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सन् 1886 की गर्मियों में
टॉल्स्टॉय गाड़ी में घास ला रहा था. गाड़ी की चौखट से उसका पाँव टकरा गया,
मगर उसने घाव की ओर ध्यान नहीं दिया और कुछ दिनों तक काम करता रहा.
ज़ख़्म से पीप आने लगा, तेज़ बुखार हो गया. टॉल्स्टॉय बिस्तर पर
पड़ गया. डॉक्टर ने परि-अस्थिका की सूजन का
निदान किया. खून के संक्रमण का डर था. बीमारी ने ल्येव निकोलायेविच को लम्बे समय
तक बिस्तर में रहने पर मजबूर किया. अक्टूबर में अलेक्सान्द्र स्तखोविच आया. राजमहल
में ऊँचे ओहदे वाले इस अमीर और उच्च कुलीन आदमी में थियेटर के प्रति अनोखा प्यार
था और असाधारण कलात्मक प्रतिभा थी. वह बहुत बढ़िया तरीके से वाचन करता था. मरीज़ का
दिल बहलाने के लिए, स्तखोविच ने उसे अस्त्रोव्स्की के नाटक
और प्रहसन पढ़कर सुनाए. तीन सप्ताह बाद, अपनी जागीर से पीटरबुर्ग
लौटते समय, वह फिर से यास्नाया पल्याना आया. टॉल्स्टॉय ठीक
हो रहा था, बैसाखियों पर चलता था और हॉल में आराम कुर्सी पर
लेटता था.
“मुझे कितनी ख़ुशी हो रही
है, कि आप आये!” उसने मेहमान से कहा. “आपके वाचन ने
मुझमें जोश भर दिया. आपके जाने के बाद मैंने नाटक लिखा है.”
ये था “अंधेरे का
साम्राज्य”. पिछले कुछ वर्षों में लोगों से संवाद करते हुए टॉल्स्टॉय ने उनकी
मानसिकता, प्रकार, भाषा
को आत्मसात् कर लिया था. काफ़ी कुछ उसने डायरियों में लिख लिया. इस बीच उसके मित्र,
दवीदव ने, जो तूला जिला न्यायालय में अभियोग
पक्ष का वकील था, साल भर पहले भ्रूण-हत्या के एक मामले के
बारे में बताया था; अपराधी ने – जो किसान था – सार्वजनिक रूप
से पश्चात्ताप किया था.
टॉल्स्टॉय ने न केवल
विस्तार से ये कहानी लिखी, बल्कि वह दो बार
तूला के कारागार में जाकर अपराधी से मिला भी था. अब, बिस्तर
में पड़े-पड़े, उसने महसूस किया, कि इस
लोक-नाटक के पात्र उसकी कल्पना में भूमिकाएँ निभा रहे हैं. मज़ाक-मजाक में, उसने काम शुरू कर दिया. लिखने में मुश्किल हो रही थी. ज़्यादातर वह
डिक्टेशन देता था. अब शांत हो चुकी सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ख़ुशी-खुशी लिखती. काफी
समय से उसने पति के काम में भाग नहीं लिया था : उसके धार्मिक लेखों का पुनर्लेखन
करने से उसने इनकार कर दिया था, ये कहकर कि “रिटायर हो रही
हूँ”. अब वह ख़ुशी से उसका डिक्टेशन लेती और पहले की तरह रात में उसका पुनर्लेखन
करती. उसने अपनी डायरी में लिखा भी था:
“ल्येव निकोलायेविच पर ध्यान
दूँगी, उसके बारे में सावधान रहूँगी, जिससे अपने प्रिय काम के लिए उसकी हिफ़ाज़त कर सकूँ.”
ढाई हफ़्ते बाद नाटक तैयार
हो गया. उसे फिर से लिखा गया, और शाम को
स्तखोविच ने आमंत्रित किसानों के सामने उसे पढ़ा. करीब चालीस लोग थे. वे चुपचाप सुन
रहे थे. सिर्फ टॉल्स्टॉय परिवार का सेवक ही ठहाके लगाकर अपनी ख़ुशी प्रकट कर रहा
था.
वाचन ख़त्म हुआ. ल्येव
निकोलायेविच ने एक बुज़ुर्ग किसान, अपने प्रिय शिष्य
से पूछा, कि नाटक उसे कैसा लगा?
“तुमसे कैसे
कहूँ, ल्येव निकोलायेविच,” उसने जवाब
दिया. “मिकिता पहले तो चतुराई से खेलता रहा...मगर बाद में गड़बड़ कर गया...”
इस ख़तरनाक जवाब ने
टॉल्स्टॉय को गहन निराशा के गर्त में धकेल दिया. तभी वह समझा कि साहित्यिक रचना से
जो मूलभूत अपेक्षाएँ होती हैं, उनमें सबसे
महत्वपूर्ण है – लोगों तक उनकी पहुँच हो, और वह लोगों को समझ
में आए...
सेन्सर द्वारा नाटक पूरी
तरह प्रतिबंधित कर दिया गया – न सिर्फ थियेटर में मंचन के लिए,
बल्कि प्रकाशन के लिए भी.
मगर टॉल्स्टॉय के मित्रों
ने अपने सम्पर्कों का उपयोग करने का फ़ैसला किया. स्तखोविच निरंतर बढ़ती हुई कुशलता से
पीटरबुर्ग में उच्च समाज के शानदार आगंतुक कक्षों में “अंधेरे के साम्राज्य” का
वाचन करता रहा. हर जगह इस वाचन को बेहद सफ़लता मिली. आख़िर 27 जनवरी 1887 को
अलेक्सान्द्र III ने नाटक को सुनने की इच्छा प्रकट
की. उसी स्तखोविच ने काउन्ट्स वरान्त्सोव के महल में, जहाँ
त्सार का पूरा परिवार आया था, नाटक का वाचन किया.
अलेक्सान्द्र III
उस मेज़ के पास आया, जिस पर नाटक पड़ा था,
उसे हाथ में लिया और स्तखोविच से कहा:
“हफ़्ते भर से ये मेरी मेज़
पर पड़ा है. मैं पढ़ ही नहीं पाया; कृपया, कुछ भी छोड़े बिना पढ़िये.”
वाचन शुरू हुआ. त्सार ने बड़ी
लगन से एक विशेष कागज़ पर पात्रों के नाम लिखे. जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता गया,
उसका प्रभाव भी बढ़ता गया.
अंकों के बीच के अंतराल
में मर्द लोग सिगरेट पीने निकल जाते. नाटक के बारे में अटकलें चलती रहीं. मित्रीच
के बारे में त्सार ने कहा:
“सैनिक हमेशा टॉल्स्टॉय की
सभी रचनाओं में आश्चर्यजनक ढंग से अच्छा होता है.”
मित्रीच के अन्यूता के साथ
वाले दृश्य के बाद महान राजकुमार व्लदीमिर अलेक्सान्द्रोविच ने स्तखोविच से कहा:
“सूरज में भी धब्बे होते
हैं, सिर्फ इसी आधार पर मैं स्वयम् को इस दृश्य की बेवफ़ाई
की ओर इशारा करने की इजाज़त देता हूँ. औरतों के बारे में मित्रीच के सारे तर्क जायज़
हैं, मगर उन्हें निकोलाएव का सैनिक नहीं, बल्कि स्वयम् काउन्ट टॉल्स्टॉय कह रहा है. ये किसी वृद्धा की किसान कन्या
से बातचीत नहीं, बल्कि लम्बे-लम्बे दार्शनिक मोनोलॉग्स
(एकालाप) हैं.
त्सार निकट आया.
“तुम सही नहीं हो,”
उसने भाई से कहा. “मित्रीच के सारे तर्क लेखक द्वारा सैनिक के मुँह
में डाले गए एकालाप नहीं हैं, बल्कि स्वाभाविक संभाषण है;
अन्नूश्का अनचाहे ही मित्रीच को इस विषय पर ले आई, और इस रात के भयानक प्रभाव में और उस सबके, जो परदे
के पीछे हो रहा है, मित्रीच प्रगट में सोचता है, जैसा औरतों के और उनके दुखद भाग्य के बारे में अपने बोझिल विचार शब्दों के
माध्यम से प्रकट करते हुए अक्सर बूढ़े लोग करते हैं... अपनी दस साल की श्रोता की ओर
ज़रा भी ध्यान दिए बिना.
पाँचवा अंक ख़त्म होने के
बाद त्सार की राय का इंतज़ार करते हुए सब लोग बड़ी देर तक ख़ामोश रहे. आख़िरकार उसकी
आवाज़ सुनाई दी:
“अद्भुत चीज़ है!”
और इन दो शब्दों ने सबकी
ज़ुबान खोल दी. लोग विश्लेषण करने लगे. चारों तरफ़ से उत्साही चीखें “आश्चर्य,
अद्भुत!” सुनाई दे रही थीं...
उच्च समाज में मिली सफ़लताओं
के दबाव में सेन्सर कमिटी को पीछे हटना पड़ा. प्रकाशन के लिए अनुमति दे दी गई.
“अंधेरे का साम्राज्य”
प्रकाशित होते ही तीन दिनों में उसकी 250,000
प्रतियाँ बिक गईं.
मगर जब नाटक को मंच पर
प्रस्तुत किया जाना था, तब टॉल्स्टॉय पर प्रभावशाली
प्रतिक्रियावादी टूट पड़े. त्सार के मित्र, “नागरिक” के
संपादक, राजकुमार मेश्शेर्स्की ने नाटक की “गंदगी” पर थूका.
पबेदानोस्त्सेव ने अत्यंत बुरे पत्र लिखकर त्सार से नाटक पर प्रतिबंध लगाने की
मांग की और प्रार्थना की. पात्र बांटे जा चुके थे और उनकी तैयारी हो चुकी थी,
सजावट और कॉस्ट्यूम्स बन गये थे. मगर अलेक्सान्द्र III ग्रांड रिहर्सल पर आए और अपने चापलूसों के दबाव में आकर...”अद्भुत चीज़” का
प्रदर्शन रोक दिया.
थियेटर में “अंधेरे का
साम्राज्य” सन् 1895 से पहले प्रदर्शित नहीं हुआ.
पति के नए सृजन की असाधारण
सफ़लता ने सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के दिल को छू लिया, भावविभोर
होकर उसने उसे लिखा: “मैं तुम्हें इतना ऊँचा उठाना चाहती हूँ, कि लोग ये महसूस करें, कि तुम तक उड़कर पहुँचने के
लिए उन्हें भी पंखों की ज़रूरत है, कि तुम्हें पढ़ते हुए वे
पिघल जाएँ, कि वो, जो तुम लिखोगे,
वो किसी को भी अपमानित न करे, बल्कि लोगों को
बेहतर बनाए, और ये, कि तुम्हारी रचनाएँ
शाश्वत हों, उनमें लोगों की रुचि सदा बनी रहे”.
ऐसे “रचनात्मकता के
फ़ॉर्मूले” पर टॉल्स्टॉय हँसता था. उसे इतनी बड़ी सफ़लता की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी.
वह सिर्फ स्वांग जैसा, लोक-नाट्य जैसा, लिखना चाहता था:
“अगर मैं जानता,
कि इतना पसंद आएगा,” उसने मज़ाक किया, “तो मैं अच्छा लिखने की कोशिश करता.”
साहित्यिक रचनाओं की ओर पुनरागमन
ने पति-पत्नी को एक दूसरे के निकट आने में काफ़ी सहायता की. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना
असाधारण रूप से नर्म और आज्ञाकारी हो गई. उसके द्वारा प्रकाशित किये जा रहे संकलित
रचनाओं के XIIवें खण्ड के प्रकाशन के समय
टॉल्स्टॉय उन साहित्यिक रचनाओं पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हो गया, जिन्हें उसने शुरू किया था और बीच ही में छोड़ दिया था. इस तरह से अंतिम
स्वरूप में प्रकाशित हुईं : “खोल्स्तोमेर” (जिसका आरंभ साठ के दशक में ही हो चुका
था) और “इवान इल्यिच की मौत”.
सन् 1889 के बसंत के आरंभ
में अपने मित्रों के पास गाँव में विश्राम कर रहे टॉल्स्टॉय ने एक हल्का-फुल्का प्रहसन “चालाकी” लिख डाला. उसकी बड़ी बेटी ने
यास्नाया पल्याना में शौकिया प्रदर्शन के लिए पिता से ये प्रहसन मांग लिया. इस तरह
“मालिकों के उपक्रम” में उलझ गया टॉल्स्टॉय बहता गया और इस अविश्वसनीय गहमा-गहमी
के बीच, जो यास्नाया पल्याना में सन् 1889
के दिसम्बर में हो रही थी, रिहर्सलों के दौरान ही, उसने शीघ्रता से अपनी रूप रेखाओं को अंतिम रूप दे दिया. इस तरह
प्रादुर्भाव हुआ “ज्ञान के फलों” का. इस ‘शो’ को, बेशक, अद्भुत कामयाबी मिली
और इसने जनता को सबसे पसंदीदा रूसी कॉमेडी प्रदान की.
31 मार्च 1888 को
टॉल्स्टॉय की अंतिम, तेरहवीं संतान – बेटे
वानेच्का का जन्म हुआ.
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