सोमवार, 23 अप्रैल 2018

Tolstoy and His Wife - 6.1




अध्याय 6

संकट

1

सुख के इस साफ़ आसमान में, कभी कभी अचानक टॉल्स्टॉय को अचानक गहरे दुखभरे विचार घेर लेते हैं – विचार मृत्यु के बारे.

सन् 1863 में ही उसने लिखा था : “मैं लुढ़क रहा हूँ, लुढ़क रहा हूँ मृत्यु के पर्वत की ओर, और मुश्किल से ही अपने भीतर रुकने की शक्ति महसूस करता हूँ. मुझे मौत नहीं चाहिए, मुझे अमरत्व चाहिये, जिससे मैं प्यार करता हूँ...”

इस तरह की टिप्पणियाँ साठ और सत्तर के दशकों की उसकी डायरियों में प्रचुरता से दिखाई देती हैं.
समय के साथ-साथ ये विचार अक्सर प्रकट होते हैं. वे गहराते जाते हैं और उस पर अपना दबाव बनाते हैं. कभी कभी पढ़ने का भी इस पर असर होता है.

“पता है, मेरे लिए ये गर्मियाँ कैसी रहीं?” सन् 1869 में वह फ़ेत से पूछता है. “शोपेनहावर के प्रति अखण्ड उत्साह और आत्मिक आनंद के अनेक पल, जिन्हें मैंने कभी अनुभव नहीं किया था. मैंने उसकी सारी किताबें मंगवा लीं और पढ़ लीं और पढ़ रहा हूँ (कान्ट को भी पढ़ लिया). और सही है, कि किसी भी स्टूडेण्ट ने अपने कोर्स में इतना ज़्यादा नहीं सीखा होगा, और इतनी ज़्यादा जानकारी नहीं प्राप्त की होगी, जितनी मैंने इन गर्मियों में की है. पता नहीं, कि क्या मैं अपनी राय कभी बदलूंगा या नहीं, मगर फ़िलहाल तो मुझे यकीन है कि – शोपेनहावर – सब लोगों से ज़्यादा विद्वान है...”

टॉल्स्टॉय को ऐसे लोग अपनी ओर आकर्षित करते हैं, जो “जीवन के प्रति तर्कसंगत रवैया रखते हुए भी”, हमेशा उसकी कगार पे खड़े रहते हैं और जीवन को स्पष्ट रूप में इसलिए देख पाते हैं, कि कभी निर्वाण की ओर, असीमितता की ओर, अज्ञात की ओर देखते हैं, तो कभी संसार की ओर. निर्वाण की ओर देखने से, उसकी राय में, नज़र तेज़ होती है. उसकी इच्छा होती है वैचारिक रूप से जीवन की परिधि से बाहर निकलकर उसका विश्लेषण करने की.

इस तरह के प्रयोग, सिर्फ कल्पना शक्ति के ज़ोर पर, बिना किसी सज़ा के हो ही नहीं सकते थे. बेशक, वह अभी भी पूरी तरह से जीवन की भागदौड़ को – संसार को ही समर्पित है, - मगर कभी-कभी निर्वाण की कल्पना उसके दिल को निर्मम भय से ज़ोर से जकड़ लेती है.

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