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मगर ये भी नहीं सोचना चाहिए, कि परिवार में टॉल्स्टॉय का अधिकार समाप्त हो गया था.
सब उससे प्यार करते थे. इसके अलावा,
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना, जो बहस और आक्षेपों में अपनी “स्पष्टवादिता” प्रदर्शित
करती थी, ये अच्छी तरह जानती थी, कि डोर
को बहुत ज़्यादा नहीं खींचना चाहिए: क्योंकि टॉल्स्टॉय को खोकर, वह ख़ुद भी और पूरा परिवार भी उस उच्च स्थिति को खो
देंगे, जिस पर उन्हें महान लेखक की विश्वव्यापी प्रसिद्धि ने
चढ़ा दिया था. ख़ुद टॉल्स्टॉय भी अपने आपको सुधारने की बेहद कोशिश करता. वह अच्छी
तरह से अपने स्वभावगत आवेगों को सौम्य बनाने की, समझौता
करने की कोशिश करता. परिवार की जीवन शैली से बोझिल और क्रोधित महसूस करते हुए, अपनी शिक्षा के प्रति विरोध से परेशान, वह ताने देना और टिप्पणियाँ करना नहीं छोड़ता था, मगर उन्हें शांतिपूर्वक और बगैर चिड़चिड़ाहट के प्रगट
करने की कोशिश करता था. मगर फिर भी,
उसकी इच्छा के विपरीत, अप्रसन्नता के लिए पर्याप्त सामग्री एकत्रित होती रहती, और अक्सर अचानक, ख़ुद
उसके लिए भी अप्रत्याशित रूप से,
चरम तीव्रता का विस्फोट
हो ही जाता.
ऐसा हुआ था, उदाहरण
के लिए, साहित्यिक सम्पत्ति को त्यागने के किस्से से.
आध्यात्मिक पुनर्जन्म के बाद टॉल्स्टॉय को अपनी रचनाओं के लिए धन प्राप्त करने में
घुटन का अनुभव होता था. धन के लिए लिखने को वह वेश्यावृत्ति समझता था, इसकी तुलना रिश्वत लेने से करता था...इस बीच सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना के ऊर्जावान हाथों में रचनाओं की बिक्री से अधिकाधिक पैसा आ रहा था.
इसको लेकर भी अंतहीन झगड़े होते थे. मगर सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने पति की राय मानने
से स्पष्ट इनकार कर दिया: उसकी रचनाएँ परिवार की सम्पत्ति थीं; उनके बगैर जीना असंभव था. इस प्रश्न पर, अपने नाटक के नायक सरिन्त्सोव की भांति, बड़ी आसानी से पीछे हटते हुए – टॉल्स्टॉय ने समझौता कर
लिया. उसने कम से कम उन रचनाओं का मुफ़्त में प्रचार करने की कोशिश की, जो सन् 1881 के बाद, मतलब, उसके “आध्यात्मिक पुनर्जन्म” के पश्चात् लिखी गई थीं.
सन् 1891 की जुलाई में निर्णायक बहस हो गई.
शायद,
हमेशा की तरह, ज़ोरदार पारिवारिक झगड़ों की तरह,
काफ़ी कुछ अनावश्यक बातें कह दी गई हों. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने
आत्महत्या करने का फ़ैसला कर लिया. वह घर से रेल की पटरियों की ओर भागी, जिससे ट्रेन के आगे छलांग लगा दे. संयोग से उसे रास्ते में कुज़्मिन्स्की
(उसकी बहन का पति) मिल गया, उसकी हालत और मनोदशा देखकर वह
चौंक गया, उससे सारी बात जानकर, वह उसे
समझा बुझा कर वापस घर लाने में कामयाब हो गया.
टॉल्स्टॉय
ने अपना इरादा स्थगित कर दिया. मगर शीघ्र ही उसने फिर से इस प्रश्न को उठाया. उसने
पत्नी से अख़बारों में उसकी उन रचनाओं की सूची छपवाने के लिए कहा,
जिन्हें अब से हर किसी को प्रकाशित करने की इजाज़त है. उसने उसे अपने
(सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के) नाम से ऐसा करने की सलाह दी. अगर वह ऐसा नहीं चाहती,
तो वह हस्ताक्षर कर देगा. उसने सावधानी से आगे जोड़ा : “अगर ये भी
तुम्हें पसंद नहीं है, तो ये मत करो. मेरी ऐसी कोई ख़ास
ख़्वाहिश नहीं है: ऐसी घोषणा के अच्छे और बुरे, दोनों तरह के
पहलू हैं”. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना लिखती है : “इस प्रस्ताव से मैं तब सहमत नहीं हुई
थी, ये सोचकर कि हमारे इतने बड़े और सामान्य परिवार को पैसों
से वंचित करना अन्याय है”.
सितम्बर
में टॉल्स्टॉय इस विषय पर वापस आया, मगर फिर से कोई
परिणाम नहीं निकला. आख़िरकार, उसने उसे अख़बारों में छपवाने के
लिए एक पूरा पत्र भेजा, जिसका आशय ये था, कि वह सन् 1881 के बाद लिखी गई अपनी सारी रचनाओं के लिए मानधन का त्याग
करता है.
इस
बार ये घोषणा सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को शामिल किये बिना अख़बारों में प्रकाशित हो
गई.
सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना के किसानों से झगड़ों के कारण पति-पत्नी के बीच अक्सर भयानक
वाद-विवाद हो जाते थे. वह पति की जागीरों में उसके अधिकारपत्र के मुताबिक काम-काज
देखती थी. कुछेक किसानों की घुसपैठ से जागीरों की रक्षा करते हुए,
उसे न्यायिक अधिकारियों के पास जाना पड़ता था. वह जड़ी-बूटियाँ चुराने,
पेड़ काटने, चोरी के अपराधों के लिए किसानों को
सताती थी. ज़मीन का स्वामित्व बरकरार रखने और आर्थिक व्यवहार चलाने के लिए ये सब
ज़रूरी था. मगर जब ज़मींदार के नाम से अपराधी किसानों और औरतों को पुलिस घसीट कर जेल
में ले जाती थी, तो टॉल्स्टॉय भयानक स्थिति में पड़ जाता और
ये क्षण उसके लिए अत्यंत पीड़ाजनक होते थे. पत्नी के सामने उसकी दलीलों का बिरले ही
असर होता था. सब महसूस करते थे, कि कम से कम सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना के आर्थिक-व्यवहारों संबंधी आदेशों की औपचारिक ज़िम्मेदारी से
टॉल्स्टॉय को मुक्त कर देना चाहिए. परिवार में जागीर के आधिकारिक बंटवारे के बारे
में बातें होने लगीं.
ख़ुद
टॉल्स्टॉय को भी अब कुछ नहीं चाहिए था. उसने इस तरह से ये सब करने का सुझाव दिया,
जैसे कि वह मर गया हो. वारिसों को सब कुछ उसी तरह आपस में बांट लेना
था, जैसा उसकी मृत्यु होने पर करते. जागीर को दस बराबर
हिस्सों में बांटा गया और उसे चिट्ठियाँ डाल नौ बच्चों और सोफ्या अन्द्रेयेव्ना में
वितरित करना था. औपचारिक दान पर 17 अप्रैल 1891 को हस्ताक्षर किए गए.
पारिवारिक
झगड़ों में टॉल्स्टॉय का अंतिम अस्त्र होता था – भाग जाने की धमकी देना. पत्नी इसके
जवाब में आत्महत्या करने की धमकी देती थी.
पलायन!...मगर
कहाँ और कैसे जा सकता था टॉल्स्टॉय? बेनाम आवारा बन
जाता? इसके लिए उसके भीतर उतना भी उत्साह नहीं था, जितना गॉस्पेल के सत्य को खोजने के आरंभिक क्षणों में था. वह स्वाभिमानी
था. वह गर्वीला था. जब तीसरे दर्जे में कण्डक्टर ने कपडों की वजह से उसे कोई किसान
समझ कर पीठ पर धक्का दिया था, या जब पीटरबुर्ग में कुलीन
परिचितों के दरवाज़ों से नौकर उसे भगा देते
थे, तब ख़ामोश रहना उसे अच्छा लगता था. ये शायद दिलचस्प भी
लगता होगा. क्योंकि जैसे ही वो अपना नाम बताता, इस दुनिया के
शक्तिशाली लोग भागते हुए सीढ़ियों पर आ जाते और समझ ही न पाते कि अपने आगमन से
उन्हें ख़ुशनसीब बनाने वाले “बूढ़े किसान” का स्वागत-सम्मान कैसे किया जाए. अपने
“रिश्तेदारों को याद न रखने वाले” इस आवारा को ख़तरा था जेलों का, अपराधियों के साथ निर्वासित कर दिये जाने का, अंतहीन
अपमानों का. ये सब सिर्फ कल्पना में, लोककथा में ही बढ़िया
प्रतीत होता था : यूँ ही नहीं उसकी कलात्मक प्रवृत्ति ने उसे सम्राट अलेक्सान्द्र I
के एक आवारा और बूढ़े फ्योदर कुज़्मिच में परिवर्तित होने की अधूरी
कहानी को पूरी करने की इजाज़त दी.
नब्बे
के दशक में टॉल्स्टॉय ने एक उल्लेखनीय कहानी “फ़ादर सेर्जियस” लिखी. उसके नायक को
असाधारण प्रसिद्धि प्राप्त हुई. पूरे रूस से उसके पास आध्यात्मिक सहायता और
सांत्वना के लिए उमड़ती हुई भीड़ आती थी. किन्हीं जटिल कारणों से,
जिनमें टॉल्स्टॉय के बहुत सारे अनुभव हैं, फ़ादर
सेर्जियस इस लोकप्रियता से भाग जाने का सपना देखता है. इस काम के लिए उसके मठ में
किसान की एक पोषाक भी टंगी हुई थी. मगर वह नहीं भागा. सिर्फ गहरा पतन ही (लगभग
अपराध) उसे ज़बर्दस्ती पुरानी ज़िंदगी से जुदा कर देता है. “और अंधेरे में रोशनी
चमकती है” नाटक में सरिन्त्सोव भी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से दूर भागने की सामर्थ्य न जुटा
पाया.
ख़ुद
टॉल्स्टॉय को भी, गर्व और लोकप्रियता से प्यार के
अलावा, कुछ अन्य कारण रोके हुए थे.
हर
पैगम्बर की तरह, उसे भी लोगों को पढ़ाने की अदम्य
इच्छा होती थी. अपनी “स्वीकारोक्ति” में इस “हवस” से संबंधित कई उपहासात्मक वाक्य
बिखरे हुए हैं. मगर आध्यात्मिक पुनर्जन्म के बाद शिक्षा देने का जुनून और भी बढ़
गया. चापलूस दोस्त ये यकीन दिलाते, कि टॉल्स्टॉय के मुख से
ख़ुदा ही बोलता है. महान लेखक की प्रचण्ड आध्यात्मिक शक्ति बाहर आने के लिए बेकरार
थी, और वह ख़ुद भी शिद्दत से चाहता था, कि
जीवनकाल में लोगों से वो सब कह दे, जो सोचता और महसूस करता
था. बेनाम आवारा लोगों की भीड़ में खोकर उसे अपने पैगम्बर के कर्तव्यों से वंचित
होना पड़ता. वह सिर्फ अत्यंत सीमित दायरे में कुछ गिने-चुने लोगों को ही प्रभावित
कर सकता था.
रोज़मर्रा
की ज़िंदगी ने उसे कस कर पकड़ रखा था. और इन सब धागों को तोड़कर,
यदि सत्तर साल का बूढ़ा एक बेनाम आवारा बन जाता, तो बड़े आश्चर्य की बात होती.
“किसी
और तरह से निकल जाऊँ?...अपना नाम, लेखकत्व, स्थिति बनाये रखते हुए? मगर इस तरह के समझौते में महान और ईमानदार लेखक अपने और अपने परिवार के
लिए लाखों दर्द और अनगिनत झूठे आरोपों की संभावना को महसूस कर रहा था.
वह
छोटे समझौते की ओर मुड़ा और “एक अमीर घराने में ख़ुशामदी टट्टू की तरह” (उसके अपने
शब्दों में) रुक गया.
मगर
उसे पीड़ा होती रही. उसकी डायरी से कुछ अंश इस प्रकार हैं:
“दुखद,
घिनौना. मेरे चारों ओर की ज़िंदगी में हर चीज़ मुझे दूर धकेल रही है.
कभी उदासी और पीड़ा से निजात पाता हूँ, कभी फिर उसमें घिर
जाता हूँ...”
“मेरी
स्थिति में मुख्य प्रलोभन ये है, कि शानो-शौकत की
असामान्य परिस्थिति में गुज़र रही ज़िंदगी, जिसकी पहले इसलिए
इजाज़त दी गई थी, कि प्यार बर्बाद न हो जाए, बाद में अपने प्रलोभन से दबोच लेती है, और ये नहीं
जानते, कि क्या तुम प्यार बर्बाद होने के डर से जी रहे हो,
या प्रलोभन के वश होकर?”
“मैं
जी रहा हूँ, अपने सभी बच्चों के साथ गंदी,
नीच ज़िंदगी जी रहा हूँ, जिसका ये कहकर झूठमूठ
समर्थन करता हूँ, कि मैं प्यार को बर्बाद नहीं कर सकता.
बलिदान के स्थान पर, विजयी होने का उदाहरण प्रस्तुत करने के
बदले, नीच, छल-कपट भरी ज़िंदगी जी रहा
हूँ, क्राइस्ट की शिक्षा से दूर धकेलती हुई”.
“प्रार्थना
करता रहा, ताकि वह मुझे इस जीवन से
छुटकारा दे. और बार-बार प्रार्थना करता हूँ, दर्द से चीख़ता
हूँ. उलझ गया हूँ, अटक गया हूँ, ख़ुद
नहीं कर सकता, मगर अपने आप से – अपनी ज़िंदगी से नफ़रत करता
हूँ”.
वो
दर्द, जिसके कारण वह “चीखा” था, चाहे जो भी हो, कभी कभी उसे मजबूर करता था, कि घर छोड़ने के लिए तैयार हो जाए. स्त्रोतों में इस तरह की दो कोशिशों के
प्रमाण मिलते हैं. हो सकता है, उनकी संख्या ज़्यादा भी हो.
8
जुलाई 1897 को टॉल्स्टॉय ने पत्नी को पत्र लिखा, जिसमें घर
छोड़ने के अपने फ़ैसले के बारे में सूचित किया था. “इस निर्णय पर अमल करना ही है”.
उसने पत्नी को 35 साल के सहजीवन के लिए धन्यवाद दिया और विनती की, कि “उसे ख़ुशी-ख़ुशी जाने दे, उसे ढूँढ़े नहीं, उसके बारे में शिकायत न करे, उसे दोष न दे”. वह इस
तरह की ज़िंदगी जीना जारी नहीं रख सकता, जैसी पिछले 16 सालों
से जी रहा था, कभी संघर्ष करते हुए और परिवार को परेशान करते
हुए, “कभी ख़ुद ही उन प्रलोभनों का शिकार होकर, जिनकी उसे आदत हो गई है, और जिन्होंने उसे घेर रखा
है...” ख़ास बात ये है, कि सत्तरवें साल में प्रवेश करते हुए,
वह, किसी बूढ़े भारतीय की तरह एकान्त में जाना
चाहता है, “जंगल में”, जिससे “अपने
जीवन के अंतिम साल ख़ुदा को समर्पित कर सके...”.
मगर
टॉल्स्टॉय गया नहीं, और ये पत्र सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना को नहीं दिया गया : उसने इन पंक्तियों को उसकी मृत्यु के बाद ही
पढ़ा.
एक
साल बाद उसने दुबारा जाने की कोशिश की और इसके लिए फिनलैण्ड के एक लेखक-अनुयायी की
मदद ली, जिसे पहले कभी नहीं देखा था.
मगर अब, नब्बे के दशक में, वह अपने प्रयाण को जीत नहीं, बल्कि अक्षम्य दौर्बल्य समझने के लिए तैयार था. अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों में टॉल्स्टॉय एक नये चरण में प्रवेश कर रहा था, या, जैसा उसके अच्छे जीवनीकार कहते हैं, एक नई, “धार्मिक-आंतरिक उन्नति की नई सीढ़ी” चढ़ गया था.
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