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उस अकेलेपन की कल्पना करना
कठिन है, जिसमें टॉल्स्टॉय दम्पत्ति के जीवन
के आरंभिक वर्ष गुज़रे. उस समय रेल मार्ग (मॉस्को – कुर्स्क – कीएव) नहीं था,
और गाँवों के रास्ते ख़स्ताहाल थे, इस कारण
घोड़ों के माध्यम से समाचार भेजना मुश्किल होता था. एक बार, या
हद से हद – साल में दो बार – मॉस्को से अपनी जागीर जाते समय पत्नी के साथ फेत आ
जाया करता, या टॉल्स्टॉय की युवावस्था का दोस्त – द्याकव. कभी
कभार ल्येव निकोलायेविच का इकलौता जीवित भाई – काउन्ट सिर्गेइ टॉल्स्टॉय आ जाता.
कभी भूले-भटके तूला से अउर्बाख का परिवार, शिक्षक और
उपन्यासकार एव्गेनी मार्कोव आ जाते. बस, इतने ही. आसपास के
ज़मींदारों से टॉल्स्टॉय को नफ़रत थी, और अगर कभी पुरानी यादों
की ख़ातिर उनमें से एकाध बुआजी से मिलने यास्नाया पल्याना आ भी जाता, तो ल्येव टॉल्स्टॉय दूसरे दरवाज़ों से निकलकर घर से ग़ायब हो जाता.
संक्षेप में,
टॉल्स्टॉय के कोई सच्चे दोस्त नहीं थे. युवावस्था में, कज़ान में, बड़े भाइयों के कॉम्रेड स्टूडेंट द्याकव
से उसकी घनिष्ठता हुई. इस दोस्ती के उतार-चढ़ावों का
“किशोरावस्था” और “युवावस्था” में वर्णन है. मगर द्याकव – भले स्वभाव का, बेहद ज़हीन, ख़ुशनुमा, व्यावहारिक
इन्सान है, जो ज़िंदगी के उपहारों को हल्के-फुल्के ढंग से
स्वीकार करता है, - बेशक, टॉल्स्टॉय के
लघु उपन्यासों के राजकुमार नेख्ल्युदव जैसा ज़रा भी नहीं है : इस पात्र को भी मूलत:
जीवन से लिया गया है – ल्येव निकोलायेविच के भाई द्मित्री से, जिसकी सन् 1856 में टी.बी. से मृत्यु हो गई थी. द्याकव के साथ टॉल्स्टॉय
के रिश्ते ज़िंदगी भर अच्छे बने रहे, मगर ल्येव निकोलायेविच
की शादी के समय तक वे सिर्फ बाहरी शिष्ठाचार तक सीमित रह गए थे. उस काल में फेत
टॉल्स्टॉय के सर्वाधिक निकट था. और इस दोस्ती पर भी आश्चर्य किए बिना नहीं रहा जा
सकता. घुड़सवार दस्ते का सेवानिवृत्त ऑफ़िसर फेत, तुर्गेनेव की
राय में एकदम बेवकूफ़ था. उसकी कंजूसी के बारे में कहावतें मशहूर थीं : उसके लिए
ज़िंदगी का सर्वोत्तम वरदान थी दौलत, जिसकी तमन्ना उसे पूरे
दिल से थी. वह “कृषिदास” , मतलब अति रूढ़िवादी था, जो किसानों को आज़ादी देने के लिए सरकार से नाराज़ था. इन्हीं चरम विचारों
के कारण, जो तुर्गेनेव के उदारवादी विचारों से बिल्कुल भिन्न
थे, शायद उसे तुर्गेनेव की गंभीर आलोचना का शिकार होना पड़ा.
असल में फेत, निसःन्देह एक बेहतरीन इन्सान और कवि था – जिसने
“ख़ुदा की मेहेरबानी से” रूसी साहित्य को काफ़ी मौलिक रचनाएँ दी हैं. वास्तविक
कलात्मक सौंदर्य के प्रति वह बहुत संवेदनशील था. ज़िंदगी के अंतिम वर्षों में उसने
कई प्राचीन क्लासिक्स का काव्यानुवाद किया था, ग्योथे के
“फाउस्ट” के दोनों भाग और “शोपेनहावर की “द वर्ल्ड एज़ विल एन्ड रिप्रेज़ेन्टेशन”.
इन सारी प्रतिभाओं के होते हुए टॉल्स्टॉय के साथ उसका कोई साम्य नहीं था. मगर वह
ल्येव निकोलायेविच को बेहद पसंद करता था, उसके लिए प्रार्थना
करता था, और इस बिना शर्त प्रशंसा के कारण ही, ज़ाहिर है, टॉल्स्टॉय के मन में उसके प्रति आभार की
भावना थी.
गौर
करने की बात है,
कि बाद में टॉल्स्टॉय की
दार्शनिक निकोलाय स्त्राखव,
कलाकार गे, चेर्त्कोव से “दोस्ती” भी इसी प्रकार की थी.
जवानी
में टॉल्स्टॉय इस बात पर ज़ोर देता था,
कि लोगों का एक दूसरे के
निकट आना सिर्फ एक ही सूत्र पर आधारित है “सब या कुछ भी नहीं”. मगर, स्पष्ट था,
कि ये “सब” भी किसी ख़ास
तरह का होना चाहिए...
टॉल्स्टॉय
दम्पत्ति की सिमटी हुई ज़िंदगी में बस वे दोनों ही थे. जल्दी बूढ़ी हो चुकी “बुआजी”
तात्याना अलेक्सान्द्रोव्ना और उसकी बूढ़ी परिचारिका ने कभी भी अकेलेपन में ख़लल
नहीं डाला. और सिर्फ एक व्यक्ति,
जो इस एकसार, उबाऊ ज़िंदगी में कुछ मनोरंजक पल लाता था, वह थी “भूत की बच्ची- तात्यान्चिक” – सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना की छोटी बहन,
जो सन् 1863 के बसंत से
अक्सर और काफ़ी समय के लिए यास्नाया पल्याना में आती थी. उस “निठल्ली” को यहाँ सभी
लोग प्यार करते थे. ल्येव निकोलायेविच उसके इस विशेष स्वभाव को अच्छी तरह समझते थे
और वो उससे हमेशा के लिए छोटी बहन की तरह जुड गए. सन् 1862 में ही उन्होंने उसे
लिखा था: “मैंने इसमें हंसी और काव्यात्मक गांभीर्य की छटा लिये, तुम्हारा ग़ज़ब का, प्यारा
स्वभाव देखा. ऐसी दूसरी तान्या,
सही में, जिसे आसानी से ख़ुश नहीं कर सकते, और ऐसा दूसरा कद्रदान जैसे ल्येव टॉल्स्टॉय.” वह
बारीकी से इस जोश से भरपूर,
ज़िंदादिल, स्वयम् से प्यार करने वाली लड़की का निरीक्षण करते, जो उसकी आँखों के सामने एक ख़ूबसूरत, आकर्षक युवती में परिवर्तित हो रही थी.
“तुम
समझती हो, कि तुम मुफ़्त में मेरी रोटी खा रही हो?” उसने मज़ाक में कहा. “मैं तुम्हें पूरा का पूरा लिख रहा
हूँ.”
टॉल्स्टॉय
अपने पात्र ज़िंदगी से,
प्रकृति से लेते थे. मगर
उन लोगों से सहमत होना मुश्किल है,
जो उसके पात्रों में मूल
व्यक्ति के दास जैसा प्रतिरूप देखते थे. “ज़िंदगी” उसके लिये सिर्फ एक आरंभिक बिंदु
का काम देती थी. नताशा रस्तोवा के (“युद्ध और शांति” में) पात्र का बाह्य रूप, उदाहरण के लिए, अपनी
भावुकता और सभी रोमांचक कारनामों सहित आश्चर्यजनक ढंग से तानेच्का बेर्स की याद
दिलाता है. मगर इस अत्यंत वास्तविक स्वरूप के तीखे तेवरों को उसने रंग बिखेरने में
कंजूसी न करते हुए सौम्य और काव्यात्मक बना दिया. नताशा रस्तोवा में – स्वयम् लेखक
की महान आत्मा का काफ़ी बड़ा अंश है और,
इसी की बदौलत, वह रूसी साहित्य की एक अत्यंत मोहक नायिका है.
यह
समझना बहुत आसान है,
कि यास्नाया पल्याना में
बंद लोगों की ज़िंदगी में बैरोनेस मेंगदेन ने कितनी उथल-पुथल मचा दी होगी, जब वह टॉल्स्टॉय दम्पत्ति को नृत्य-समारोह में
आमंत्रित करने के लिए तूला से अचानक आई: तूला में शाही-सिंहासन के वारिस का इंतज़ार
था, और स्थानीय कुलीन उसका समारोहपूर्वक स्वागत करने की
तैयारी कर रहे थे. अपनी प्यारी साली की ख़ातिर ल्येव टॉल्स्टॉय को फ्रॉक-कोट पहनकर
उसे तूला ले जाना था;
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने
निराशा से तबियत ख़राब होने का बहाना बना दिया. वह अपनी “यादों” में लिखती है:
“लेवच्का ने मेरी बहन तान्या को नृत्य-समारोह में ले जाने का फ़ैसला किया, और मै पूरे दिल से उसके लिए बढ़िया सिंगार का इंतज़ाम
करने में जुट गई…जब ल्येव निकोलायेविच फ्रॉक-कोट पहनकर तान्या के साथ
नृत्य-समारोह में चले गए,
तो मैं फूट-फूटकर रोने
लगी और पूरी शाम रोती रही. हम एकजैसी ज़िंदगी जीते थे, बंद, उकताहटभरी,
और अचानक ऐसा मौका, और (मैं तब मुश्किल से 19 साल की थी) मुझे उससे वंचित
होना पड़ा”.
“पता
है,तान्या,”
उसने बहन से कहा, “अगर मेरी तबियत ठीक होती, तो भी
मैं नहीं जाती.”
“क्यों?”
“तुझे
तो लेवच्का के विचार पता ही हैं?
क्या मैं खुली कॉलर वाली
नृत्य की पोषाक पहन सकती थी?
ये ख़याल भी दिल में नहीं
ला सकती.
कितनी
ही बार उसने शादी-शुदा औरतों की आलोचना की है, जो
अपने ‘जिस्म की नुमाइश करती हैं’, जैसा
कि वो कहता है.”
ये
क्षणिक कमज़ोरी थी,
नैराश्यपूर्ण मनोदशा थी.
वैसे कहा जाए,
तो सोफ्या अन्द्रेयेव्ना
ने बहादुरी से अपनी सिमटी हुई,
गाँव की ज़िंदगी को
बर्दाश्त किया – तब भी,
जब उसका घोंसला पंछियों
से भरा नहीं था.
मगर
फिर भी कभी कभी वह उकता जाती,
उसका दम घुटने लगता.
शांति का टापू,
जहाँ वह 18 साल की उम्र
में पहुँच गई थी,
उसे संतोष नहीं देता:
चाहत होती है खुले समुंदर की,
तूफ़ान की. और ल्येव
निकोलायेविच अपनी डायरी में गौर करता है (3 मार्च 1863 को): “दुनिया में सबसे
ज़्यादा मुझे इसी मनोदशा का डर है”.
और दूसरी जगह: “कभी-कभी
और आज यही डर सता रहा है,
कि वो जवान है, और काफ़ी कुछ समझती नहीं है और पसंद नहीं करती, और मेरी ख़ातिर उसने काफ़ी सारी इच्छाओं का गला घोंट
दिया है और इन सब बलिदानों के लिए स्वाभाविक रूप से मुझे ज़िम्मेदार मानती है” (23
जनवरी 1863).
वह
समझ रहा था, कि इस ज़िंदगी में किसी तरह विविधता लाना चाहिए. मगर
लंबे समय के लिए मॉस्को जाने के विचार को स्थगित करना फिलहाल ज़रूरी था.
इस
संदर्भ में उसने अपने ससुर को लिखा: “मैं अक्सर इस बात का सपना देखता हूँ, कि मॉस्को के सीव्त्सेव व्राझेक में एक क्वार्टर हो.
सर्दियों में सामान भेज दिया जाए और मॉस्को में 3-4 महीने रहा जाए, अपनी यास्नाया की स्थानांतरित दुनिया में, उसी अलेक्सेइ के साथ, उसी
आया के साथ, उसी समोवार के साथ वगैरह. आप, आपकी दुनिया, थियेटर, संगीत,
किताबें, लाइब्रेरी (ये पिछले कुछ समय से मेरे लिए नितांत
आवश्यक हो गया है) और कभी कभी किसी नये होशियार आदमी के साथ उत्तेजक वार्तालाप, इन सब की यास्नाया में कमी महसूस होती है. मगर वो कमी, जो इन सभी कमियों से ज़्यादा बड़ी है – वो है हर कोपेक
गिनना, डरना,
कि मेरे पास इसके लिए, उसके लिए पैसा नहीं रहेगा. कुछ ख़रीदने की इच्छा होना
और साधन न होना और सबसे बुरी बात – इस बात पर शर्म आना, कि
मेरे घर में सब कुछ घिनौना और अस्तव्यस्त है. इसलिए, जब तक मैं मॉस्को की यात्रा के लिए एक निश्चित
राशि अलग से जमा करने की स्थिति में अपने आप को नहीं पाता, कम से कम 6000 रूबल्स, तब तक
ये सपना सपना ही रहेगा”. “अलग से जमा करने” की संभावना के लिए, सबसे पहले वह एक फार्म लेता है और हमेशा की तरह पूरी
लगन से काम करता है.
वह
घर से दो मील दूर एक मधुमक्खीशाला बनाता है, वहाँ
घंटों जाली के भीतर बैठा रहता है,
मधुमक्खियों का और उनके
जीवन का निरीक्षण करता रहता है. वह भेड-पालन शुरू करता है और यकीन दिलाता है, कि अगर जापानी सुअर प्राप्त नहीं करता, तो “सुखी नहीं हो सकता. और उन्हें प्राप्त करने के बाद
उत्साह से लिखता है: “क्या चेहरे हैं,
कैसी बढ़िया नस्ल है!...” वह फलों का बगीचा बनाता है, फर-ट्री के जंगल बनाता है, कॉफी, चिकोरी भी आज़माता है या अचानक बहुत बड़ी मात्रा में
कैबेज बोता है. उसे सुअरों के लिए काफ़ी खुराक चाहिए, वो
डिस्टिलरी-प्लान्ट भी बनाता है,
जबकि जवान बीबी इसका
विरोध कर रही थी : उसे लगता है कि ये अनैतिक है. उनके पास कोई मैनेजर नहीं है.
टॉल्स्टॉय इस काम के लिए एक स्टूडेंट-शिक्षक को तैयार करने की कोशिश करता है, क्योंकि स्कूल में दिलचस्पी ख़त्म हो गई थी. मगर शिक्षक
तो अर्थ-व्यवस्था के बारे में कुछ भी नहीं जानता और काम छोड़ देता है. तब टॉल्स्टॉय
एक “महान आविष्कार करता है” : “क्लर्क्स, मैनेजर्स
और प्रमुख अर्थ व्यवस्था में सिर्फ रुकावट ही डालते हैं; सारे प्रमुखों को निकाल दो और दस बजे तक सोते रहो, और सब कुछ,
शायद, बुरा नहीं चलेगा : मैंने ये प्रयोग किया और उससे पूरी
तरह संतुष्ट हूँ...” इस तरह के आविष्कार के बाद काम-काज का बंटवारा इस तरह से होता
है : सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को दफ़्तर,
किराए के मज़दूरों का
हिसाब-किताब,
घर-गृहस्थी, खलिहान,
पशुपालन की ज़िम्मेदारी
दी गई; ख़ुद ल्येव निकोलायेविच खेतों की, बगीचे की,
जंगलों की, मधु-मक्खियों की देखभाल करता था. हर विभाग में कुछ
बच्चे, यास्नाया पल्याना के स्कूल के विद्यार्थी काम कर रहे
थे.
काम-काज
की ऐसी व्यवस्था,
बेशक, सिर्फ मायूसी भरे परिणाम ही दे सकती थी. अनुमान और
सुझाव तो हमेशा बेहतरीन होते थे;
मगर प्रत्यक्ष में उन पर
अमल नहीं हो पाता था. जैसे,
उदाहरण के लिए, जापानी सुअर एक के बाद एक मर गए. काफ़ी दिनों बाद ये
पता चला. सुअरों की देखभाल के लिए ल्येव निकोलायेविच ने एक भूतपूर्व
सार्जेन्ट-मेजर को नियुक्त किया,
जिसे शराब की लत के कारण
नौकरी से निकाल दिया गया था. ऐसा “भला काम” नये सुअर-पालक को पसंद नहीं आया.
“तुम
आते हो, ऐसा होता था, सुअरों
के पास,” उसने बाद में बताया, “और
उन्हें थोडी सी खुराक देते हो,
जिससे वे कमज़ोर हो जाएँ. वे कमज़ोर हो भी जाते हैं. दूसरी बार आते हो – अगर कोई
आवाज़ करता है,
फिर से थोडी सी खुराक दो, और अगर ख़ामोश हो जाता है – फ़ौरन उस पर ढक्कन डाल
दो...”
मॉस्को
में बेचने के लिए जो ‘हैम’
भेजा जाता था, वह ठीक से तैयार नहीं किया जाता था, नमक भी ठीक से नहीं लगाया जाता था, थोड़ी से गर्मी होते ही वह ख़राब हो जाता, और तब उसे मिट्टी के मोल बेचना भी मुश्किल होता था.
तेल कडवा होता था;
टब के किनारों पर काफ़ी
फफूंद लगी होती थी...
खेती
का काम भी यूँ ही चल रहा था : चौदह साल का गाँव का लड़का, जिस पर सैकडों एकड भूमि पर मालिक के निर्देशों के पालन
की देखरेख की ज़िम्मेदारी थी,
इस काम के लिए सक्षम
नहीं था. और सिर्फ सेबों का बगीचा और जंगल के पौधे ही फल-फूल रहे थे.
काम-काज
की असफ़लता से कुछ राहत पाने के लिए ल्येव निकोलायेविच शिकार पर चला जाता, जिसका इन दिनों उसे बेहद शौक चढ़ा था. बसंत में ख़ासकर
कठफोड़े उसे बहुत आकर्षित करते थे. अपने प्यारे कुत्ते डोर्का के साथ वह सूर्यास्त
के समय प्रकृति का आनन्द उठाते हुए और पंछी की आवाज़ और उसके पंखों का फड़फड़ाना
सुनते हुए घंटों जंगल में खड़ा रहता. उसे खरगोशों और लोमडियों का पीछा करना बहुत
अच्छा लगता और वह बाधाएँ पार करते हुए कुत्तों के पीछे भागता, जोश में सब कुछ भूल जाता. एक बार, सन् 1864 की पतझड में वह अकेला ही शिकारी कुत्तों के
साथ अंग्रेज़ी स्टैलियन पर बैठकर,
जो कभी भी शिकार पर नहीं
गया था, निकला. अचानक एक खरगोश उछल कर बाहर आया, और सब उसके पीछे भागे. घोड़ा सामने आये गहरे गड्ढे को
पार नहीं कर पाया और गिर गया. टॉल्स्टॉय के दाएँ हाथ में चोट लगी और हड्डी सरक गई.
वह बड़ी देर तक बेहोश पड़ा रहा. होश में आने पर वह मुश्किल से राजमार्ग तक आया और
लेट गया. वहाँ से गुज़रने वाले मज़दूरों ने उसे गाड़ी पर रखा और गाँव की पास वाली
झोंपडी में ले गए (वह घर वालों को डराना नहीं चाहता था). सोफ्या अन्द्रेयेव्ना, जो उस समय दूसरी प्रसूति की राह देख रही थी, ख़ौफ़ से और लगभ दौड़ते हुए उसके पास पहुँची. तूला से आया
हुआ डॉक्टर कुछ न कर सका. और सिर्फ दूसरे दिन ही सर्जन मिल सका, जिसने कंधा ठीक कर दिया. ऑपरेशन सफ़ल नहीं हो पाया.
भयानक दर्द को झेलते हुए टॉल्स्टॉय को मॉस्को जाना पड़ा, जहाँ
क्लोरोफॉर्म देकर फिर से ऑपरेशन किया गया और हाथ ठीक किया गया. लम्बे इलाज के बाद
वह ठीक हुआ और बीबी के पास वापस जा सका, जो
अपने नन्हे-मुन्नों के साथ यास्नाया पल्याना में ही रुक गई थी. ये जुदाई और एक
दूसरे के प्रति संभावित खतरे का भय उन्हें और नज़दीक ले आया और एक अंतहीन नाज़ुक और
दिल को छू लेने वाली ख़तो-किताबत का बहाना बन गया.
मगर, इससे भी काफ़ी पहले के, कुछ
ख़तों से, जो उसने शिकारी-दूरी के दौरान सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को
लिखे थे – ग़ज़ब के प्यार की ख़ुशबू आती है. “तुम कहती हो,” जैसे, मिसाल के तौर पर, “कि मैं
भूल जाऊँगा. एक भी पल के लिए नहीं,
ख़ासकर जब लोगों के साथ
होता हूँ. शिकार पे मैं भूल जाता हूँ,
बस एक चाहा पक्षी के लिए
प्रार्थना करता हूँ : मगर लोगों के साथ – किसी भी बहस में, लब्ज़ में,
मैं तुम्हें ही याद करता
हूँ, और हर वो बात तुम्हें बताना चाहता हूँ,जो तुम्हारे सिवा किसी और से नहीं कह सकता...”
उसे
लगता है, कि पत्नी के प्रभाव में वह एकदम नया इन्सान बन रहा है.
स्कूल छोड़ दिया था. स्टूडेंट्स-शिक्षक इधर-उधर चले गए थे. शैक्षणिक–पत्रिका को भी
वह जल्दी ही समाप्त करना चाहता है.
“अब
सब कुछ कितना साफ़ है!” 8 फरवरी 1863को वह अपनी डायरी में लिखता है. “ये जवानी का
शौक था - करीब-करीब तमाशा था,
जिसे बड़ा होने के बाद
मैं जारी नहीं रख सकता. सब वो ही. वह नहीं जानती और समझती भी नहीं है, कि कैसे मुझे एक नया इन्सान बना रही है, इसके मुकाबले मैं उसे कम बदल रहा हूँ. सिर्फ, बगैर सोचे-समझे.
सोचते-समझते हुए तो मैं और वो,
दोनों ही हतबल
हैं...”
उसी
साल की पतझड़ में वह अपने मित्र से कहता है, कि ये
“बड़ा हो चुका” नया टॉल्स्टॉय कौन है.
“मैं
पति और पिता,
अपनी स्थिति से पूरी तरह
संतुष्ट हूँ और उसकी इतनी आदत हो गई है, कि
अपने सुख को महसूस करने के लिए,
मुझे ये सोचना पड़ता है, कि उसके बगैर क्या होता. मैं अपनी स्थिति की (बच्चों
की बात भूल जाओ) और अपनी भावनाओं की गहराई में नहीं जाता, और सिर्फ ये महसूस करता हूँ, मगर अपने पारिवारिक संबंधों के बारे में नहीं सोचता.
ये स्थिति मुझे काफ़ी विस्तीर्ण बौद्धिक कॅनवास देती है. मैंने कभी अनुभव नहीं किया
था कि मेरी बौद्धिक और नैतिक सामर्थ्य इतनी उन्मुक्त और कार्य करने में इतनी सक्षम
हैं. और ये कार्य मेरे पास है. ये कार्य है – सन् 1810-20 के कालखण्ड पर एक
उपन्यास, जिस पर मैं पतझड के मौसम से काम कर रहा हूँ. ये मेरी
चारित्रिक कमज़ोरी को दर्शाता है या शक्ति को – कभी-कभी मैं सोचता हूँ : इसे भी, और उसे भी,
- मगर मुझे स्वीकार करना
पड़ेगा, कि ज़िंदगी के प्रति, लोगों
के प्रति और समाज के प्रति मेरा दृष्टिकोण
उससे बिल्कुल भिन्न है,
जैसा तब था, जब हम मिले थे. उन पर दया की जा सकती है, मगर उनसे प्यार, मेरे
लिए समझना मुश्किल है,
कि मैं इतनी शिद्दत से
कैसे कर सका. फिर भी मैं ख़ुश हूँ,
कि इस अनुभव से भी सीखा
है; मेरी इस अंतिम प्रियतमा ने मुझे बहुत कुछ बनाया है. –
बच्चों और शिक्षा-शास्त्र से मुझे प्यार है, मगर
अपने आप को, उस रूप में, जैसा
मैं साल भर पहले था,
समझना मुश्किल है. बच्चे
शाम को मेरे पास आते हैं और अपने साथ उस शिक्षक की यादें लाते हैं, जो मुझमें था और जो अब नहीं होगा. अब मैं अपनी
अंतरात्मा की पूरी ताकत से लेखक हूँ,
और लिखता हूँ और सोचता
हूँ, जैसा पहले कभी नहीं लिखता था और ना ही सोचता था. मैं
सुखी और शांत पति और पिता हूँ,
जिसके पास किसी से भी
छुपाने के लिए कोई रहस्य नहीं है और कोई ख़्वाहिश भी नहीं है, सिवाय इसके कि सब कुछ पहले की तरह चलता रहे...”
“ईमानदारी
से जीने के लिए.” टॉल्स्टॉय ने,
जैसा कि हम देखते हैं, सन् 1857 में लिखा था, “ आहत
होना पड़ता है,
उलझना पड़ता है, चोट खाना,
ग़लती करना, शुरू करना,
फेंक देना, और फिर से शुरू करना और फिर से फेंकना, और निरंतर संघर्ष करना और वंचित होना पड़ता है. और
शांति – अंतरात्मा का ओछापन ...”
“नहीं, ये सब ऐसा नहीं है,” टॉल्स्टॉय अब कहते हैं, बडा होने के बाद : “याद है, मैंने कभी आपको लिखा था कि लोग गलतियाँ करते हैं, ऐसे किसी सुख की उम्मीद में, जिसमें न कोई परिश्रम, ना कोई धोखा, न दुख है और सब कुछ सरलता से और सुख से चलता रहता है. तब मैं ग़लत था : ऐसा सुख है, और मैं उसमें तीन साल से रह रहा हूँ, और दिन प्रतिदिन वो ज़्यादा सरल और ज़्यादा गहरा होता जाता है. और सामग्री, जिससे ये सुख बना है, सबसे ज़्यादा बदसूरत है – बच्चे, जो (माफ़ी चाहता हूँ) अपने आप को गंदा करते हैं और चिल्लाते हैं, पत्नी, जो एक को दूध पिलाती है, दूसरे का हाथ पकड़ कर ले जाती है और हर पल मुझे ताना देती है, कि मैं देखता नहीं हूँ, कि कैसे दोनों कब्र की कगार पे बैठे हैं, कागज़ भी और स्याही भी, जिनके माध्यम से मैं घटनाओं और लोगों की भावनाओं का चित्रण करता हूँ, जो कभी थे ही नहीं...”
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