अध्याय
9
और
अंधेरे में रोशनी चमकती है.
1
ये
शीर्षक था उस नाटक का जिस पर टॉल्स्टॉय नब्बे के दशक और वर्ष 1900 में काम कर रहे
थे. पाठक के सामने – ख़ुद लेखक का ही नाटक है – उसके आत्मकथात्मक चरित्र को छुपाने
की ज़रा सी भी इच्छा नहीं है. समृद्ध ज़मींदार सरिन्त्सोव का आध्यात्मिक रूप से नया
जन्म हुआ है और वह क्राइस्ट की शिक्षा के अनुरूप अपने जीवन को बदलने के लिए उत्सुक
है. उसकी पत्नी पारिवारिक सम्पत्ति और उसमें रूढ़ कुलीन परंपराओं की सुरक्षा करती
है. वे ल्येव निकोलायेविच और सोफ्या अन्द्रेयेव्ना की बोली में बात करते हैं.
सरिन्त्सोव और उसकी पत्नी सिर्फ एक बात में टॉल्स्टॉय दम्पत्ति से भिन्न हैं :
नाटक के पात्र अत्यंत नरम और नमनशील हैं. सरिन्त्सोव तो बहुत आसानी से समर्पण कर
देता है: परिवार को दुख न पहुँचाने की, आसपास के
लोगों के प्रति प्यार की मांग को ख़त्म न करने की इच्छा उसके भीतर बिना किसी संघर्ष
के गंभीर कर्तव्य की आज्ञाओं पर विजय प्राप्त कर लेती है.
मगर
ये विवरण भी कुछ हद तक टॉल्स्टॉय के अपने अनुभव से मेल खाता है.
सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना अपनी आत्मकथा में अचरज करती है: “हमारे बीच पतभेद कब शुरू हुए – पता
नहीं, ढूँढ़ नहीं सकती. और किस बात में?...” “उसकी शिक्षा का पालन करने की ताकत मुझमें नहीं थी. हमारे बीच व्यक्तिगत
संबंध पहले जैसे ही थे : हम उसी तरह एक दूसरे से प्यार करते रहे, उसी तरह मुश्किल से जुदा होते रहे”. ये परेशानी भरी टिप्पणियाँ ईमानदार और
जायज़ हैं. वाकई में, नब्बे के दशक में, उदाहरण के लिए, टॉल्स्टॉय ने पत्नी को 300 पत्र
लिखे. ये पत्र मित्रता, फिक्र, चिंता
से भरे हुए थे. ये सही है, कि उनमें से अधिकांश में पहले
जैसी तप्त भावनाओं के आवेग नहीं मिलते. मगर इस लिहाज़ से भी थोड़े बहुत अपवाद तो थे.
25
अक्टूबर 1895 को उसने लिखा : “जिस दिन तुम गईं, उसी दिन
तुम्हें लिखना चाहता था, प्यारी दोस्त, उस एहसास के ताज़ा प्रभाव में जो मैं अनुभव कर रहा था, मगर डेढ़ दिन गुज़र गया, और सिर्फ आज तुम्हें लिख रहा
हूँ. वो एहसास, जो मैं अनुभव कर रहा था, बड़ा अजीब सा प्यार, दयनीयता, तुम्हारे
प्रति एकदम नया प्यार, ऐसा प्यार, जिसके
प्रभाव में मैं अपनी आत्मा से पूरी तरह तुममें समा गया, और वही
महसूस कर रहा था, जो तुम कर रही थीं. ये इतना पवित्र,
अच्छा एहसास था, जिसके बारे में कुछ कहने की
ज़रूरत ही नहीं थी, हाँ, मुझे मालूम है,
कि तुम्हें ये सुनकर ख़ुशी होगी, और मालूम है,
कि इसलिए भी, कि मैं उसे कहूँगा, वो बदलेगा नहीं. उलटे, तुम्हें लिखना शुरू करके भी
वैसा ही महसूस कर रहा हूँ. अजीब है हमारा ये ख़याल, जैसे शाम
का धुंधलका हो. सिर्फ कभी कभी मुझसे तुम्हारी और तुमसे मेरी असहमति के छोटे-छोटे
बादल इस प्रकाश को कम कर रहे हैं. मुझे यकीन है, कि रात होने
से पहले वे छट जायेंगे, और सूर्यास्त बिल्कुल साफ़ और
प्रकाशमान होगा…”
ये
था – शिशिर के अंत में.
अगला
बसंत आया, मई का महीना आया, और टॉल्स्टॉय पत्नी को और भी ज़्यादा नज़ाकत भरा ख़त लिखता है, उससे विनती करते हुए: “अकेले ही पढ़ना”.
“तुम्हारा
सफ़र कैसा रहा और अब तुम कैसी हो, प्यारी दोस्त?
अपने आगमन से तुमने इतना गहरा, उत्साहजनक,
अच्छा प्रभाव डाला, मेरे लिए बहुत ही अच्छा,
क्योंकि, मुझे तुम्हारी कमी बेहद महसूस हो रही
थी. मेरा जागना और तुम्हारा प्रकट होना – मेरे लिए सबसे गहरा, ख़ुशनुमा एहसास है, जिसे मैंने महसूस किया है,
और वो भी 69 साल की उम्र में 53 साल की औरत के कारण!...”
बुढ़ापे
के एहसास वाला ये बसन्त ख़ास परिस्थितियों में आया था. फरवरी 1895 के अंत में लाल
बुखार से टॉल्स्टॉय दम्पती के सात साल के बेटे – वानेच्का की मृत्यु हो गई.
पिता बेटे से बेहद प्यार करते थे, इस आशा से, कि “उनके बाद वह ख़ुदा का काम जारी रखेगा”. माँ का दुख सांत्वना से परे
था.
“बच्चे
क्यों मर जाते हैं?” टॉल्स्टॉय पूछता है. “मैं इस
निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ, कि हर इन्सान की ज़िंदगी का सिर्फ एक
ही मकसद है – सिर्फ इतना ही कि अपने भीतर प्यार की भावना को
बढ़ाओ, और, अपने भीतर प्यार बढ़ाते हुए,
उससे औरों को भी संक्रमित करो, उनके भीतर भी
प्यार बढ़ाते हुए...वो (वानेच्का) इसलिए जिया, कि अपने भीतर
प्यार बढ़ाए, प्यार में बढ़ता रहे, क्योंकि
इसकी उसे ज़रूरत
थी, जिसने उसे भेजा था, और
इसलिए, कि ज़िंदगी से उसके
पास जाते हुए, जो प्यार है, अपने भीतर का पूरा प्यार हमारे भीतर छोड़ जाए, उस
प्यार से हमें एक दूसरे से जोड़ दे. हम कभी भी एक दूसरे के इतने करीब नहीं थे,
जैसे अभी हैं, और कभी भी, ना तो सोन्या में, ना ही मुझमें प्यार की ऐसी ज़रूरत
मुझे महसूस नहीं हुई, और ना ही हर उस चीज़ के प्रति नफ़रत
महसूस हुई, जो जुदा करती है, और बुरी
है. सोन्या को मैंने इतना प्यार कभी नहीं किया, जितना अब कर
रहा हूँ...”
अन्य
परिस्थितियाँ भी थीं, जो कभी-कभी पति-पत्नी को एक
दूसरे के करीब ले आती थीं.
मगरा
ऐसा हमेशा नहीं होता था.
सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना के लिए, ज़ाहिर है, संबंध गहरे होते थे, लगभग,
सिर्फ एक दूसरे के स्वास्थ्य के प्रति फिक्र से, जुदाई के
दिनों में एक दूसरे के प्रति परेशान होने से, ख़तों में नज़ाकत
और दोस्ताना प्यार से...ये सब, वाकई में, कभी बदला नहीं.
रोज़मर्रा
की कठोर और तीखी नोंक-झोंक, जिन्हें टॉल्स्टॉय
के आत्मकथात्मक नाटक में काफ़ी सौम्य कर दिया गया है, सोफ्या अन्द्रेयेव्ना
को दाम्पत्य जीवन में काफ़ी स्वाभाविक प्रतीत होती थी. टॉल्स्टॉय के मन में,
इसके विपरीत, ये झगड़े आदत की सामर्थ्य और बचे खुचे
प्यार को नष्ट कर रहे थे.
पत्नी
के विरोध को वह क्षमा नहीं कर पाया. अगर वो “सत्य” को समझती नहीं थी (समझ नहीं सकती
थी या समझना नहीं चाहती थी), तो भी उसे उस पर विश्वास
करना चाहिए था और, प्यार की ख़ातिर, उसका
अनुसरण करना चाहिए था. वह न केवल ख़ुद उस जीवन पद्धति को जारी रखे हुए थी, जिसकी टॉल्स्टॉय द्वारा निंदा की गई थी, बल्कि,
उसकी राय में, बच्चों का भविष्य भी समाप्त कर रही
थी. अपने जीवन के सभी विरोधाभासों का ठीकरा वह, तहे दिल से,
उसके सिर पर फ़ोड़ना चाहता था. उसकी “नासमझी” के विरोध मे वह कभी-कभी असंयत
उपहासों और तानों का प्रयोग करता था. उसकी डायरियों में, मित्रों
को लिखे गए ख़तों में, उनसे बातचीत के दौरान ये संकेत,
समीक्षाएँ, दोषारोपण फिसल कर आ जाते थे,
जो अंशतः पत्नी तक पहुँच जाते थे.
ये
सब सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के सामने युद्ध-सदृश्य परिस्थिति खड़ी कर देता था. संकट के
क्षणों में वह जिस ज़बर्दस्त ऊर्जा और व्यावहारिक योग्यताओं का प्रदर्शन करती थी,
उन्होंने उसके आत्मविश्वास और संयम को बढ़ाने में काफ़ी सहायता की थी.
वह स्पष्ट और निश्चित रूप से परिवार की मुखिया बन गई थी. टॉल्स्टॉय अपनी बात पर न तो
अड़ा रह सकता था, ना ही घर छोड़ कर जा सकता था. वह अपने आप को पूर्णतः
दोषी पाता था: सबसे पहले अपने ही सामने, अपनी शिक्ष के सामने,
और उसके बाद परिवार के भी सामने, जिसकी ज़रूरतों
के प्रति वह ठंडा पड़ गया था. उसकी कमज़ोरी पत्नी की जीत बन गई थी. वह टॉल्स्टॉय के आधिकारिक/व्यावसायिक
संबंधों में भी दख़ल देने की कोशिश करती थी, ऐसे बयान देती थी,
और ऐसे कार्य करती थी, जो टॉल्स्टॉय को अप्रिय
प्रतीत हो सकते थे. कभी कभी ये सार्वजनिक बयान उसकी जानकारी के बगैर और उसकी इच्छा
के विपरीत भी दिये जाते थे. ऐसे अवसर भी आते थे, जब टॉल्स्टॉय
को अप्रिय परिस्थितियों से स्वयम् को अलग कर लेना पड़ता था, जिनमें
पत्नी की उद्दण्डता के कारण वह स्वयम् को पाता था.
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