भीतर.
4
विश्वविद्यालय छोड़कर उन्नीस वर्षीय टॉल्स्टॉय
गाँव चले गए. उन्हें उम्मीद थी कि दो सालों में आसानी से घर बैठकर फ़ाइनल परीक्षा
की तैयारी कर लेंगे. साथ ही अपने गाँव, यास्नाया
पल्याना के किसानों की भलाई के लिए काम करने का विचार भी उन्हें आकर्षित कर रहा
था. यास्नाया पल्याना भाईयों से बंटवारे में लगभग इसी समय उन्हें प्राप्त हुआ था.
उनका विश्वास था, कि उंनकी सीधी और पवित्र ज़िम्मेदारी है उन
सात सौ लोगों के सुख की फ़िक्र करना, जिनके लिए उन्हें ख़ुदा
को जवाब देना होगा.
पता चला कि कृषि दासों के ‘सुखी’ बनाना इतना आसान नहीं था. इस कार्य में अपनी
असफ़लताओं का वर्णन टॉल्स्टॉय ने बाद में “ज़मींदार की सुबह” नामक कहानी में किया
है. उनकी अपनी खेतीबाडी की हालत भी बुरी थी और जल्दी ही वह टॉल्स्टॉय को भारी बोझ
लगने लगी.
सन् 1847 की शरद ऋतु में
ही वो गाँव से भागकर मॉस्को भाग गए और पूरी शिद्दत से मॉस्को की रंगरलियों में डूब
गए. वो तत्कालीन “सुनहरा मुलम्मा चढ़े” नौजवानों की आम ज़िंदगी जी रहे थे : सोसाइटी
में जाते, नृत्य करते, लड़कियों
से मिलते, तलवारों का खेल और जिम्नास्टिक्स में व्यस्त रहते,
घुड़सवारी करते, मदिरापान करते, अक्सर जिप्सीयों के यहाँ जाते, जिनका गाना उन्हें
बहुत अच्छा लगता, ताश खेलते और काफ़ी रकम हार जाते...इस तरह
की ज़िंदगी टॉल्स्टॉय को हमेशा संतुष्ट नहीं कर सकती थी : वो खून पछताते, डायरी में अपने गुनाहों के बारे में लिखते, प्रायश्चित्त
करते, अपने आप को सुधारने के लिए गाँव चले जाते...मगर जल्दी
ही अपने आप को फिर से हवस और प्रलोभनों के चक्र में पाते...कभी कभी वह पक्का इरादा
करते, कि “बुद्धि और दर्शन से जीना संभव नहीं है, बल्कि सकारात्मक जीवन जीना चाहिए, मतलब व्यावहारिक
इन्सान बनना चाहिए”. तब वो तूला के किसी दफ़्तर में नौकरी पकड़ लेते. या
विश्वविद्यालय की अंतिम परीक्षा पास करने पीटरबुर्ग पहुँच जाते. मगर अचानक परीक्षा
छोड़कर कुलीन घुडसवार रेजिमेन्ट में कैडेट के रूप में प्रवेश पाने की कोशिश करने
लगे, जिससे हंगरी के ख़िलाफ़ अभियान पर जा सकें. “हमेशा के
लिए” पीटरबुर्ग में रहने का निश्चय करके, वो अचानक यास्नाया
पल्याना चले गए, क्योंकि बसंत ऋतु उन्हें गाँव की ओर खींच
रही थी. ऐसे ही एक व्यावहारिक इरादे ने उन्हें व्यापार की ओर भी धकेला : उन्होंने
तूला में एक डाक-चौकी ‘किराए’ पर ली,
मगर सौभाग्यवश ज़्यादा नुक्सान उठाए बिना, समय
रहते उससे अलग हो गए. एक बार, बहन के मंगेतर को बिदा करते
हुए, वो उसकी घोड़ा-गाड़ी में कूद गए, मगर
उसके साथ साइबेरिया इसलिए नहीं गए, क्योंकि अपनी टोपी घर पर
भूल आए थे...
ये सभी कारनामे सही-सलामत
समाप्त हो गए हों, ऐसी बात नहीं थी. उनकी छोटी सी
जागीर नष्ट होने लगी; कभी-कभी तो ताशों के ख़तरनाक खेलों में
हार जाने पर चुकाने के लिए कुछ भी नहीं बचता था. अपने भाई सिर्गेइ को लिखे एक
विशेष ख़त में वो लिखते हैं ( 1948 के बसंत में) : “अपनी आज़ादी, और दार्शनिकता के लिए मुझे पैसे देना पड़े (ताकत आज़माने के लिए कोई नहीं था
– ये ख़ास दुर्भाग्य था), तो मैंने पैसे चुकाए. मेहेरबानी करो,
कोशिश करके मुझे इस बनावटी और नीच परिस्थिती से निकालो, जिसमें मैं फिलहाल फँसा हूँ – पास में एक कौडी भी नहीं है और चारों तरफ़
लेनदार हैं”.
उसकी ज़िंदगी का पहला
तूफ़ानी दौर ख़त्म हुआ 20 अप्रैल 1851 को : टॉल्स्टॉय ने अचानक “ख़ुद को कॉकेशस
खदेड़ने का फ़ैसला कर लिया, जिससे कर्ज़ों से,
और ख़ास तौर पर आदतों से भाग सके”. वो बड़े भाई निकोलाय के साथ गये,
जो कॉकेशस में तोपखाने में सेवारत थे, और सन्
1851 के बसंत में छुट्टियाँ ख़तम होने पर अपनी यूनिट में वापस जा रहे थे.
कॉकेशस में ल्येव
निकोलायेविच करीब ढाई साल रुक गए (1851-1854). वहाँ उन्होंने “हमला”, “जंगल की
कटाई”, “यूनिट में मॉस्को के परिचितों से मुलाकात”, “मार्कर की डायरी” - इन कहानियों में अपने जीवन का वर्णन किया और
ख़ास तौर से सत्य के काफ़ी निकट वर्णन है “कज़ाकी” में. वापस आने के डेढ़ साल बाद उन्होंने
तोपखानों में कैडेट के तौर पर प्रवेश लिया, पहाड़वासियों के
विरुद्ध युद्ध में हिस्सा लिया और कई बार बड़े ख़तरों का मुकाबला किया. “आदतें”,
जिनसे पीछा छुड़ाने के लिए वह मॉस्को से भागे थे, उनसे कॉकेशस में भी निजात नहीं मिली: अफ़सरों का गुट मदिरापान और ताश खेलने
पर मजबूर करता था. उत्तेजना ने यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ा, कभी कभी तो वो ताश के खेल में इतनी बड़ी-बड़ी रकम हार जाते, कि उसका जुगाड़ बड़ी कोशिशों से हो पाता था. एक बार, जब
वे तिफ्लिस में रह रहे थे, टॉल्स्टॉय को बिलियर्ड का शौक
चर्राया, उन्होंने किसी भी कीमत पर स्थानीय सुप्रसिद्ध
मार्कर को हराने का फ़ैसला किया, उसके साथ 1000 मैच खेले और
अपनी पूरी जायदाद लगभग हार गए.
जनवरी 1854 में उन्होंने
अफ़सरी की परीक्षा पास कर ली और छुट्टियाँ बिताने अपने गाँव चले गए,
वहीं पर उन्होंने अफ़सर बनने की सरकारी सूचना प्राप्त हुई. तुर्की के
साथ युद्ध शुरू हो रहा था.टॉल्स्टॉय उसे निकट से देखना चाहते थे; अपने पारिवारिक सम्पर्कों का उपयोग करके उन्हें डैन्यूब-आर्मी में
नियुक्ति प्राप्त कर ली और तुर्की किले सिलिस्ट्रा की घेराबंदी में हिस्सा लिया.
जब इंग्लैण्ड और फ्रान्स युद्ध में कूदे, तो टॉल्स्टॉय ने
सेवस्तोपल भेजेने की विनती की, और ख़ास तौर से “देशभक्ति की
ख़ातिर”, जैसा कि उसने अपने भाई को लिखा. सेवस्तोपल में ल्येव
निकोलायेविच करीब साल भर रहे (नवम्बर 1854 – नवम्बर 1855) – कभी शहर की सीमाओं पर,
तो कभी बेहद ख़तरनाक जगहों पर. दो बार से उन्होंने आक्रमणकारी-टुकडियों
में हिस्सा लिया. आमा तौर से, टॉल्स्टॉय एक अच्छे फ़ौजी अफ़सर
थे. उस समय प्राप्त किए गए अनेक “सम्मानों” में “पितृभूमि के हित के लिए फौजी-सेवा
सम्मान” भी था. फौज अफ़सर के रूप में उनका अधिकांश समय स्टाफ़-हेडक्वार्टर में ही
बीता, वे प्रयत्नपूर्वक और भलीभांति प्राप्त हुई आज्ञाएँ
पूरी करते थे. मगर वे लडाकू-ड्यूटी से भी भागते नहीं थे और न सिर्फ ख़तरों से नहीं
भागते थे, बल्कि उन्हें ढूँढने की भरसक कोशिश करते थे. एक
बार मोर्चे पर लड रही सेना की भयानक परिस्थितियों में रहते हुए, ठण्डे भूमिगत बंकरों में शीत से जमते हुए, वो श्तूज़ेर्न-बटालियन
और टुकडियों की पुनर्रचना से संबंधित फ़ौजी परियोजनाएँ लिख रहे थे. हर समय और हर
जगहवो सैनिकों के चिंता करते थे. अपनी डायरियों में वो ख़ुद को दोष देते हैं – अपने
अहंकार के लिए, चिड़चिड़ेपन के लिए, झगडालूपन
के लिए, मगर उनके फ़ौजी कॉम्रेड्स, अफ़सर
जीवन के अंत तक उनके साथ बिताई फ़ौजी ज़िंदगी के बारे में ख़ुशगवार यादें समेटे रहे.
सरकारी धन की खुलेआम लूट पर वो “नसीहत देते थे, कि चारे के
पैसे का वो बचा हुआ हिस्सा भी सरकारी ख़ज़ाने में वापस कर दें, जब अफ़सर का घोड़ा शासन द्वारा दिया गया चारा नहीं खाता.”
मगर इस राह पर प्रसिद्धी
उनका इंतज़ार नहीं कर रही थी. उन्हें वैध निष्क्रियता,
अफ़सरों का समाज, उनकी रुचियाँ और आदतें बोझ
लगती थीं, जिनकी ओर अनचाहे ही उसका शौकीन मिजाज़ खिंचा जाता
था. वह हमेशा अपने आसपास के लोगों से ऊँचा ही रहता था. और फिर फौजी सेवा में उसका
ओहद बेहद मामूली था: छब्बीस साल की उम्र में वह कनिष्ठ अफ़सर ही रहे, मगर हर लड़का, जिसने ‘कोर’
समाप्त कर लिया था, या तो उससे ऊपर था,
या उसके बराबर था. ऊपर से वरिष्ठ अधिकारियों की नज़र में उसने ‘सेवस्तोपल के गीतों” की रचना में भाग लेकर स्वयम् को अयोग्य सिद्ध किया
था. अफ़सरों का गुट पियानो के इर्दगिर्द इकट्ठा हो जाता, एक
बजाता, दूसरे रूसी लोकगीतों की तर्ज़ पर जनरलों का और उनकी
असफ़लता का मज़ाक उड़ाते हुए गीत बनाते. इन सारे गीतों का श्रेय टॉल्स्टॉय को दिया
जाता था, और पीटरबुर्ग में वरिष्ठ सैन्य क्षेत्रों में ज़ोर
देकर कहते थे, कि टॉल्स्टॉय ने न सिर्फ उनकी रचना की है,
बल्कि सैनिकों को उन्हें गाना भी सिखाया...
फ़ौजी सेवा छोड़ने का ख़याल
टॉल्स्टॉय के मन में कॉकेशस और सेवस्तोपल में कई बार आया. पीट्रबुर्ग आने के बाद
उन्होंने इस पर फ़ैसला ले ही लिया. मगर आधिकारिक तौर पर शांति की स्थापना होने
तक मुक्त होना संभव नहीं था. राजधानी के
एक तोपखाना प्रतिष्ठान में संलग्न रहते हुए ल्येव निकोलायेविच ने ग्यारह महीने की
छुट्टी का जुगाड़ कर लिया, जो उन्होंने
मॉस्को, पीटरबुर्ग और अपने गाँव में बिताई. सन् 1856 के अंत
में उन्होंने आख़िरकार फ़ौजी कोट उतार फेंका और जल्दी ही विदेश चले गए. पैरिस में और
स्विट्ज़रलैण्ड में करीब छह महीने उन्होंने मनमाने ढंग से बिताए.
ज़िंदगी के अगले पांच साल सरगर्मियों
से भरपूर और पहले ही की तरह अत्यंत विविध कार्यकलापों से भरपूर हैं. ये सही है,कि साहित्य के क्षेत्र में उनकी शानदार सफलताओं ने जीवन की मुख्य दिशा
निर्धारित कर दी थी. मगर उनकी “व्यापक प्रकृति” उपन्यासों और लघुउपन्यासों के लेखक
की भूमिका से संतुष्ट नहीं हो सकती थी. टॉल्स्टॉय को चाहत थी एक अधिक सम्पूर्ण
ज़िंदगी की, जिसे वे ढूंढ रहे थे. इस बीच गाँव और खेतीबाड़ी
उन्हें फिर से अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. मगर यास्नाया पल्याना में उन्हें दिखाई
दी कृषिदास प्रथा, जिससे वे समझौता नहीं कर सके. अमूर्त
मानवीय कारणों की वजह से अपने नहीं, जो उदारमतवादियों की
ख़ासियत थे...नहीं! फ़ैशनेबल विचारों का उन पर कोई प्रभाव नहीं था. मगर उन्होंने
अपने “नागरिकों” की (जैसा वे अपने किसानों को कहते थे) भलाई
करने की कोशिश की और उन्हें असफ़लता मिली : किसानों का विश्वास, एक दूसरे को समझना, उनके साथ एक साझा ज़ुबान भी वो
नहीं पा सके. या तो गाँव की निर्धनता और दयनीयता से समझौता करना पड़ा, या अपनी अंतरात्मा के सामने अपने “नागरिकों” के भाग्य के प्रति ज़िम्मेदारी
को नकारना पड़ा. ऊपर से इस परिवर्तनशील समय में पुराने तरीकों से खेतीबाड़ी करना,
जब कृषिदास बड़ी बेचैनी से अपनी आज़ादी की राह देख रहे थे, बेहद मुश्किल था. ल्येव निकोलायेविच को सरकार के उपायों पर विश्वास नहीं
था. वो ख़ुद ही सोच रहे थे, कि जल्दी से जल्दी अपने किसानों
को भूमि सहित मुक्त कर दें, यथासंभव सम्मानपूर्वक और अपनी
ख़ुद की जायदाद के हित में. पीटरबुर्ग के सरकारी हलकों में काफ़ी दौड़धूप करने के बाद,
उन्हें ऐसा उपाय मिल गया जो सरकारी ट्रेजरी को मान्य हो. मगर सारी
कोशिशें बेकार गईं किसानों के तीव्र विरोध के कारण, जो आस
लगाए बैठे थे, कि अलेक्सांद्र II राज्याभिषेक
पर त्सार से ज़मींदार की सारी भूमि मुफ़्त में प्राप्त कर लेंगे. इस असफ़लता ने गाँव
के प्रति टॉल्स्टॉय के जोश को ठण्डा कर दिया, मगर वो समय-समय
पर खेतीबाड़ी के काम में रुचि लेते रहे, जिसके बारे में वे
असल में, कुछ भी नहीं जानते थे. उनके बड़े भाई ने भला-सा
व्यंग्य किया: “लेवच्का को ये देखना अच्छा लगता था, कि मज़दूर
युफ़ान जुताई करते समय कैसे अपने हाथ फैलाता है. और युफ़ान उसकी नज़र में गाँव की
शक्ति का प्रतीक बन गया, मिकूला सेल्यानीनविच जैसा. वो ख़ुद
भी, कुहनियाँ फैला कर, हल उठाता है और
युफान जैसा करता है”. खेती के कामों से टोल्स्टॉय को अनेक काव्यात्मक कल्पनाएँ
सूझती थीं. मगर, ऐसा भी होता था, कि
खेतीबाड़ी का शौक जब चरम सीमा पर पहुँच जाता,तो उसे उसके
प्रति बेहद नफ़रत होने लगती, उसने डायरी में लिखा है : “खेती
बाड़ी अपने दुर्गंधयुक्त बोझ से मुझ पर टूट पड़ी” और वो उससे बचकर शहर भाग जाते –
साहित्य की ओर, सोसाइटी के मनोरंजनों की ओर, संगीत की शिक्षा की ओर.
संगीत से उसे ख़तरनाक हद तक
प्यार था और किशोरावस्था में उसने शिद्दत से इस क्षेत्र में कामयाबी हासिल की थी.
वि सिर्फ पियानो पर ही व्यस्त नहीं रहता, उसने संगीत
के सिद्धांत का अध्ययन किया था, वो नोट्स लिखता, संगीत रचने की भी कोशिश की थी. इन प्रयत्नों से वह असल संगीतकार नहीं बन
पाया, मगर संगीत का जादू उन पर हमेशा छाया रहा.
उनके ये शौक अपनी
आकस्मिकता से सब को चौंका देते. जैसे,एक बार, अपनी जागीर में जंगल में पौधे लगाते हुए, उन्होंने
अचानक फैसला कर लिया कि बड़े पैमाने पर वनीकरण करने में ही है – रूस का सुखमय
भविष्य. उसने वनीकरण का पूरा प्लान तैयार कर लिया और उसे लेकर पीटरबुर्ग भागा मंत्रालयों
में अपने विचारों को सरकारी स्तर पर मूर्तरूप देने के लिए पैरवी करने. इस मुहिम को,
बेशक, सफ़लता नहीं मिली. मगर जब गरमागरम बहस के
दौरान तुर्गेनेव किसी तरह पता लगा सका : टॉल्स्टॉय को, आख़िर,
अपनी वास्तविक विशेषता किसमें नज़र आती है, - तो
उसने बड़े विश्वास से साफ़-साफ़ जवाब दिया : “मैं – वनपाल हूँ”. इस घटना के बारे में
अपने मित्रों को बताते हुए तुर्गेनेव ने लिखा: “मुझे डर है, कि
इस कूद-फांद से वह अपनी प्रतिभा की कमर न तोड़ बैठे”.
सन् 1857 में विदेश में,
बेर्तोल्द अवेरबाख की ग्रामीण कहानियाँ पढ़ते हुए, टॉल्स्टॉय के मन में अचानक ये ख़याल आया कि गाँव में शिक्षा के क्षेत्र में
सवयम् को समर्पित किया जाए. यास्नाया पल्याना में एक छोटा सा स्कूल था, जिसे ल्येव निकोलायेविच ने चालीसवें दशक के अंत में बनाया था. मगर उसमें
एक बूढ़ा कृषिदास पढ़ाता था, जिसे लगातार बच्चों को उनके ही फ़ायदे
के लिए पीटने की इच्छा को रोकना पड़ता था.नौजवान टॉळ्स्टॉय, जब
भी गाँव आता, इस स्कूल में ढेर सारा प्यार, ज़िंदादिली और मुखर ख़ुशी लेकर आता: वह बच्चों से प्यार करता था और
ख़ुशी-ख़ुशी उनके साथ समय बिताता. मगर ल्येव निकोलायेविच की बार-बार की अनुपस्थिति
से स्कूल बूढ़े “शिक्षाविद” के हाथों में बीमार हो रहा था.
जुलै 1857 में उन्होंने
अपनी डायरी में लिखा : “ख़ास बात : शिद्दत से, साफ़ तौर
से एक बात मेरे दिमाग़ में आई है – आसपास के पूरे इलाके के लिए अपना एक स्कूल बनाना
और इसी तरह की गतिविधियाँ चलाना चाहिए”. सिर्फ दो साल बाद ही (सन् 1859 की शरद ऋतु
में अपनी इस योजना को कार्यान्वित कर सके. अन्य सभी योजनाओं के ही समान आरंभ में,
उन्होंने पूरे शौक से, पूरे अस्तित्व से स्कूल
के काम में अपने आप को झोंक दिया. ज़िंदगी के तीन साल उन्होंने पूरी तरह किसानों के
बच्चों को समर्पित कर दिये. ये काम बिल्कुल भी सही तरह से प्लान की गई नियमित
शैक्षणिक गतिविधि जैसा नहीं था. टॉल्स्टॉय ने ख़ुद ही लिखा,कि
अपने स्कूल से “बेहद प्यार” हो गया है. और उतनी ही शिद्दत से, उसके प्रभाव में, उन नौजवानों को भी स्कूल से प्यार
हो गया था,जिन्हें उसने इस काम के प्रति आकर्षित किया था.
बेशक,उसने शुरुवात इस तरह से की कि सभी क्षेत्र की सभी
पारंपरिक प्रथाओं को नकार दिया, शिक्षा की सभी तरह की
विधियों को ताक पर रख दिया. उसे ख़ुद ही किसान बालकों के दिल में प्रवेश करना था और
, हर तरह के अनुशासन और हर तरह की सज़ा को दूर हटाते हुए,
ख़ुद विद्यार्थियों को अपने शिक्षक को पढ़ाने का मौका दिया. स्कूल
मुक्त था, हर विद्यार्थी वही और उतना ही पढ़ता था, जितना चाहता था. शिक्षक का कर्तव्य सिर्फ इतना ही था, कि बच्चों के खोज कार्य को हल्का करें, हर बच्चे पर
व्यक्तिगत ध्यान देते हुए, और हर मौके पर प्यार से मदत करने
का सबसे बढ़िया तरीका ढूँढें. टॉल्स्टोय के इन मुक्त स्कूलों की प्रगति - जिनमें न
कोई अनिवार्यता थी, न कोई पाठ्यक्रम था और न ही कोई सज़ा थी –
बेहद चौंकाने वाली थी. बच्चे पूरा दिन पढ़ते, और उन्हें स्कूल
से घर भेजना लगभग असंभव था.
50 साल बाद यास्नाया
पल्याना के एक बूढ़े किसान (वासीलि मरोज़व) ने बताया: “...हमारे घंटे मिनिटों में
बीत जाते. अगर ऐसे ख़ुशनुमा माहौल में रहो,तो पता ही
नहीं चलेगा कि ज़िंदगी कैसे बीत जाएगी...ऐसी मस्ती और हँसी-ख़ुशी में, शिक्षापद्धति में हो रही शीघ्र प्रगति के वातावरण में हम ल्येव
निकोलायेविच से ऐसे घुल मिल गए, जैसे मोम से लिपटा धागा. हम
ल्येव निकोलायेविच के बिना तड़पते थे, और ल्येव निकोलायेविच
हमारे बिना. हम ल्येव निकोलायेविच से अलग नहीं हो सकते थे और हमें अलग करती थी
सिर्फ एक गहरी रात. दिन तो हम स्कूल में बिताते, और शाम
खेलों में बीत जाती, आधी रात तक उनके साथ छत पर बैठे रहते.
वो कोई किस्सा सुनाते, युद्ध के बारे में बताते, कैसे उनकी बुआजी को मॉस्को में रसोइए ने चाकू मारा था, कैसे वो शिकार पे गए थे, कैसे भालू ने उन्हें पकड़
लिया था, और हमें आँख के पास एक ज़ख़्म का निशान दिखाया,
कैसे भालू ने उन्हें पंजे से नोचा था. बातों का अंत ही नहीं था. हम
भी उन्हें डरावने किस्से सुनाते: जादूगरों और जंगल के शैतानों के बारे में...वे
हमें डरावनी और मज़ाकिया परी-कथाएँ सुनाते, गीत गाते, हमसे अंत्याक्षरी खेलते...ल्येव निकोलायेविच बेहद-बेहद मज़ाकिया थे,
मज़ाक करने का, हँसने का कोई भी मौका जाने नहीं
देते थे. वे हमें अलग-अलग नामों से बुलाते...”
ऐसे शिक्षक के होते हुए,
बेशक, कोई भी स्कूल अच्छा ही चलता. दूसरा सवाल
– क्या दुनिया में इस तरह के काफ़ी शिक्षक ढूँढ़ना संभव था?
कहना पड़ेगा,
कि वैसे, इस क्षेत्र में भी अपनी, नई राहें बनाते हुए, टॉल्स्टॉय इस संबंध में
प्रस्थापित प्रथाओं की यथासंभव जानकारी प्राप्त करने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने
शिक्षा-विज्ञान पर बहुत कुछ पढ़ा ( विशेषकर जर्मन लेखकों को) और, सन् 1860-1861 में फिर से विदेश जाने पर जर्मनी और फ्रांस में स्कूली
शिक्षा प्रणाली का ग़ौर से अध्ययन किया. जर्मनी में उनके निरीक्षणों के बारे में,
शिक्षाविदों से हुई मुलाकातों और चर्चाओं के बारे में उनके जीवनी
लेखक रफ़ाएल लेवेन्फेल्ड ने जर्मन जनता को विस्तार से बताया था.
मगर टॉळ्स्टॉय को न तो
रूसी, न ही विदेशी स्कूल, न ही
शिक्षाविद संतुष्ट कर सके. पराए विचार और पराया नज़रिया (हर क्षेत्र में) उनके लिए स्वतंत्र
बौद्धिक कार्य के लिए सिर्फ आरंभिक बिंदुओं का कार्य करते थे. लगभग हमेशा ये
सामग्री सिर्फ खंडन करने के लिए होती थी. और इस संबंध में सिर्फ “नहीं” कहना उनके
लिए पर्याप्त नहीं था: उन्हें ये भी जोड़ना पड़ता था : “नहीं हो सकता” – “नहीं,
और हो भी नहीं सकता”. अपने हर विचार पर वो इस तरह डट जाते, जैसे किले में कब्ज़ा किए बैठे हों, और विरोधियों की
कोई भी कोशिश उन्हें उन स्थानों से नहीं हटा सकती थी जिन पर उन्होंने अधिकार कर
लिया हो. मगर समय बीतता, नये विचार उत्पन्न होते, वैसे ही गर्वीले, अटल, न झुकने
वाले, और तब पुराने विचार बिना मुकाबला किए, चुपचाप रास्ते से हट जाते, और बिना कोई निशान छोड़े
गायब हो जाते.
इस क्षेत्र ने टॉल्स्टॉय
को किस हद तक आकर्षित किया था, ये बात उनके
आलेखों को पढ़ने से समझ में आती है : “किसे किससे लिखना सीखना है: किसानों के
बच्चों को हमसे या हमें किसानों के बच्चों से?” पाठ के बाद,
जिसमे वो बच्चों को निबंध लिखना सिखाते थे, टॉल्स्टॉय
कहते हैं: “मैं काफ़ी देर तक उस प्रभाव के बारे में बता नहीं सका, जो मुझे अनुभव हो रहा था... दूसरे दिन भी मुझे उस पर विश्वास नहीं हो रहा
था, जो मैंने कल महसूस किया था. मुझे इतना अजीब लगा, कि किसान का अर्धशिक्षित बालक अचानक किसी कलाकार जैसी सचेतन शक्ति
प्रदर्शित कर सकता है, जो अपने विकास की असीमित ऊँचाई पर
ग्योथे भी प्राप्त नहीं कर सकता. मुझे इतना विचित्र और अपमानजनक लगा, कि मैं, “बचपन” का लेखक, जिसे
अपनी कलात्मक योग्यता के लिए रूसी शिक्षित जनता के बीच कुछ हद तक सफ़लता और मान्यता
प्राप्त हुई है, - कि मैं कलात्मक क्षेत्र में न सिर्फ
ग्यारह साल के बच्चों सेम्का और फ़ेद्का को उनकी कमियाँ नहीं बता सकता या उनकी मदद
नहीं कर सकता; बल्कि मुश्किल से ही - और
वो भी चिड़चिड़ाहट के ख़ुशनुमा पल में, - उन पर ध्यान देने की
और उन्हें समझने की स्थिति में.”
ये आश्चर्यजनक आलेख ‘यास्नाया पल्याना” नामक शैक्षणिक-पत्रिका
में, जिसे टॉल्स्टॉय
सन् 1862 में प्रकाशित करते थे, छपा था. इस मामूली सी मासिक पत्रिका के पन्नों पर वो जनता
से अपने स्कूल संबंधी अनुभव बांटते थे और, हमेशा की तरह, इसी संदर्भ में मानवीय अस्तित्व के अत्यंत मूलभूत प्रश्न भी
उठाते थे.
19 फरवरी 1861 को रूसी किसान
कृषि दासता से मुक्त कर दिए गए. उनके लिए ज़मीन का आवंटन करना था, जो उन्हें अपने भूतपूर्व मालिकों
की जागीरों से मिलने वाली थी. असल में ज़मीन के आवंटन के समय ज़मींदारों और किसानों
के बीच किन्हीं आधिकारिक मध्यस्थों का होना आवश्यक था. “मध्यस्थों-शांतिदूतों ” की
एक संस्था बनाई गई, जो इस परिवर्तनशील समय में
निर्णायकों-शांतिदूतों की ज़िम्मेदारी भी निभाते थे. टॉल्स्टॉय विदेश में थे. तूला
के गवर्नर ने उन्हें इस मामले में आकर्षित करने का प्रयत्न किया. लगभग सभी
ज़मींदारों के विरोध को देखते हुए, जिन्हें ल्येव टॉल्स्टॉय
का सामान्य लोगों के प्रति प्यार पसंद नहीं था, शासन अपने ही
चुनाव पर अड़ा था, और टॉल्स्टॉय ने कुलीनों के विरोध के बारे
में जानते हुए भी इस ज़िम्मेदारी को स्वीकार कर लिया. “मैं इनकार करने की हिम्मत न
कर सका,” उन्होंने लिखा, “ अपनी
अंतरात्मा के सम्मुख और उस ख़तरनाक, धृष्ठ और क्रूर कुलीनता
को देखते हुए, जो मुझे धमकी दे रहे थे, कि यदि मैं मध्यस्थों की समिति में गया तो मुझे खा जायेंगे.”
मई 1861 में वो इस समिति
में शामिल हुए और करीब साल भर किसानों के हितों की रक्षा करते हुए ज़मींदारों से
हताश संघर्ष करते रहे.
मध्यस्थों की जिला-समिति
उनके लिए निर्णयों को सुनियोजित तरीके से बदलती रही; उन्हें हर
तरह की धमकियों से भरे ढेरों ख़त मिलते : उनकी पिटाई करने की तैयारी हो चुकी थी,
और द्वन्द्व युद्ध में गोली मारने का प्लान भी तैयार था; उनके ख़िलाफ़ शिकायतें लिखी जाती रहीं.
ये सारी तूफ़ानी गतिविधि
टॉल्स्टॉय के चंचल मन के अनुकूल ही थी. इस कालखण्ड के आरंभ में (अक्टूबर 1857 में)
उसने अपनी मित्र और रिश्तेदार, शाही दरबार की
सम्मानित महिला अलेक्सान्द्रा टॉल्स्टाया को लिखा : “निरंतर चिंता, मेहनत, संघर्ष, अभाव – ये
अवश्यंभावी परिस्थितियाँ हैं, जिनसे कोई भी आदमी एक पल के
लिए भी निकल नहीं सकता. सिर्फ ईमानदारीपूर्ण चिंता, संघर्ष
और काम, जो प्यार पर आधारित हों, यही
है वो चीज़, जिसे सुख कहते हैं. हाँ सुख क्या है –
मूर्खतापूर्ण शब्द है; सुख नहीं, बल्कि
अच्छाई; और बेईमानीभरी चिंता, जो स्वयँ
के प्रति प्रेम पर आधारित हो – वो दुख है...मुझे याद करने पर हँसी आती है, कि मैं कैसे सोचता था और आप कैसे, शायद, सोचती हैं, कि अपने लिए एक सुखी और ईमानदार दुनिया
बनाएँ, जिसमें शांति से, बिना गलतियों
के, बिना पश्चात्ताप के, बिना ग़लतफ़हमी
के चैन से रहा आये और बिना जल्दबाज़ी के, सलीके से सिर्फ
अच्छा काम ही किया जाए. हास्यास्पद! नहीं, दादी. जैसे, बिना हिले डुले, बिना कसरत किए तंदुरुस्त रहना
असंभव है...ईमानदारी से जीने के लिए, ख़ुद को कष्ट देना पड़ता
है, गलतियाँ करनी पड़ती हैं, सिर फोड़ना
पड़ता है, दुविधा में पड़ना होता है, शुरू
करना और छोड़ देना पड़ता है, और फिर से शुरू करना, और फिर से छोड़ना पड़ता है, और हमेशा संघर्ष करना पड़ता
है, अभावों को झेलना पड़ता है. और शांति – आत्मा का ओछापन है.
इसीलिए तो हमारी आत्मा का मूर्ख पक्ष शांति चाहता है, बिना
पूर्वानुमान लगाए, कि उसकी (शांति की – अनु.) उपलब्धि
सब कुछ, जो हमारे भीतर सुंदर है, अमानवीय
है उसे हारने में निहित है, और वहीं से है”.
80 वर्ष जीने के बाद और इस
ख़त को फिर से पढ़ते हुए, टॉल्स्टॉय ने कहा, कि इस तरह के जीवन-क्रम में वो कुछ भी बदल नहीं सकते. मगर सन् 1862
आते-आते वे थक गए.
खेती-बाड़ी चल नहीं रही थी.
साहित्यिक लोकप्रियता तेज़ी से नीचे गिर गई थी, बावजूद
इसके कि चार सालों में (1856-1859) उनकी कई लाजवाब कहानियाँ छपी थीं. सन् 1856 में
“सेवस्तोपल अगस्त में”, “बर्फीला तूफ़ान”, “दो अश्व-सैनिक” “ज़मींदार की सुबह”, मॉस्को के परिचित
से फ़ौजी टुकड़ी में मुलाकात”; सन्न 1857 में “जवानी”, “ल्युसेर्न”, 1858 में “एल्बर्ट”; 1859 में: “तीन मौतें”, और उपन्यास “पारिवारिक सुख”. इन
अद्भुत चीज़ों से अब खलबली नहीं मचती थी. रूसी समाज पुनरुद्धार की कड़ाही में उबल रहा
था. आलोचक और जनता पर्दाफ़ाश करने वाले साहित्य की, सामाजिक
विषयों की मांग कर रहे थे. शुद्ध काव्य जो समाजिक बुराइयों से कटा हुआ था, अंधेरे में था. दुखी मन से अपनी प्रसिद्धी को गिरते हुए देखकर, टॉल्स्टॉय ने कुछ भी प्रकाशित नहीं कर रहे थे और दोस्तों की मान-मनौवल का
जवाब यूँ देते थे कि उन्होंने अब से “चुपचाप, ख़ुद ही के लिए
साहित्यिक बनने का फ़ैसला कर लिया है”.
किसानों के बच्चों से
बातें करके सीधी ख़ुशी मिलती थी. मगर टॉल्स्टॉय की अपने स्कूल से अपेक्षाएँ काफ़ी
ऊँची थीं. “मैं अपने आप से कहता था,” बाद में
उन्होंने लिखा, “कि कुछ क्षेत्रों में प्रगति सही दिशा में
नहीं जा रही है, और ये कि मूल बाशिन्दों से, किसानों के बच्चों से, पूरी तरह आज़ादी से पेश आना
चाहिए, उन्हें प्रगति की वो ही राह चुनने का सुझाव देना
चाहिए, जो वे चाहते हैं”. “आदिम बाशिन्दों को” विद्वान आदमी से बातें करके ख़ुशी होती थी और
निरंतर दुलार के बदले वे उसे नज़ाकत भरा प्यार देते थे, मगर
आह! – वे वो जवाब नहीं दे सकते थे, जो पाने की वह कोशिश कर
रहा था : मानवीय प्रगती की असली राह – किसानों के बच्चों के लिए भी, और ख़ुद टॉल्स्टॉय के लिए भी पहले ही की तरह पहेली बनी रही.
उस पत्रिका का,
जिसमें वह शिक्षा संबंधी मूलभूत मुद्दों पर शिद्दत से और दो टूक
सवाल उठाते थे, बड़े ठंडेपन और अविश्वास से स्वागत किया गया.
कोई भी टॉल्स्टॉय से बहस नहीं करता था, मगर किसी को भी उन
शिक्षा के क्षेत्र में उनके आविष्कारों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी. उनमें काफ़ी
कुछ शानदार था जिसने पचास साल बाद अमेरिका और रूस में शिक्षाविदों का ध्यान
आकर्षित किया. मगर साठ के दशक में ज़्यादातर लोग पत्रिका को एक शौकिया सनकी का
कुलीन शौक मानते थे. “यास्नाया पल्याना” के काफ़ी कम ग्राहक थे, वो साल भर चली और टॉल्स्टॉय को 3000 रूबल्स का घाटा देकर बंद हो गई.
ज़मींदारों के निरंतर बढ़ते
हुए विरोध के कारण मध्यस्थता का काम असहनीय होता जा रहा था – ऊपर से,
टॉल्स्टॉय की गतिविधियों का औपचारिक, सरकारी
पक्ष (जिस पर वे ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे) – शिकायतों का जायज़ मौका देता था.
उसी समय,
इन सब असफ़लताओं के साथ ही, किस्मत ने
टॉल्स्टॉय को दो कठिन परीक्षाओं से गुज़रने पर मजबूर किया.
20 सितम्बर 1860 को
फ्रान्स के दक्षिण में (गियार में) काउन्ट निकोलाय टॉल्स्टॉय का टी.बी. से निधन हो
गया. लगातार एक महीना हर पल ल्येव निकोलायेविच भाई की जीवन-ज्योत को धीरे-धीरे,
पीड़ाजनक ढंग से बुझते हुए देख रहे थे. इस आदमी को वे “ दुनिया में
सबसे ज़्यादा प्यार करते थे, उसकी सच्चे दिल से इज़्ज़त करते
थे”. और ये “बुद्धिमान, भला, गंभीर
आदमी जवानी में ही बीमार हो गया, साल भर से ज़्यादा तड़पता रहा
और पीडादायक तरीके से मर गया, ये न समझते हुए, कि वो किसलिए जी रहा था, और उससे भी कम ये समझते हुए
कि वो क्यों मर रहा है. कोई भी सिद्धांत,” ल्येव टॉल्स्टॉय
लिखते हैं, “ इन सवालों का जवाब नहीं दे सके, न मुझे, न धीरे-धीरे और पीड़ा से मरते हुए उसको...”
टॉल्स्टॉय का व्यक्ति के पुनर्जन्म में विश्वास नहीं था, और
उसके लिए काउन्ट निकोलाय हमेशा के लिए ओझल हो गया, “एक जले
हुए पेड़ की तरह”.
मृत्यु की समस्या पैने,
पीड़ादायक रूप में ल्येव टॉल्स्टॉय के सामने खड़ी थी और हटने का नाम
ही नहीं ले रही थी. चारों तरफ़ कालिमा छा गई.” किसलिए, जब कल
मृत्यु की पीड़ा अपने समस्त घृणित झूठ, आत्मवंचना के साथ शुरू
हो जायेगी, और ख़त्म होगी ख़ालीपन के साथ, एक बड़े शून्य के साथ....”जीवन के प्रति उत्साह ही ख़त्म हो गया. कुछ समय के
लिए ल्येव निकोलायेविच अपने प्यारे यास्नापल्यांस्का वाले स्कूल के बारे में भी
भूल गए. मातृभूमि जाने की इच्छा ही नहीं रही.
“क्या सब एक ही नहीं है,
कि ज़िंदगी कहाँ जीना चाहिए?” वह कहते. “यहाँ
मैं रहता हूँ, यहीं रह भी सकता हूँ.” साहित्य के बारे में
सोचने का मन ही नहीं था. दुःख और निराशाभरे विचारों से वो जैसे जड हो गए थे.
“जब उसे कुछ नहीं मिला,
जिसे पकड़ के रखा जाए, जिसका सहारा लिया जाए,
तो मुझे क्या मिलेगा? और भी कम...”
काउन्ट निकोलाय टॉल्स्टॉय
वाकई में एक आकर्षक, उत्कृष्ट व्यक्ति थे, भले, थोड़े मज़ाकिया, अपने जीवन में
उस सब का पालन करते थे, जिसकी, उनके
मित्रों के अनुसार, बाद में ल्येव निकोलायेविच ने शिक्षा दी.
निकोलाय टॉल्स्टोय में प्रसिद्धी की ज़रा सी भी चाहत नहीं थी, ज़रा भी घमंड नहीं था, और हालाँकि उनमें बहुत अच्छी
तरह से वर्णन करने का गुण था, जो उन्होंने अपनी माँ से लिया
था, उन्होंने लगभग कुछ भी नहीं लिखा, अपने
आप को सिर्फ छोटे भाई को साहित्यिक सलाह देने तक सीमित रखा. तुर्गेनेव ने लिखा है,
कि निकोलाय टॉल्स्टॉय में “ऐसी कोई कमी नहीं थी, जो एक महान लेखक बनने से रोकती हो.”
शैशव काल से हे निकोलाय
टॉल्स्टॉय का ल्येव टॉल्स्टॉय पर गहरा प्रभाव था. इस प्रभाव को क्रिश्चन या
मानवतावादी प्रभाव कह सकते हैं. बाल्यावस्था से ही वो अपने भाइयों को काल्पनिक
आविष्कारों की ओर आकर्षित करते थे, जिनमें “प्यार से
एक दूसरे से चिपके हुए मुरावियन (मोरावियन) (मुरावियन का अर्थ है चींटियों से
संबंधित, जबकि मोरावियन – एक प्राचीन चर्च है,
जो “यूनिटी ऑफ़ ब्रदर्स से संबंधित था – अनु.) भाई होते थे और मशहूर हरी छड़ी होती थी, जिस पर लिखा
रहता था ‘मुख्य रहस्य – इस बारे में कि क्या करना चाहिए,
जिससे सभी लोगों का दुर्भाग्य से सामना न हो, वे
कभी भी एक दूसरे से लडे नहीं और एक दूसरे पर क्रोध न करें, और
हमेशा सुखी रहें...”
अपने बुद्धिमान और भले बड़े
भाई का नर्म स्वभाव, उसका नाज़ुक, सज्जन व्यक्तित्व उसके लिए “भलाई” का, ईसाइयत का,
आत्म बलिदान का मूर्त स्वरूप था.... समझ सकते हैं, कि इसी नम्र व्यक्ति की असमय और दर्दनाक मृत्यु से उसे कितना आघात पहुँचा
होगा...
मगर कुछ महीनों बाद
टॉल्स्टॉय अपने जीवन के दिलचस्प कामों की ओर लौट आये. पहले गियेर में रह रही बहन
के बच्चों की शिक्षा ने उनका ध्यान आकर्षित किया. बाद में वह अपनी भावी पत्रिका के
लिए शैक्षणिक आलेखों में जुट गए. इस संदर्भ में उन्होंने फ्रान्स,
लंदन और गर्मनी में स्कूली शिक्षा-पद्धति का अध्ययन किया. और,
आख़िरकार, वो मातृभूमि, यास्नाया
पल्याना लौट गए, जहाँ स्कूल और मध्यस्थता से संबंधित नए काम
उनकी राह देख रहे थे. ज़ख़्म धीरे-धीरे भर रहा था. मौत का ख़याल कुछ समय के लिए अचेतन
मन में चला गया. मगर ज़िंदगी की ख़ुशी को पहला घाव लग चुका था, और उसके परिणाम बाद में प्रकट हुए.
दूसरी परीक्षा (बेशक,
काफ़ी कम दुखदाई) थी तुर्गेनेव से अंतिम मनमुटाव.
उनके बीच के संबंध अस्पष्ट
और परिवर्तनीय थे. उनकी विदेश में मुलाकात हुई (सन् 1857 में),
उन्होंने कुछ दिन साथ बिताए, मगर दोनों ही
घनिष्ठता की कुछ सीमाएँ पार करने से बच रहे थे. अपनी डायरी में टॉल्स्टॉय को कभी
तुर्गेनेव पर दया आती, तो कभी उन्हें उनके साथ
प्रसन्नतापूर्वक बिताया हुआ दिन याद आता, कभी मन ही मन उनका
तिरस्कार भी करते. उनके विचारों में भिन्नता होने और दोनों लेखकों के स्वभाव में
गहरा फ़र्क होने के साथ-साथ, उनके मन में एक और गाँठ थी.
ल्येव निकोलायेविच की बहन, काउन्टेस मारिया निकोलायेव्ना
टॉल्स्टाया का पारिवारिक जीवन सुखी नहीं था. आख़िर सन् 1857 में उसका अपने पति से
तलाक हो गया. तुर्गेनेव, जिनका उससे हाल ही में परिचय हुआ था,
और जो उनका साथ बहुत पसंद करती थी, विआर्दो से
नज़दीकियों के बावजूद अपने आप को बुद्धिमान काउन्टेस के सामने थोड़ा सा छिछोरापन
करने से नहीं रोक पाए. इस बर्ताव से टॉल्स्टॉय घबरा गए और उन्हें ये सब ज़रा भी
पसंद नहीं था.
मगर फिर भी,
कभी-कभी दोनों लेखक एक दूसरे की ओर खिंचे चले आते थे. ऐसा ही सन्
1861के बसंत में भी हुआ. तुर्गेनेव अपनी ओर्लोव जागीर के गाँव स्पास्कोए में रह
रहे थे, और अपने सर्वोत्कृष्ट उपन्यास (“पिता और पुत्र”) पर
काम पूरा कर रहे थे. टॉल्स्टॉय तुर्गेनेव के यहाँ आए, ताकि
उनके साथ दोनों के परिचित फ़ेत के पास जा सकें. स्पास्कोए की मुलाकात बहुत शांतिपूर्ण
वातावरण में हुई. बेहद लज़ीज़ खाना खाते हुए तुर्गेनेव ने कुछ घबराहट से अपने हाल ही
में ख़तम हुए उपन्यास का ज़िक्र किया. टॉल्स्टॉय ने पाण्डुलिपि पढ़ने की ख़्वाहिश
ज़ाहिर की. लंच के बाद मेज़बान ने बड़े ध्यान से ड्राइंग रूम में उचित वातावरण तैयार
किया: सारी मक्खियाँ भगाई गईं, लम्बे-चौड़े दीवान के पास छोटी
सी मेज़ सरका कर उसके ऊपर उपन्यास की पाण्डुलिपि रख दी गई, सिगरेट
पीने का सामान, पसन्द के ड्रिन्क्स भी रख दिये. ये सब करने
के बाद तुर्गेनेव हौले से दरवाज़ा उड़का कर कमरे से बाहर निकल गए, जिससे कि मेहमान का ध्यान न बंटे...
निपट ख़ामोशी में टॉल्स्टॉय
ने पढ़ना शुरू किया. मगर जल्दी ही उनकी आँखें बंद होने लगीं,
और उन्हें पता ही नहीं चला कि वो कब ...सो गए.
अचानक,
जैसे किसी ने उन्हें धक्का दिया. उनकी आँख़ खुली और उन्होंने कमरे से
बाहर जाते हुए तुर्गेनेव की पीटःअ दिखाई दी.
फिर कभी उपन्यास के बारे
में एक भी बात नहीं हुई.
प्रकट में वे फेत के पास
आए. और यहीं दूसरे दिन सुबह चाय की मेज़ पे उनके संबंधों का अंतिम अंक खेला गया.
तुर्गेनेव अपनी बेटी के
शिक्षा के बारे में बता रहे थे.
टॉल्स्टॉय ने उन्हें खारिज
करते हुए कुछ आपत्तिजनक टिप्पणियाँ कीं.
“मैं आपसे विनती करता हूँ,
कृपया इस तरह बात न करें,” तुर्गेनेव नथुने
फुलाते हुए चहके.
“मैं वो बात क्यों नहीं कह
सकता, जिसका मुझे विश्वास है?” तुर्गेनेव
का चेहरा पीला पड़ गया.
“अगर आप चुप नहीं हुए,”
वो चीखे, “तो मैं आपको झापड़ मारूँगा!... ”
अपना सिर पकड़कर और लड़खड़ाते हुए वो तेज़ी से कमरे से निकल गए. अपने आप
पर काबू पाकर, वो वापस लौटे और मेज़बान महिला से माफ़ी मांगी.
टॉल्स्टॉय चुप हो गए,
फ़ौरन निकल गए और पहली ही डाक चौकी से तुर्गेनेव को संदेश भेजा,
कि या तो फ़ौरन औपचारिक रूप से माफ़ी मांगें, या
द्वन्द्व युद्ध के लिए तैयार रहें. ऊपर से वह “ओछे तरीके से” द्वन्द्वयुद्ध नहीं
चाहते थे – गवाहों के साथ, डॉक्टर और
शैम्पेन के साथ; उन्होंने तुर्गेनेव को भरी हुई पिस्तौलें
लेकर पहाड़ी की ढलान पर आने, और गवाहों के बिना, “सचमुच में” गोली चलाने के लिए कहा.
तुर्गेनेव ने माफ़ी मांग
ली. मगर लेखक सत्रह सालों तक एक दूसरे से दूर हो गए.
इन सभी अप्रिय घटनाओं का,
चिड़चिड़ाहट का, आख़िरकार, टॉल्स्टॉय
के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा. 1861 की गर्मियों में उन्हें खांसी के साथ खून आने
लगा. तपेदिक और मृत्यु का भूत उनका पीछा कर रहा था. डॉक्टरों ने पूरी तरह आराम करने
की और तातार की स्तेपी में कुमिस (घोड़ी के दूध का पेय – अनु.) से इलाज करने की सलाह दी.मगर ल्येव निकोलायेविच अगले
बसंत में ही उनकी सलाह का पालन क्र सके. उन्होंने मध्यस्थता की ज़िम्मेदारी से इनकार
कर दिया, पत्रिका का प्रकाशन रोक दिया, स्कूल अपने सहायकों को सौंप दिया और, अपने साथ दो किसान
बालकों (अपने पसंदीदा छात्रों)को लेकर, इलाज के लिए समारा रवाना
हो गए.
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