अध्याय – 1
ल्येव निकालायेविच
1.
उस उत्तेजना की
कल्पना करना कठिन है, जिसने पचास के दशक के (उन्नीसवीं शताब्दी के –
अनु.) अंत में रूस को अपनी चपेट में ले लिया था. शिक्षित समाज में काफी पहले
से उदारवादी विचार परिपक्व हो चुके थे. निकोलाय प्रथम के प्रतिक्रियावादी शासन ने ‘रूस की सामर्थ्य’ के नाम पर इन विचारधाराओं को दबाए
रखा. सन् 1948 में यूरोप में बह रही क्रांतिकारी आंदोलन की लहर के संदर्भ में “लाल”
विचारधारा का उत्पीडन अधिक तीव्र हो गया. मगर ख़ुद शासन भी समझ रहा था, कि रूसी जीवन की कई पुरानी प्रथाएँ किसी के भी हित में नहीं थीं. इस तरह
की एक थी, उदाहरणार्थ, कृषिदास प्रथा.
पीटरबुर्ग के दफ़्तरों में अत्यंत गोपनीयता से धीरे धीरे सुधारों की परियोजनाओं का
मसौदा तैयार हो रहा था. मगर ऊपरी तबकों में इतना महान आत्मविश्वास व्याप्त था,
कि इन परियोजनाओं पर काम कर रहे कर्मचारियों को अपने काम पर विश्वास
नहीं हो रहा था.
इस आत्मविश्वास पर
पूर्णविराम लगा दिया सेवस्तोपल की हार ने. युद्ध अक्सर किसी देश की न केवल राजनयिक
कुशलता और युद्ध-कौशल्य की कसौटी होता है : वह समूची प्रशासकीय यंत्रणा की भी जांच
करता है, और बेरहमी से सबके सामने गर्वीले भ्रमों
को नष्ट कर देता है.
सेवस्तोपल के अभियान की
कसौटी में रूसी शासन खरा नहीं उतरा. ‘रूस की सामर्थ्य’,
जिसकी ख़ातिर इतने सारे लोगों की बलि दी गई थी, - नज़र ही नहीं आई. समाज में ज़ोर-शोर से अफ़वाहें फैल रही थीं, कि अपनी शासन-प्रणाली का पतन बर्दाश्त न करने के कारण सम्राट निकोलाय ने
आत्महत्या कर ली है. राजसिंहासन के उत्तराधिकारी को लेकर
इंद्रधनुषी आशाएँ थीं. कवि झूकोव्स्की का शिष्य, संवेदनशील,
नर्म स्वभाव का – उसे, शायद, स्वयम् ख़ुदा ने रूस के गहरे घावों पर मरहम लगाने के लिए, अपने पिता के क्रूर शासन को भूलने पर मजबूर करने और देश का पुनरुत्थान
करने के लिए भेजा था.
सब कुछ,
जो पिछले शासन के दौरान ताकत के ज़ोर से दबाया गया था, अब भड़क उठा था. कृषिदासों के उपद्रव अभूतपूर्व आयाम धारण कर रहे थे.
शिक्षित समाज दीर्घ काल की मजबूरन चुप्पी के बाद आक्रामक मुद्रा धारण कर रहा था:
बांध टूट चुका था, और अभियोगात्मक साहित्य का मानो पूरा सागर
उफ़ान ले रहा था. रूसी लोग अपने समस्त अधिकतमवाद के साथ, जो
उनकी विशेषता है, हर चीज़ की अत्यंत कडी आलोचना करने लगे.
सम्पूर्ण जीवन पद्धति का तुरंत संशोधन आवश्यक था. हर चीज़ बुरी थी. हर चीज़ तत्काल
सुधार की मांग कर रही थी: क्या कृषिदासता, क्या अदालतें,
क्या शिक्षा, क्या सेंसरशिप, क्या स्थानीय प्रशासन; कई लोग तो ‘भवन की सम्पूर्णता’, अर्थात संविधान का सपना भी देख
रहे थे. नित नये प्रकाशित हो रहे अख़बारों
और पत्रिकाओं के लिए नाम नहीं मिल रहे थे. “चारों तरफ़ से”, टॉल्स्टॉय
ने बाद में व्यंग्य से लिखा, “ सवाल पैदा हुए ( सन् ’56
में उन सभी परिस्थितिजन्य विचारधाराओं को ये नाम दिया जाता था,
जिनका ओर-छोर किसी को समझ में नहीं आता था), सवाल
पैदा हुए कैडेट कोर से संबंधित, विश्वविद्यालयों से, सेंसरशिप से, मौखिक अदालती कार्रवाई से संबंधित,
वित्त संबंधी, बैंक से संबंधित, पुलिस से संबंधित, मुक्ति से संबंधित तथा अन्य कई
प्रकार के; सभी लोग नये-नये प्रश्न ढूँढ़ने की, उनका समाधान पाने की कोशिश कर रहे थे; लिख रहे थे,
पढ़ रहे थे, परियोजनाएँ बना रहे थे, सभी संशोधन करना, नष्ट करना, परिवर्तित
करना चाह रहे थे, और सारे रूसी, एक
व्यक्ति की भांति, एक अवर्णनीय जोश की स्थिति में थे.”
आर्थिक क्षेत्र में देश जर्जर पितृसत्तात्मक आधार को तोड़कर विकास के नए चरण में प्रवेश कर रहा था. संक्षेप में, विशाल हांडी खौल रही थी, और आख़िरकार फ़ेन की तरह सतह पर आ पहुँचा सामाजिक जीवन इंद्रधनुषी रंगों से दमकने लगा: वो सभी को बदहवास करती गति और असाधारण क्लिष्टता से अपनी गिरफ़्त में लेने वाला था.
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