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‘हर सर्वमान्य चीज़ का विरोध’, हो सकता है,
ये टॉल्स्टॉय के स्वभाव का सबसे विशिष्ठ गुण था. ये पालने से ही
शुरू हो गया था. टॉल्स्टॉय को अपने शैशव काल की कुछ बातें
याद थीं. वो, छोटे-छोटे दुपट्टों में कस कर लिपटा हुआ,
आधे अंधेरे में लेटा है और ज़ोर से चीख़ रहा है; वो हर हाल में इन दुपट्टों से मुक्त होना चाहता था; उसके
ऊपर दो फ़िक्रमंद चेहरे झुके; वो सहानुभूति दिखा रहे हैं,
मगर उसे खोलते नहीं हैं. “उन्हें लगता है, कि
ये ज़रूरी है (मतलब, मुझे लिपटे ही रहना चाहिए), जबकि मैं जानता हूँ, कि ये ज़रूरी नहीं है, और मैं उन्हें दिखा देना चाहता हूँ, और मैं चीख़-चीख़
कर बेज़ार हो जाता हूँ, जो मुझे भी बहुत बुरी लग रही थी,
मगर उस पर मेरा बस नहीं था...”. “मुझे आज़ादी
चाहिए, मेरी आज़ादी किसी को परेशान नहीं करती, और मैं, जिसे ताकत की ज़रूरत थी, मैं कमज़ोर हूँ, मगर वो ताकतवर हैं”.
दुपट्टों में लिपटा दार्शनिक उन दोनों
प्यार करने वाले बडों की तुलना में बेहतर “जानता है”, कि
दुपट्टों में लपेटने की “ज़रूरत नहीं है” और उसके बस में जितने थे,
सभी तरीकों से विरोध कर रहा है.
टॉल्स्टॉय के बचपन के बारे में उसके
निकटतम व्यक्तियों द्वारा काफ़ी कुछ लिखा गया है. उसकी ज़िंदादिली को, प्यार भरे दिल को,
चरम भावुकता को सभी महसूस करते थे, मगर साथ ही
उसकी निरंतर, अनपेक्षित हरकतों पर भी सबका ध्यान जाता था,
जिनसे बच्चा “बडों को” चकित करना, और कुछ
असाधारण करना चाहता था.
कुछ आगे चलकर उसकी ज़िंदगी में
“पूर्वाग्रहों से संघर्ष” के काफ़ी किस्से दिखाई देते हैं, जिनमें
कभी हास्यास्पद, तो कभी नाटकीय पुट होता था.
जैसे, उदाहरण के लिए,
उनके बड़े भाई, काउण्ट निकोलाय की कहानी,
जिसे फ़ेत ने सन् 1858 में लिपिबद्ध किया था: “लेवच्का तहे दिल से
गाँव के जीवन और अर्थ-व्यवस्था से निकटता स्थापित करना चाहता है, जिसकी, हम सभी के समान, उसे
सिर्फ सतही तौर पर जानकारी है. मगर, पता नहीं, कैसी निकटता स्थापित होगी: लेवच्का हर चीज़ एक ही बार में जानना चाहता है,
कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता, जिम्नास्टिक्स भी.
और उसने अपने ऑफ़िस की खिड़की ने नीचे एक छोटा सा ‘बार’
बनाया है. बेशक, अगर पूर्वाग्रहों को छोड़ दिया
आये, जिनसे वो इतना चिढ़ता है, तो वो
सही है: जिम्नास्टिक्स का अर्थ-व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; मगर मुखिया की राय कुछ और है: “आते हो,” कहता है,
“मालिक से निर्देश लेने के लिए, और मालिक,
एक घुटना खंभे से चिपकाए लाल जैकेट में सिर नीचा करके लटक रहा है और
झूल रहा है, बाल बिखर गए हैं और झूल रहे हैं, चेहरे पर ख़ून उतर आया है, तुम निर्देश लोगे, या अचरज से उसकी ओर देखोगे”...
उसी सन् 1858 की सर्दियों
में वह भालू का शिकार करते हैं. जंगल में शतरंज की तर्ज़ पर शिकारियों को खड़ा करके,
उनसे अपने चारों ओर की बर्फ रौंदने को कहा जाता है, जिससे कि हलचल करने की आज़ादी मिले. ये सब किया जाता है. टॉल्स्टॉय विरोध
करता है: “बकवास! भालू पर गोली चलानी है, उससे युद्ध नहीं
करना है”...और वो ज़िद्दीपन से कमर तक बर्फ में खड़ा हो जाता है, अतिरिक्त बंदूक को बगल वाले पेड़ से टिकाकर रख देता है. अचानक उसके सामने
एक विशाल मादा-भालू प्रकट होती है...वो एक बार गोली चलाता है, निशाना चूक जाता है, दुबारा मुँह पर निशाना साधकर
गोली चलाता है, मगर गोली दाँतों में अटक जाती है, और ज़ख़्मी जानवर उसपर टूट पड़ता है...चारों ओर जमी हुई बर्फ के कारण उछल कर
एक ओर को जाना असंभव था, भालू उसे रौंद रहा है और चबा रहा है,
और सिर्फ संयोगवश ही उसका जीवन बच पाता है.
अपने ही रास्तों पर चलने
की ये गर्वीली इच्छा, सिर्फ अपने ही तर्क पर निर्भर
रहना, किसी भी मामले में जानकार व्यक्तियों और प्रथाओं को
महत्व न देना, जैसे उसे विरासत में मिला था. और उसके
पालन-पोषण में तो अनुशासन का नितांत अभाव था. जन्म के दूसरे ही साल में उसने अपनी
माँ को खो दिया. नौ वर्ष की आयु में पिता भी चल बसे. वो ऐसी महिलाओं के बीच पला,
जो उससे प्यार करती थीं, मगर उत्कृष्ट नहीं
थीं और उसकी नज़र में योग्य नहीं थीं. स्कूल का अनुशासन क्या होता है, ये उसे पता ही नहीं था.
विश्वविद्यालय के लिए
प्रवेश की तैयारी घर में ही हुई: लड़कों के पास शिक्षक आते थे;
आचरण की देखरेख गवर्नेसें करती थीं. विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने
के बाद टॉल्स्टॉय को लेक्चर्स सुनना, टेस्ट्स और परीक्षाएँ
पास करना अनिवार्य था. मगर ये अनिवार्यताएँ भी उससे बर्दाश्त नहीं होती थीं,
और द्वितीय वर्ष से ही उसने हमेशा के लिए विश्वविद्यालय छोड़ दिया.
असल में वो ख़ुद ही स्वयँ को शिक्षा देता था और इसलिए हर चीज़ में सिर्फ ख़ुद पर
भरोसा करना उसकी आदत हो गई थी. अर्थ शास्त्र के प्रति वो उदासीन था और हमेशा उसमें
उसकी प्रगति बेहद बुरी होती थी. मगर बचपन से ही वो काफ़ी पढ़ता थे और उससे भी ज़्यादा
चिंतन करता था. बचपन के और किशोरावस्था के वर्षों में वो काफ़ी लगन से मानवीय
अस्तित्व के मूलभूत प्रश्नों को हल करने का प्रयत्न करता था. सोलह वर्ष की आयु में
उसने अपना धर्म नष्ट कर दिया और “सलीब की जगह गले में झान-झाक रुस्सो की तस्वीर
वाला लॉकेट पहन लिया, जिसके प्रति उसके दिल में बहुत सम्मान
था. छुटपन में ही उसने दार्शनिक ‘ग्रंथ’ लिख डाले थे. और जब उसकी नोट बुक्स बड़े लोगों के या दोस्तों के हाथों में
पड़ जातीं, तो कोई भी इस पर यकीन नहीं करना चाहता था कि ‘लेवच्का’ इन बुद्धिमत्तापूर्ण चीज़ों का लेखक है.
उसका “परेशान दिमाग़” सबसे ज़्यादा नैतिक आत्म-शिक्षा के या,
जैसे वह कहा करता, ”आत्म-परिपूर्णता” के प्रश्नों में उलझा रहता. “अब,
उस समय को याद करते हुए,” बाद में ल्येव
निकोलायेविच ने लिखा, “मैं स्पष्ट देख रहा हूँ, कि मेरा विश्वास – वो, जो नैसर्गिक प्रवृत्तियों के
अलावा, मेरे जीवन को चला रहा था – मेरा एकमात्र वास्तविक
विश्वास उस समय था आत्म-परिपूर्णता का विश्वास. मगर परिपूर्णता किसमें निहित थी और
उसका उद्देश्य क्या था, मैं बता नहीं सकता था. मैंने अपने आप
को बौद्धिक रूप से परिपूर्ण करने की कोशिश की, - जो संभव था,
और ज़िंदगी में जिससे सामना हुआ, वो हर चीज़ मैं
सीखता था; मैं अपनी इच्छा-शक्ति को परिपूर्ण बनाने की कोशिश
करता था, - अपने लिए नियम बनाता, जिनका
पालन करने का प्रयत्न करता; अनेक तरह की कसरतों से अपने आप
को शारीरिक दृष्टि से परिपूर्ण बनाया, शक्ति और लचीलापन
बढ़ाते हुए, और हर तरह की बंदिशें अपने आप पर लादते हुए,
स्वयँ को सहनशीलता और धैर्य की शिक्षा देता रहा. और इस सब को मैं
परिपूर्णता समझता. इस सबका आरंभ हुआ था, ज़ाहिर है, नैतिक परिपूर्णता से, मगर इसका स्थान जल्दी ही सामान्य
परिपूर्णता ने ले लिया, इसका मतलब, न
सिर्फ अपने सामने या ईश्वर के सामने बेहतर होने की इच्छा से था, बल्कि दूसरे लोगों के सामने बेहतर होना था. और बहुत जल्दी ये ‘लोगों के सामने’ बेहतर होने की ख़्वाहिश के स्थान पर
आ गई - ख़्वाहिश दूसरे लोगों से ज़्यादा ताकतवर, मतलब, औरों से ज़्यादा शानदार, ज़्यादा महत्वपूर्ण, अधिक धनवान होने की.”
उदाहरण,
जो उनकी आँखों के सामने थे, हमेशा ही नैतिक
परिपूर्णता के लिए प्रेरित नहीं करते थे. “मुझे,” दूसरी जगह
पर वो लिखते हैं, “ किन्हीं भी नैतिक मूल्यों की प्रेरणा
नहीं मिली, - ज़रा भी नहीं, और मेरे
आसपास बड़े लोग बेझिझक सिगरेट के कश लगाते, शराब पीते,
बहक जाते (ख़ास तौर से बहक जाते), लोगों को
मारते और उनसे श्रम की मांग करते. मैं भी काफ़ी बेवकूफ़ियाँ करता, करने की इच्छा न होते हुए भी, सिर्फ बडों की नकल
करने की ख़ातिर”.
हालांकि,
प्रलोभन केवल आसपास के लोगों से ही नहीं मिलते थे. ऐसे व्यक्तित्व
की कल्पना करना मुश्किल है, जिसमें प्रकृति की आवाज़, व्यक्तिगत सुख की प्यास अधिक मुखर हो. और उतनी ही शिद्दत से वो भलाई की ओर,
नैतिकता की ओर, आत्म-सम्पूर्णता की ओर खिंचता
जा रहा था. इस स्वाभाविक ज़रूरत को पूरे किये बिना टॉल्स्टॉय के लिए व्यक्तिगत सुख
न था, और न हो सकता था. उसके जटिल स्वभाव के दोनों पहलुओं
में (व्यक्तिगत ज़रूरतें – इस शब्द के संकीर्ण अर्थ में और भलाई का ध्यास) हमेशा
संघर्ष होता रहता था. इतने प्रलोभनों ने मुश्किल से ही किसी के मन में इतनी
चिड़चिड़ाहट पैदा की होगी. “भलाई” की राह न केवल उसकी भावुक और शक्तिशाली शारीरिक
प्रकृति ने रोक रखी थी, बल्कि असाधारण रूप से लचीली, विरोधाभासयुक्त बुद्धि ने भी, जो ग़ज़ब की कुशलता से,
हर मौके पर उसके व्यक्तिगत सुख की अनियंत्रित प्रेरणा की सहायता करती
थी. व्यक्तिगत ज़रूरतें उसे अनायास ही ‘भलाई’ के फ़ॉर्मूले में नित नई सामग्री भरने पर मजबूर करती थीं. मगर इसमें
बेईमानी का ज़रा सी भी पुट नहीं है, जिससे उसे दुनिया में
सबसे ज़्यादा नफ़रत थी – अपने और औरों के भीतर.
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