4
“आत्मसम्पूर्णता”!... उसकी युवावस्था की गंभीर
संकल्पना, जिसका “स्वीकृति” में इतना गंभीर विश्लेषण किया गया
था. ये सच है,
कि अब वह आत्मसम्पूर्णता
के बारे में एक निश्चित दिशा में कहता और सोचता था. मगर जीवन की क्रिश्चियन
संकल्पना ने उसके सामने दार्शनिक चिंतन के लिए विशाल क्षेत्र खोल दिया था. बचपन
में वह पागलपन की हद तक चिंतन करता था,
और अब, बुढ़ापे में, उसके
तर्क की बारीकियों ने आत्मसम्पूर्णता की पुरानी संकल्पना को आश्चर्यजनक सामग्री से
भर दिया था.
प्यार करना...हाँ, बेशक!
मगर किसे और कैसे प्यार करना चाहिए?
क्या सीधे मानवता से, मानव जाति से प्यार करना चाहिए? या ये सिर्फ ख़ुदा के माध्यम से ही, अपने अस्तित्व के भीतर के ख़ुदा के अंश से प्यार महसूस
करने के बाद ही संभव है?
और, क्या दिल में ख़ुदाई प्यार व्याप्त होने पर भी
व्यक्तिगत आकर्षणों को बरकरार रखा जा सकता है? और, क्या दुश्मनों से भी प्यार करना चाहिए या पहले उन्हें
दोस्त बनाना चाहिए,
और तभी उनसे प्यार करना
चाहिए?... वह लिखता है : “आप कहते हैं कि हिरोद से प्यार नहीं
करना चाहिए. नहीं जानता,
मगर इतना जानता हूँ, और आप भी जानते हैं, कि
उससे प्यार करना चाहिए;
जानता हूँ, और आप भी जानते हैं, कि अगर
मैं उससे प्यार नहीं करूँगा,
तो मुझे दुख है, कि मुझमें जीवन नहीं है, और
इसलिए काम करने की कोशिश करना और काम करना चाहिए. मैं ऐसे मनुष्य के रूप में स्वयम् की कल्पना करता हूँ, जिसने उन लोगों के प्यार में सारी ज़िंदगी गुज़ार दी, जो उससे प्यार करते हैं, मगर हिरोद
से प्यार नहीं किया,
और दूसरे, जिसने पूरी शिद्दत से हिरोद से प्यार किया, मगर उससे प्यार करने वालों के प्रति उदासीन रहा और 20
साल प्यार नहीं किया,
मगर इक्कीसवें साल में
हिरोद से प्यार कर बैठा और हिरोद को अपने आप से और दूसरे लोगों से प्यार करने पर
मजबूर किया, - पता नहीं,
इनमें से कौन बेहतर
है...”
“भेजने
वाले की इच्छा” पूरी करने के
क्षेत्र में भी,
बेशक, अनगिनत प्रश्न हैं. और यहाँ भी टॉल्स्टॉय, उदाहरण के लिए, ऐसे
तर्कों तक पहुँचता है:
“प्रसन्नता के क्षणों में ऐसा लगता है, कि स्वयम् से प्यार करने में ही सब कुछ है, जिसके लिए सभी प्रलोभनों को दूर हटाना होगा. मगर
प्रलोभन हटाते हो,
और प्यार प्रगट होगा, वह कार्य की मांग करेगा, क्या
ये पूरी दुनिया के लिए ज्ञानोदय होगा या मकड़ी को पालतू और कोमल बनाना होगा. फिर भी, ये महत्वपूर्ण है”.
सौभाग्य से, प्यार
की इस गुत्थी ने,
जो उसे मायावी-भाग्य ने
प्रदान की थी,
उसे शिक्षा की इन सब
तर्कात्मक बारीकियों से होकर – सीधे पीड़ित मानवता की मदद के लिए ले जाने में बड़ा
योगदान दिया. .
सन् 1891 की गर्मियों में यास्नाया पल्याना में
टॉल्स्टॉय दम्पत्ति का पुराना परिचित – रिज़ान प्रांत का ज़मींदार, राएव्स्की आया. मध्य रूस में अकाल फैला था, और राएव्स्की किसी और बारे में बात ही नहीं कर रहा था.
उन दिनों काउन्टेस अलेक्सान्द्रा टॉल्स्टाया (“दादी”) यास्नाया आई हुई थीं और वह
याद करती है,
कि टॉल्स्टॉय कैसी
चिड़चिड़ाहट से इन बातों को सुन रहा था. वह मेहमान के हर शब्द का विरोध कर रहा था और
बुदबुदा रहा था,
कि ये सब भयानक बकवास है
और ये कि अगर अकाल पड़ा है,
तो सिर्फ ख़ुदा की मर्ज़ी
के सामने सिर झुकाना चाहिए. राएव्स्की,
उसकी बात न सुनते हुए, अपनी आशंकाओं के बारे में बता रहा था, “और ल्येव अपनी ही बेसिर पैर की बुदबुदा रहा था, जिसका सुनने वालों पर बेहद अजीब असर हो रहा था”.
सितम्बर में टॉल्स्टॉय के पास जाना-माना लेखक लेस्कोव
आया, ये विनती लेकर कि अकाल को देखते हुए क्या किया जाए.
टॉल्स्टॉय ने जवाब दिया,
कि वह चन्दा इकट्ठा करने
में और भूखे लोगों की मदद करने में सहयोग करने के विरुद्ध है. उसे ऐसा लगता था, कि अच्छा काम ये नहीं है, कि
अकाल के समय लोगों को रोटी दी जाए,
बल्कि ये है कि भूखे और
खाये-पिये लोगों से प्यार किया जाए.
भयानक वास्तविकता के सामने ये सिद्धांत टिक नहीं पाए.
अकालग्रस्त लोगों के प्रांतों में दो बार जाने के बाद, टॉल्स्टॉय
ने अकस्मात् सोफ्या अन्द्रेयेव्ना से 500 रूबल्स लिए और दो बेटियों के साथ रिज़ान
प्रांत की ओर चल पड़ा,
उसी राएव्स्की के पास, जिसकी अकाल से संबंधित कहानियों को उसने गर्मियों में
इतने पूर्वाग्रह से सुना था. राएव्स्की का काम शुरू हो चुका था : बच्चों और बूढ़ों
के लिए भोजनालय शुरू हो चुके थे,
चंदा प्राप्त हो रहा था.
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने अख़बार में अकालग्रस्त लोगों की मदद के लिए अपील दी. पूरे
रूस से और विदेशों से (ख़ासकर इंग्लैण्ड से) टॉल्स्टॉय के पास धनराशि, वस्तुएँ और मदद का इंतज़ाम करने के लिए लोग इकट्ठे होने
लगे. रिपोर्ट्स के रूप में टॉल्स्टॉय ने कई शानदार लेख लिखे, जिनका उपयोग उसने अपने प्रिय विचारों का प्रचार करने
के लिए किया. इनमें से कुछ लेख सिर्फ विदेशों में ही प्रकाशित हो सके.
उसके अत्याधिक घनिष्ठ लोगों को, जो उसके साथ काम कर रहे थे, सन्देह
होता और उसकी असंगतितों पर वे बुरा मान जाते थे.
“जो कुछ भी उसने वित्तीय सहायता के बारे में कहा था, उसके बाद,
चंदे के पैसे लेना और इन
लोगों से चुराए हुए धन से नंगे-भूखे लोगों की मदद करना!...
उस पर अनुयायी टॉल्स्टॉयवादियों के आरोपों की बौछार होने
लगी. वह ख़ुद भी,
निरंतर, स्वयम् को और अपने काम को कोसता था...
मगर इस बीच, दो
कड़ाके की शीत ऋतुओं के दौरान,
बड़ी व्यवहार-कुशलता से
उसने चार काउन्टियों की आबादी को भूख से मरने से बचाया. भोजनालयों की संख्या 246
तक पहँच गई. इनमें 13,000 बड़े और 3000 बच्चे खाना खाते थे. वह दिन में दो
बार खाना खिलाता था और प्रति व्यक्ति पर हर महीने 95 कोपेक से 1 रूबल 30 कोपेक तक
खर्च करता था. इस लम्बी-चौड़ी व्यवस्था से ख़ुश नहीं था. कडाके की सर्दियों में, जब आम तौर से इस्तेमाल होने वाले ईंधन – घास फूस, के अभाव में लोग ठण्ड के कारण जम रहे थे, उसने अत्यंत ग़रीब लोगों तक जलाऊ लकडियाँ पहुँचाने की
व्यवस्था की. उसने किसानों से सैंकड़ों घोड़े लिए, जिन्हें
चारा न खिलाने के कारण मरने के लिए छोड़ दिया गया था, और
उनकी ख़ुराक की व्ययस्था की. उसने भारी मात्रा में पटसन और पेडों की छालों का
इंतज़ाम किया और उन्हें जूते और कैनव्हास बनाने के लिए लोगों में बांटा. उसने
दूध-पीते शिशुओं के लिए दुग्ध-भोजनालयों का इंतज़ाम किया. बसन्त में उसने ज़रूरतमंद
किसानों को बीज बोने के लिए जई,
आलू, सन,
बाजरा दिये. खेती के काम
के आरंभ में उसने घोड़े ख़रीदे और उन्हें वितरित किया. उन लोगों को, जो अभी पूरी तरह कंगाल नहीं हुए थे, उसने कम कीमत पर उन्हें रई (एक प्रकार का अनाज-
अनु.) , आटा,
डबल रोटी बेचा....
ज़ोरशोर से चल रहे इस कार्यक्रम ने रूसी समाज में हलचल
मचा दी. रूस में कई स्थानों पर टॉल्स्टॉय की तर्ज़ पर भोजनालय खुल गए. आगामी सभी अकालों
में टॉल्स्टॉय का उदाहरण,
ज़रूरतमन्दों की पहचान
करने के उसके साधन,
सहायता करने की उसकी
व्यावहारिक विधियाँ एक मिसाल बन गए.
शताब्दी के अंत में टॉल्स्टॉय को फिर से असंगत आचरण
करना पड़ा. इस बार मामला था ‘दुखोबोरों’
(आध्यात्मिक-सेनानी, रूस का एक धार्मिक सम्प्रदाय – अनु.) को आर्थिक सहायता देने का. ये सम्प्रदाय, जो
अपनी शिक्षा में टॉल्स्टॉय के दृष्टिकोण के समीप था, रूसी
शासन के क्रूर उत्पीड़न का शिकार था.
टॉल्स्टॉय ने ‘दुखोबोरों’ के भाग्य का फ़ैसला करने में बढ़ चढ़ कर भाग लिया. जब, कई उलझन भरे प्रयत्नों के बाद, आठ हज़ार ‘दुखोबोरों’
को त्सार द्वारा देश से
बाहर जाने की अनुमति दी गई,
तो टॉल्स्टॉय ने उनके
किराए के लिए चंदा जमा करने के काम का आयोजन किया. उसने अपने उपन्यास “पुनरुत्थान”
(Resurrection) को पूरा किया, उसमें
सुधार किए और रूस में और विदेशों में पहली आवृत्ति बेची, जिससे ‘दुखोबोरों’
के फण्ड में वृद्धि हो.
इन असहनीय “अपराधों” के लिए वफ़ादार टॉल्स्टॉयवादियों
की ओर से उस पर फिर से हमलों की बौछार होने लगी. उनमें से एक को उसने जवाब दिया:
“जो कुछ भी आप मुझे लिख रहे हैं, बिल्कुल सही है, और मैं
ख़ुद भी हमेशा इसी तरह से न सिर्फ सोचता था और सोचता हूँ, बल्कि हमेशा यही महसूस करता था और महसूस करता हूँ, कि लोगों के लिए भौतिक सहायता मांगना अच्छा नहीं है और
लज्जाजनक है. आप पूछते हैं,
कि फिर मैं क्यों इस
अपील से जुड़ा,
जिस पर चेर्त्कोव, बिर्यूकव और त्रेगूबव ने दस्तख़त किए हैं? मैं इसके ख़िलाफ़ था, उसी
तरह, जैसे अकाल पीड़ितों की उस रूप में सहायता करने के ख़िलाफ़
था, जिस तरह हमने की, मगर जब
आपसे कहते हैं : बच्चे हैं,
बूढ़े हैं, निर्बल,
गर्भवती, शिशुओं को स्तनपान कराने वाली औरतें हैं, जो ज़रूरत के कारण पीड़ित हैं, और आप इस अपने शब्द से या काम से इस ज़रूरत को पूरा कर
सकते हैं, आप ये शब्द कहिए और ये कार्य कीजिए. राज़ी होने का मतलब
है, अपने विश्वास का
खण्डन करना, उस बारे में, कि
वास्तविक मदद,
हमेशा हरेक के लिए सही, वो है,
कि अपने जीवन को पाप से
मुक्त करें और अपने लिए नहीं,
बल्कि ख़ुदा के लिए जिएँ, और ये,
कि औरों के, दूसरों के कष्ट से छीनी गई हर तरह की मदद धोखा है, पाखण्ड है और पाखण्ड को बढ़ावा देने वाली है ; राज़ी न होना – मतलब शब्द और काम से इनकार करना, जो इस समय ज़रूरत की पीड़ा को हलका कर सकता है. अपने
चरित्र की दुर्बलता के कारण मैं हमेशा दूसरा ही मार्ग चुनता हूँ, और हमेशा ये मेरे लिए पीड़ाजनक रहा है”.
सन् 1885 में ही टॉल्स्टॉय ने उससे मिलने आए हुए लेखक
से कहा था : “लाखों पढ़े-लिखे रूसी हमारे सामने खड़े हैं, भूखे
पंछियों की तरह मुँह खोले और हमसे कहते हैं : महाशय, प्यारे
लेखकों, हमारे मुँह में आपके और हमारे लिए अनुकूल बौद्धिक
खाद्य डालिए : हमारे लिए लिखिए,
जो जीवन्त, साहित्यिक शब्द के प्यासे हैं, हमें बाज़ारू खाद्य से बचाइये. सरल और ईमानदार रूसी
जनता इस योग्य है,
कि हम उसके आह्वान का
जवाब भली और सच्ची रूह से दें. मैंने इस बारे में बहुत सोचा और फ़ैसला किया, कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस क्षेत्र में कोशिश
करूँगा”.
इस तरह शानदार लोक कथाओं और कहानियों की एक पूरी
श्रृंखला का जन्म हुआ,
जिन्हें टॉल्स्टॉय ने
लिखा था. उसने उन्हें हर जगह से लिया था : घुमक्कड बंजारों की कहानियों से, लोक कथाकारों के गायन से, जो
उससे मिलने आते थे,
संतों के जीवन चरित्रों
के पठन से. ये सीधी-सादी कहानियाँ
अपने संयमित प्रभाव, संक्षिप्तता, सरलता और कलात्मक सौंदर्य की दृष्टि से शानदार हैं.
वास्तविक लोक साहित्य के नमूनों के निर्माण से
टॉल्स्टॉय संतुष्ट नहीं था. वह चाहता था, कि
किसी भी कीमत पर एक विस्तृत धारा के रूप में वे किसानों की घनी बस्तियों में
प्रवेश करे. उस समय ये किताब फेरी वालों, छोटे-मोटे
दुकानदारों द्वारा बेची जाती थी, जो तस्वीरों वाले बक्सों में अपने अन्य माल के साथ उसे
रखकर गाँव-गाँव घूमते और उसे लोगों तक पहुँचाते थे. ऐसा साहित्य इसीलिए “बक्सों”
का साहित्य या “सस्ता” साहित्य कहलाता था. लोक साहित्य की सचित्र किताबों का मूल्य
1, 1 ½ कोपेक हुआ करता था, मगर ज़्यादातर
उनका पाठ हानिकारक बकवास होता था,
जिसे बेहद भद्दे तरीके
से छापा जाता था.
टॉल्स्टॉय सस्ते साहित्य के एक बड़े प्रकाशक पर टूट पड़ा
और उसके सामने प्रस्ताव रखा कि धीरे धीरे अपनी फ़ालतू किताबों के बदले ज़्यादा
सार्थक किताबें बेचे. किताबों का मूल्य और उनके वितरण का तरीका पहले जैसा रहे.
प्रकाशक तैयार हो गया. तब टॉल्स्टॉय के मतानुसार “मध्यवर्ती (एजेन्ट)” नामक फर्म
का निर्माण हुआ. इस काम में सहयोग
देने के लिए प्रमुख साहित्यिक हस्तियों को शामिल किया गया. ख़ुद महान लेखक ने इस
काम के वैचारिक पहलू पर अत्यंत निकटता और उत्साह से काम किया: 10 साल की अवधि में
उसने किताबों को चुनने में प्रमुख भूमिका निभाई, वह
प्राप्त हुई पाण्डुलिपियों के विषय दर्शाता, उनमें
सुधार करता, पुनर्लेखन करता, सम्पादन
करता. सेन्सर की कठोरता को देखते हुए,
उसके शब्दों में, हमेशा तार पर कसरत करनी पड़ती. मगर बड़े साधनों के अभाव
में इस काम को फैलाना मुश्किल था : “ एजेन्ट” को निरंतर आर्थिक सहायता की आवश्यकता
होती थी. और टॉल्स्टॉय दिल खोल कर प्रकाशक को पैसे देता था – अगर सीधे सोना नहीं, तो अपनी रचनाएँ, जिनकी
प्रथम आवृत्ति,
बेशक हमेशा भारी मुनाफ़ा
देती थीं. इस तरह से जनता के बीच बढ़िया छपाई वाली अच्छी किताबों और चित्रों की
लाखों प्रतियाँ प्रकट हुईं.
सैद्धांतिक रूप से आलोचित धन की भूमिका टॉल्स्टॉय के
जीवन में उल्लेखित “अपराधों” से सीमित नहीं हुई. उसके नाटक सम्राट के थियेटर्स में
खेले जाते. प्राप्त धनराशि का ज्ञात प्रतिशत, नियमानुसार, लेखक को दिया जाता था, उसके
हर प्रकार के मानधन को अस्वीकार करने के बावजूद. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने, बेशक,
इस परिस्थिति पर ध्यान
दिया, और टॉल्स्टॉय को हर साल दो-तीन हज़ार रूबल्स प्राप्त हो
जाते थे. ये उसका “जेब खर्च” था,
जिसे वह पूरी तरह गरीबों
की मदद पर खर्च कर देता था,
जिससे उसे सख़्त नफ़रत थी.
काम यहीं तक सीमित नहीं था. टॉल्स्टॉय हमेशा किसी न
किसी के लिए काम करता रहता था. वह बीमारों को अपने ख़तों के साथ शहर में परिचित
डॉक्टरों के पास भेजता. उसके प्रभावशाली परिचित (ख़ासकर वकील) विभिन्न लोगों के लिए
(ज़्यादातर किसान) टॉल्स्टॉय की विनतियों से लदे रहते, जिन्हें
बचाव की ज़रूरत होती थी. उसका ख़ास ध्यान वे लोग आकर्षित करते थे, जो सेना की नौकरी से इनकार के कारण जेलों में सड़ रहे
थे, और हर तरह के सम्प्रदायों के लोग, जिन पर उनके धार्मिक विश्वासों के कारण मुकदमे चलाए
जाते थे. टॉल्स्टॉय किसी भी तरह के कष्ट के आगे हार नहीं मानता था और उसने त्सार
को भी अनेक बार लिखा था.
और इसके साथ ही उन लोगों का भी वह निरंतर स्वागत करता, जिन्हें उसकी सलाह की ज़रूरत होती, और अथक पत्र-व्यवहार करता, जिनमें
एक भी पत्र, जिसमें उसकी राय मांगी जाती थी, बिना जवाब के नहीं छूटता था.
और ये सब लेखकीय काम में रुकावट नहीं बनता था. दस साल
(1890-1899) के दौरान टॉल्स्टॉय ने दसियों लेख लिख डाले, जिनमें से कई तो इतने बड़े थे, जैसे “कला क्या है?” या
“ख़ुदा का साम्राज्य हमारे भीतर है”. कला के बारे में टॉल्स्टॉय के मूल विचार अच्छी
तरह परिचित हैं. जहाँ तक “ख़ुदा के साम्राज्य” का सवाल है, तो आरंभ में ये सिर्फ ज़बर्दस्ती की सैन्य-सेवा के
विरोध में एक लेख था. ये लेख एक बड़ी किताब बन गया, जो
क्रिश्चियन अराजकता के मूलभूत सिद्धांतों को रेखांकित करता था. यहाँ
क्रिश्चियानिटी की उसकी नई समझ का (नब्बे के दशक का) सारांश है और इस आधार पर चर्च
और शासन को नकारा गया है,
जो बलपूर्वक बने हुए हैं, और टॉल्स्टॉय के अनुसार, जिनकी
हमारे ज़माने में कोई ज़रूरत नहीं है.
इसी दौरान टॉल्स्टॉय ने करीब आधा दर्जन साहित्यिक
रचनाएँ लिख डालीं,
जिनमें “पुनरुत्थान”, “फ़ादर सेर्गेइ” “मालिक और नौकरानी” बहुत लोकप्रिय हुईं.
“त्सार हिरोद को प्यार करने” की कोशिशें या “मकड़ी को पालना” सैद्धांतिक रूप से टॉल्स्टॉय को समूची दुनिया
को शिक्षित करने या लोगों की भलाई के लिए किसी अन्य काम से कम महत्वपूर्ण नहीं
लगीं.
व्यवहार में, पूरे
उत्साह से वह निरंतर मरते हुए लोगों की मदद के लिए कूद पड़ता. सौभाग्य से, ये सब करते हुए वह मकड़ियों और हिरोदों के बारे में
नहीं भूलता था,
मगर अक्सर जानबूझ कर
अपने ही सिद्धांतों के विपरीत चला जाता. टॉल्स्टॉयवादियों की संकीर्णता उसके लिए
अपरिचित थी. वह असंगति के भय को नहीं जानता था और “ऑर्थॉडोक्सों” के विरोधों पर
ध्यान नहीं देता था.
नाटक “अंधेरे में रोशनी चमकती है” पूरा नहीं हुआ.
पाँचवे अंक के नोट्स के आधार पर ये कहा जा सकता है, कि
टॉल्स्टॉय ये दिखाना चाहता था,
कि कैसे नव-क्रिश्चियन
शिक्षा की “रोशनी जीवन की वर्तमान व्यावहारिकता पर विजय प्राप्त करेगी. मगर
कथावस्तु के धागों को एक सूत्र में पिरोना संभव नहीं हुआ. नाटक का नायक बिना किसी
प्रसिद्धी के मर जाता है. उसके चारों ओर हर चीज़ नाउम्मीदी से बिखर रही है. मृत्यु
की घड़ी में वह सिर्फ “ख़ुश हो सकता है,
कि चर्च की बेईमानी का
पर्दाफ़ाश हो गया है,
और उसके लिए ज़िंदगी का
मकसद हासिल हो गया है”
टॉल्स्टॉय के वास्तविक जीवन के तत्व बिल्कुल भिन्न थे.
उसकी निरंतर बदलती हुई दार्शनिकता की भूलभुलैया और अंधकार में टॉल्स्टॉय का विशाल
हृदय सदा प्रकाशित रहता था.
और यही रोशनी, लोगों के प्रति उत्साहपूर्ण और सहानुभूतिपूर्ण कार्य की रोशनी प्रकाशित होती रही और आज तक मानव जीवन के अंधेरे को प्रकाशित कर रही है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें