जर्मन संस्करण के लिए प्रतिवेदन
सन् 1908 में, जयंती के अवसर पर टॉल्स्टॉय को मिले अभिनंदनों
में एक अख़बारी कागज़ भी था, एक चित्र सहित: हल्की बर्फ से
ढंके खेत में एक मुसाफ़िर जा रहा है. उसके बदन पर पुराना ,
बेल्ट बांधा हुआ, फौजी कोट है.
सिर पर बुनी हुई टोपी,
मॉनेस्ट्री-टाइप की. कंधों पर लटक रहा था थैला. दाएं हाथ से उसने एक
लम्बी छड़ी का सहारा लिया है. लम्बी सफ़ेद फसल ने चेहरे पर जैसे चौखट बना दी हो.
भव्य माथे पर खुदी हैं “भौगोलिक उथल-पुथल”. लटकती हुई सफेद
भँवों के नीचे से, देखने वाले को चीर देती हैं, तीक्ष्ण आँखें. इस गंभीर मुसाफ़िर में टॉल्स्टॉय को न पहचानना असंभव है,
हालांकि चित्र में वो कोमल भाव, वो
संवेदनशीलता, दयालुता प्यार के वो आँसू नहीं हैं, जिनसे जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में महान लेखक का चेहरा हमेशा दमकता रहता
था.
टॉल्स्टॉय ने बेहद परेशानी
से चित्र की ओर देखा.
“काश,
ल्येव टॉल्स्टॉय सचमुच में ऐसा होता!...” गहरी सांस लेकर उन्होंने
आख़िर कह ही दिया.
मगर अपनी पूरी ज़िंदगी भर
वो ठीक वैसे ही मुसाफ़िर रहे. पूरी ज़िंदगी भावुक एकाग्रता से मानवीय अस्तित्व के
अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्नों पर ग़ौर करते रहे. वो ईमानदारी से उनके उत्तर खोजते रहे
और, एक आसरा पाने पर, कुछ देर
आराम करने के लिए वहाँ रुकते, वो जगह छोड़ देते और फिर से चल
पड़ते, आगे-आगे सत्य की खोज में. सत्य की इस ललचाई खोज उनके
पूरे जीवन को, सभी रचनाओं – साहित्यिक, दार्शनिक, धार्मिक – को जोड़ती है.
‘ओल्ड
टेस्टामेन्ट’ के किसी भविष्यवेत्ता की तरह उन्होंने मानवीय
पूर्वाग्रहों पर, मानवीय मूर्खता पर, मानवीय
पाप कर्मों पर – हमारे समूचे अस्थिर, कठिन, अन्यायपूर्ण जीवन पर प्रहार किया. और इससे उन्होंने पीडित और मानवता की
खोज में रत मानवीय दिलों को मोहित कर लिया. वो एक शानदार कलाकार थे. मगर अनेक
लोगों के लिए उनका महत्व लाजवाब साहित्यिक रचनाओं को पढ़कर होने वाले आनन्द तक ही
सीमित नहीं था. उन्होंने असाधारण दृढ़ता से ऐसे सवाल उठाए, जिनसे
वर्तमान समय में अनेक दिल तड़पते हैं. किसी भविष्यवेत्ता की निडरता से और गहन आवेश
से वे हमारी सभ्यता की उपलब्धियों पर टूट पड़े.
वो पूछते:
“मशीनें,
क्या करने के लिए? टेलिग्राफ़, क्या भेजने के लिए? स्कूल, विश्वविद्यालय,
अकादमियाँ, कौनसी शिक्षा देने के लिए? सभाएँ, किस बात पर बहस करने के लिए? किताबें, अख़बार, किस बात की
जानकारी फैलाने के लिए? रेल्वे, जाने
के लिए – किसे जाना है और कहाँ? एक शासन द्वारा एकत्रित और
शासित किए गए करोडों लोग, इसलिए कि क्या करना चाहिए? अस्पताल, डॉक्टर्स, दवाइयों की
दुकानें इसलिए, कि जीवन को बढ़ाया जाए, मगर
जीवन को आगे किसलिए बढ़ाया जाए?
सामाजिक असमानता की,
घृणा की और संघर्ष की परिस्थितियों में उन्हें इन प्रश्नों के
समाधानकारक उत्तर नहीं मिले.
सिर्फ कुछ ही,
गिने चुने लोगों के लिए संस्कृति, विज्ञान,
कला से उन्हें सख़्त नफ़रत थी और वह उन पर वहशी किस्म के फ़िकरे कसते,
उन्हें बद्दुआएँ देते...
उनके प्रशंसक,
उनके कई जीवनीकार सोचते हैं, कि इन सामाजिक बुराइयों
को उजागर करने से उन्हें जैसे राहत मिलती थी.
ऐसा मुश्किल ही था. बल्कि इसका
विपरीत ही था. इस बात पर विश्वास करने के लिए, उनकी शिक्षा
का विस्तृत वर्णन और आलोचना करने की ज़रूरत नहीं है.
उन्हें अकेला छोड़ना ही पर्याप्त
है. एक प्रकार के निर्णयों से दूसरे प्रकार के निर्णयों पर आते हुए,
वो ख़ुद ही निर्ममता से “वो सब स्वाहा कर देते थे, जिसके पहले कायल थे”. और अस्तापोव में मृत्यु शैया पर पडे हुए ठण्डे पड़ते होठों
से वो फुसफुसा रहे थे: “ढूँढ़ना है, हमेशा तलाश करना है...”
*******
प्रस्तुत पुस्तक में मैं टॉल्स्टॉय
तक पहुँचने की कोशिश करूंगा, प्रार्थना की मुद्रा
में हाथ जोड़े बिना. मेरे लिए वो ऐसे व्यक्ति हैं (ये सही है, कि वे बुद्धिमान व्यक्ति हैं) , जो किसी भी मानवीय चीज़
से अनजान नहीं हैं. अपने विचारों के खण्डन की ज़िम्मेदारी मैं उन्हीं को सौंपता हूँ.
टॉल्स्टॉय के आध्यात्मिक परिवर्तन की अवस्थाएँ (सभी लोगों के समान) उनके व्यक्तिगत
जीवन की परिस्थितियों से जुड़ी हैं. इसीलिए मेरी इस कथा की पार्श्वभूमि मैंने टॉल्स्टॉय
के पारिवारिक जीवन से ली है.
ऊपर से,
इस विषय का – स्वतंत्र रूप से और संभवतः पूर्णता से – अध्ययन कम ही हुआ
है.
इस शोध-कार्य के लिए मैंने
केवल प्रकाशित सामग्री का ही उपयोग नहीं किया है. मैंने टॉल्स्टॉय की अप्रकाशित डायरियों
और उनके बारे में लिखी गई हस्तलिखित पाण्डूलिपियों का भी उपयोग किया है.
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