उसे अपने चिंतित रवैये, अपनी
हिचकिचाहट, अपने संदेहों का सामना करना पड़ा. मगर मृत्यु के प्रश्न
की ओर लगातार वापस आते हुए,
उसने फिर भी, ऐसा लगा,
कि उससे समझौता कर लिया
है, शांति से उसके बारे में सोच रहा है, बल्कि उसकी कामना भी कर रहा है.
इस
बीच, जब वह क्रीमिया में मृत्यु के द्वार पर खड़ा था, सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने अपनी बहन को सूचित किया :
“तबियत में ज़रा सी भी गिरावट उसे उदासी से भर देती है : वह ख़ामोश रहता है और सोचता
रहता है, और ख़ुदा ही जानता है कि उसकी रूह में क्या चल रहा है.
हम सब के साथ,
उसके आस पास के लोगों के
साथ वह बहुत स्नेहयुक्त और आदरयुक्त बर्ताव करता है. मगर बीमार पड़ना उसके लिए बहुत
कठिन है, असामान्य है, और
मेरे ख़्याल में वह मरना तो बिल्कुल ही नहीं चाहता”.
मक्सिम
गोर्की ने भी उसी समय के बारे में लिखा था : “कभी कभी ऐसा लगता, कि ये बूढ़ा जादूगर मौत से खेल रहा है, उससे इश्क लड़ा रहा है और किसी तरह उसे धोखा देने की
कोशिश कर रहा है : मैं तुमसे नहीं डरता, मैं
तुमसे प्यार करता हूँ,
मैं तुम्हारा इंतज़ार कर
रहा हूँ. मगर ख़ुद पैनी आँखों से देख लेता है : मगर तुम हो कैसी? और तुम्हारे पीछे क्या है, वहाँ -
आगे? क्या तुम मुझे पूरी तरह नष्ट कर दोगी या कुछ ज़िंदा
बचेगा...”
ज़ाहिर
है, इन कठोर शब्दों में सच का कुछ अंश तो था.
कम
से कम, मौत के इन सभी स्वागत-सत्कारों के बाद, जो टॉल्स्टॉय की डायरियों में, ख़तों में और बातचीत में बिखरे हैं, अचानक उसके सेक्रेटरी गूसेव का 19 जनवरी 1909 को लिखा
हुआ नोट अप्रत्याशितता से चौंका देता है. टॉल्स्टॉय ने उससे कहा:
“आज अचानक मैंने मौत को महसूस किया (मेरी उम्र
में ये स्वाभाविक है) और कोई प्रतिरोध महसूस नहीं किया. ये बात नहीं, कि
मृत्यु की इच्छा हो रही हो, जैसे कभी-कभी होता
है, जब ज़िंदगी का पागलपन देखते हो, और यहाँ
से फ़ौरन निकल जाने को जी चाहता है, बल्कि पूरी शांति,
तैयारी. ऐसा मैंने पहली बार अनुभव किया है”.
वैसे,
जीवन के अंतिम वर्षों में उसने सहर्ष स्वीकार किया, कि अभी भी सिर्फ सत्य को ढूँढ़ रहा है, कि उसे अपने आध्यात्मिक
जीवन को बदलने के लिए अभी काफ़ी काम करना है.
और हर तरह का धार्मिक सिद्धांत,
हर तरह के सम्पूर्ण सिद्धांत उसके लिए घृणित हो गए. वह शिद्दत से “टॉल्स्टॉयवाद”
का विरोध करने लगा और अपने अनुयायियों के लिए कभी कभी ऐसा भी कह देता:
“ये – टॉल्स्टॉयवादी”,
मतलब मेरे लिए पूरी तरह अनजान दृष्टिकोण का आदमी है”.
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