रविवार, 10 जून 2018

Tolstoy and His Wife - 9.3




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सत्य के आविष्कार के उत्साह के काल में दुनिया को परिवर्तित करना उसे आसान लगता था. लोगों को बस “सोचने की ज़रूरत है”, अपने जीवन की निरर्थकता को, भयावहता को समझने की ज़रूरत है, और वे निश्चित ही स्वीकार करेंगे, स्वीकार न करना संभव ही नहीं है – बचने की राह, जो क्राइस्ट ने दिखाई है और जिसे फिर से “मेरा धर्म क्या है?” इस पुस्तक में समझाया गया है. ये रास्ता आसान और सुगम है. इसे गॉस्पेल में दिखाया गया है और – मुख्य रूप से पर्वतीय धर्मोपदेश की पांचों आज्ञाओं से. विश्व का पुनर्निमाण निकट ही है, मगर उसे शब्दों से, मौखिक प्रचार से नहीं, बल्कि उदाहरण से पूरा किया जाएगा, जो समूची मानवता के समक्ष संभावना, सरलता और वास्तविक क्रिश्चियन जीवन के सुख को स्थापित करेगा. मगर इस अनिवार्य, निकट (करीब एकाध दशक के दौरान) परिवर्तन की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं. लोग हठधर्मिता से धरती पर ही उनके लिए खुले ख़ुदा के साम्राज्य में नहीं गए. धार्मिक कारणों से सैन्य सेवाओं से इनकार करने की घटनाएँ इक्की-दुक्की ही रहीं. उन बहादुरों को, जिन्होंने ऐसा करने का फ़ैसला किया था, महान दुःखों का सामना करना पड़ा. टॉल्स्टॉय की किसानों की कॉलनियाँ एक के बाद एक नष्ट हो गईं. ख़ुद टॉल्स्टॉय ने व्यक्तिगत जीवन में क्रिश्चियन आदर्श को स्थापित करने की कोशिश की, मगर उसके शब्दों में “हाथ तुड़वा बैठा”...

निराशा की स्थिति उत्पन्न हो गई – और न केवल बाहरी दुनिया में सत्य की शीघ्र स्थापना को कार्यरूप में परिणित करने की संभावना से, बल्कि अपने ही जीवन में भी उसे कार्यरूप में परिणित करने से भी.

सत्य की दुनियाई भागदौड़ से सुलह करनी पड़ी, समझौता करना पड़ा. मगर समझौतों से टॉल्स्टॉय के मन में घृणा उत्पन्न होती थी. कभी कभी वह निराशाग्रस्त हो जाता, और उसे शिक्षा की सच्चाई में संदेह होने लगता...मगर इस दौरान आत्मा के भीतर हौले-हौले, निरंतर काम होता रहता. वह अप्रत्याशित परिणाम देता.

टॉल्स्टॉय की धार्मिक शिक्षा में एक बार फिर नया दौर आया. अब वह उन नियमों का बचाव नहीं करता, जिन्हें इतने ज़ोर-शोर से “मेरा धर्म क्या है?” पुस्तक में पेश किया था.

ओह, नहीं! वह तहे दिल से ख़ुश था, कि उसने इन विचारों का अनुभव प्राप्त किया था.

सत्य की नई खोज का सार क्या था? टॉल्स्टॉय का वर्तमान धर्म धरती पर एक क्रिश्चियन के प्रमुख कार्य को बाहरी क्षेत्र से, कार्यकलापों के क्षेत्र से – आंतरिक क्षेत्र में ले आया, स्वयम् परिपूर्णता की ओर.

क्योंकि सत्य के नाम पर दुनिया को बदलने का आह्वान किसी से भी नहीं किया गया है. कोई कितना भी चाहे, वह अपने जीवनकाल में भी, सत्य को साकार नहीं कर सकता, मगर इतना कर सकता है, कि दुनिया में क्या हो रहा है (ये ख़ुदा करेगा) इस बारे में फिक्र किए बिना, इस बात की भी फिक्र किए बिना, कि अनुकूल व्यक्तियों के सामने, ख़ुदा के सम्मुख सत्य को साकार करने के लिए, मतलब अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसकी इच्छा का पालन करने के लिए वह किस हद स्वयम् को प्रस्तुत करता है. ये इच्छा है स्वयम् के भीतर और दुनिया में प्रेम का विकास करना. प्रेम के विकास से, हर प्रिय वस्तु का एक इकाई में समावेश करने से, मनुष्य शारीरिक मृत्यु के बाद ख़ुदा से एकरूप होने के लिए अपने आप को तैयार करता है और, इसलिए, अपने लिए चिरंतन जीवन का निर्माण करता है.

क्या क्रिश्चियन धर्म फ़ौरन असंभव है?

तो, इससे क्या? हमारे कार्यों के परिणाम हमारे बस में नहीं होते. क्योंकि दुनिया को बदलने की गर्वीली इच्छा के मार्ग में निश्चय ही बाधाएं आएँगी, जिनके बारे में पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता. अपने व्यक्तिगत जीवन में भी बाहरी परिस्थिति को बदलना मुश्किल है. हर कदम पर दुर्गम विरोधाभासों का मुकाबला करना पड़ता है; उल्लंघन करने के लिए, बुराई का विरोध हिंसा से करना अनिवार्य है, आस- पास के और घनिष्ठ लोगों से प्यार करने के आदेश का उल्लंघन करना पड़ता है...क्योंकि जीवन इतनी जटिलता से गुंथा हुआ है विगत के प्रलोभनों, विगत के पापों से!...                     
तो, क्रिश्चियन सिक्षा को आचरण के नियमों के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए. ऐसे दृष्टिकोण से, बेशक, क्रिश्चियन धर्म अव्यावहारिक हो जायेगा. नहीं, क्रिश्चियन धर्म सिर्फ एक आदर्श प्रस्तुत करता है, जिसके लिए प्रयास करना चाहिए. क्रिश्चियन शिक्षा के अनुसार जीवन दैवीय पूर्णता की ओर संचलन है.               

हमारे कार्य, बाह्य परिस्थितियों में परिवर्तन, हम पर निर्भर नहीं करते. उच्चतम स्तर पर भी बाह्य परिस्थितियों को बदलने के प्रयासों को हमेशा के लिए छोड़ना महत्वपूर्ण है. सत्य को जानना और स्वीकार करना ही महत्वपूर्ण है.

“लोगों को सिर्फ इतना समझना चाहिए : बाह्य और सामान्य कार्यों की फिक्र करना बंद करें, जिनमें उन्हें आज़ादी नहीं है, और उस ऊर्जा का शतांश, जिसे वे बाह्य कार्यों के लिए खर्च करते हैं, उसके लिए प्रयोग करें जिसमें वे आज़ाद हैं, उस सत्य को जानने और स्वीकार करने में, जो उनके सम्मुख है, स्वयम् को और अन्य लोगों को झूठ और पाखंड से आज़ाद करने के लिए, जिन्होंने सत्य को छुपा रखा है; इस उद्देश्य से, कि बिना प्रयत्नों और संघर्ष के फ़ौरन जीवन की वह झूठी पद्धति नष्ट हो जाए, जो लोगों को दुख पहुँचाती है और उन्हें बदतर आपदाओं की धमकी देती है, और वो ख़ुदा का साम्राज्य स्थापित हो जाए या कम से कम उसकी पहली सीढ़ी मिल जाए, जिसकी ओर लोग अपनी चेतना के अनुसार जाने के लिए तैयार हैं”.           

इस तरह, आचरण के, कर्मों के द्वारा उपदेश लुप्त हो जाता है. साथ ही:
“इस विचार से भी समझौता कर लेना चाहिए, कि क्राइस्ट के अनुसार आप चाहे जैसे जिए हों, वे लोग, जो क्राइस्ट का अनुसरण नहीं करते, आपकी निंदा करेंगे”.

“एक क्रिश्चियन का कार्य, जिसके माध्यम से वह सभी उद्देश्यों को प्राप्त कर लेता है, - अपनी अग्नि स्वयम् प्रज्वलित करना और लोगों के सामने प्रकाशित होना है...ये ज़रूरी है, कि हमारे कार्यकलापों का कोई उद्गम(जड) हो, और ये उद्गम ख़ुदा की इच्छा के प्रति हमारे आत्म समर्पण में, आत्म सम्पूर्णता और प्रेम के विकास को समर्पित हमारे निजी जीवन में निहित हों”.

अब टॉल्स्टॉय हर चीज़ का सारांश इस प्रकार देते हैं : “अगर आत्मा में हो गया है, तो दुनिया में भी परिवर्तन होगा”.

ख़ुद को शुद्ध करो, स्वयम् से क्रिश्चियन सत्य की लौ जगाओ, अपने उदाहरण से क्रिश्चियन, अर्थात् सभी संभाव्य परिस्थितियों में तर्कसंगत और सुखी जीवन की, संभावना प्रस्तुत करो – और ये होगी सत्य की सर्वोत्तम स्वीकृति, सर्वोत्तम “कार्यों से”, जो लोगों को प्रबुद्ध करेंगे. और जब विश्वास से सामर्थ्यवान हो जाएँगे, कपोत जैसे शुद्ध, और सर्प जैसे विद्वान हो जाएँगे – वे बिना संघर्ष के सभी बाह्य बाधाओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे, और दुनिया पुनर्निमित हो जाएगी.

मतलब, आत्म सम्पूर्णता और जीवन की सभी परिस्थितियों में प्यार – ये है टॉल्स्टॉय की नई धार्मिक शिक्षा.

इस नई विचारधारा के तहत परिवार से भाग जाने में - जो टॉल्स्टॉय की मर्ज़ी के अनुसार नहीं जी रहा था कोई मतलब नहीं रह गया था.

इसके विपरीत, ये एक इम्तेहान था, जो ख़ुदा ले रहा था. और परिवार में उसकी स्थिति जितनी ज़्यादा कठिन होती गई, समृद्धि और सुखों के बीच एक पाखण्डी जीवन के जितने अधिक आरोप उस पर बाहर से लगते रहे – उतनी ही ज़्यादा सामग्री उसे ख़ुद के लिए प्राप्त होती रहती, जिससे समझौता कर सके, क्षमा कर सके और प्यार कर सके.

बाद में, उसने अपनी डायरी में लिखा : “अगर मैं अपने बारे में बाहर से सुनता, - उस आदमी के बारे में, जो ऐशो-आराम में जीता है, जो संभव है वह सब किसानों से छीन लेता है, उन्हें जेल में भेज देता है, और स्वीकार करता है, और क्रिश्चियन धर्म की शिक्षा देता है और पांच-पांच कोपेक बांटता है, और अपने सभी नीच कर्मों के लिए स्नेहपूर्ण बीबी के पीछे छुप जाता है, - तो मैं उसे कमीना कहने में संकोच नहीं करता! और इसीकी तो मुझे ज़रूरत है, जिससे मैं लोकप्रियता से मुक्त हो जाऊँ और आत्मा के लिए जी सकूँ...” (2 जुन 1908 की प्रविष्टि).

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