3
विशाल
उपन्यास “युद्ध और शांति” की प्रतियाँ जल्दी ही ख़त्म हो गईं. जनता दूसरी आवृति की
मांग कर रही थी,
और इस दिशा में जल्दी ही
काम शुरू हो गया. आलोचकों के बीच
मतभेद था : कुछ लोगों ने उपन्यास को आसमान पे चढ़ा दिया, कुछ को
उसमें अनेक ख़ामियाँ नज़र आईं. मगर कुछ कलात्मक रचनाएँ ऐसी भी होती हैं, जिनका भाग्य आलोचना पर निर्भर नहीं करता. और टॉल्स्टॉय
का उपन्यास वैसी ही ऊँचाई पर था. अधिकांश लोगों ने इस रचना बेहद पसंद किया, जो कलात्मक उपलब्धियों के साथ-साथ रूसी दिल से भी बहुत
कुछ कह रही थी. “युद्ध और शांति” काफ़ी जल्दी और हमेशा के लिए रूसी राष्ट्रीय
महाकाव्य बन गया. उसके प्रकाशन के बाद टॉल्स्टॉय ने सामान्य जनता के दिल में
तत्कालीन रूसी साहित्य में मज़बूती से पहला स्थान ग्रहण कर लिया. टॉल्स्टॉय की अतीव
लोकप्रियता ने शैक्षणिक क्षेत्र में उसकी गतिविधियों पर भी प्रभाव डाला. बारह साल
पहले वह बड़े जुनून से स्कूलों के काम में व्यस्त रहा था और पूरे साल “यास्नाया
पल्याना” पत्रिका में जोशीले लेख लिखता रहा, जो
प्रस्थापित जर्मन-रूसी शिक्षण प्रणाली का विरोध करते थे. यह सब बिल्कुल सफ़ल नहीं
हुआ था. अब (सत्तर के दशक में) टॉल्स्टॉय के प्रकाशित वक्तव्य और सार्वजनिक
वाद-विवादों में उनके भाषणों ने सर्वसामान्य जनता का ध्यान आकर्षित किया. लोक-शिक्षण
के बारे में उनके विचारों का विवेचन न केवल शिक्षाविदों द्वारा ही नहीं किया गया : कोई भी ऐसा अख़बार या
पत्रिका नहीं थी,
जो इस वाद-विवाद से
उदासीन रही हो. टॉल्स्टॉय बुद्धिमान रूसी जनता के आकर्षण का केंद्र बन गया. उसकी
“एबीसी” को सरकारी मान्यता नहीं मिली,
इसीलिए स्कूलों में उनका
प्रसार नहीं हुआ,
उन्हें फ़ौरन सही जगह
नहीं मिली. मगर फिर भी,
उसकी पहली “एबीसी” और
उसके साथ की पाठ्य पुस्तक (जो काफ़ी महंगी थी) आख़िरकार ग्रंथ-सूचियों की दुर्लभता बन गई. दूसरी “एबीसी” की पच्चीस
साल में 1500 000 प्रतियाँ बिक गईं.
“आन्ना करेनिना” का
प्रकाशन एक महान सामाजिक घटना बन चुका था. पत्रिका “रशियन मेसेंजर” के अंकों को
पाने के लिए, जिसमें कई साल “आन्ना करेनिना”
धारावाहिक रूप में छप रहा था, झगड़ा हो जाता था : उन्हें
महारानी के अंतर्कक्ष में, और समाज के विभिन्न तबकों में बड़ी
अधीरता से पढ़ा जाता था. उपन्यास उस समय के अत्यधिक लोकप्रिय विचारों का खंडन करता
था. चरमवादी आलोचकों ने ये कहकर उसकी सफ़लता को कम आंकने की कोशिश की, कि उपन्यास की पृष्ठभूमि प्रतिगामी (जैसा उन्हें प्रतीत हुआ) है. मगर
टॉल्स्टॉय ने फिर से जनता को सम्मोहित कर दिया; वह तत्कालीन प्रचलित
मान्यताओं से ऊँचा साबित हुआ. रूसी उपन्यासकारों में उसका
प्रथम स्थान फिर से बड़ी शान से पक्का हो गया और अंत में हमेशा के लिए स्थिर हो
गया. दस्तयेव्स्की को उपन्यास के सारे विचार पसंद नहीं आए. मगर फिर भी उसने बड़े
जोश से उसका स्वागत किया. अपनी सन् 1877 की “लेखक की डायरी” में उसने, बातों बातों में “आन्ना करेनिना” – रूसी उपन्यासों में अत्यंत प्रसिद्ध उपन्यास
- के बारे में लिखा, “जिसकी सज़ा से वह पूरी तरह सहमत है” :
“ इस चीज़ के बारे में अब
तक नहीं सुना था, ये चीज़ - पहली है. हमारे लेखकों
में से कौन इसकी बराबरी कर सकता है? और यूरोप में – इस तरह
की चीज़ की क्या कोई कल्पना भी कर सकता है? क्या उनके सभी
साहित्यों में, पिछले कुछ वर्षों में,
और उससे भी काफ़ी पहले, कोई ऐसी रचना हुई है, जो इसके साथ रखी जा सके?”
ये थी वास्तविक,
अंतिम प्रसिद्धि, जो सभी संदेहों से परे थी.
इस क्षेत्र में हासिल करने के लिए अब कुछ बचा नहीं था.
प्रसिद्धि के साथ पैसे भी
आये. यास्नाया पल्याना की अर्थ व्यवस्था से कोई ज़्यादा मुनाफ़ा नहीं होता था. मगर
टॉल्स्टॉय के पास निकोल्स्कोए में (यास्नाया पल्याना से 100 मील दूर) एक जागीर थी,
जो उसे सन् 1860 में गुज़र गए बड़े भाई से मिली थी. निकोल्स्कोए काली
मिट्टी वाले क्षेत्र में थी और बिना किसी विशेष परिश्रम के साल भर में करीब 5000
रूबल्स की आमदनी देती थी. इन्हीं पैसों पर परिवार का खर्चा चलता था और कभी-कभार
एक-दो महीनों के लिए वे मॉस्को भी हो आते थे. जब “युद्ध और शांति” की बिक्री से
मोटी रकम आना शुरू हो गई, तो टॉल्स्टॉय ने उससे ज़मीन खरीदने
का फैसला किया. वह खरीदने के लिए कोई जागीर ढूँढ़ने लगा. सन् 1869 में पेन्ज़ा
प्रांत का लम्बा चौड़ा दौरा भी करता है, इस उम्मीद में कि इस दूर
दराज़ के प्रांत में ज़मीन ख़रीदना फ़ायदेमन्द रहेगा. ये सौदा न हो सका. इस बीच उसने
समारा की स्तेपी में सस्ती ज़मीन पर नज़र डाली. वह इन भागों से परिचित था, क्योंकि शादी से पहले उसने यहीं पर कुमिस का इलाज करवाया था.
मगर सन् 1871 में
टॉल्स्टॉय की तबियत वैसे ही बिगड़ने लगी, जैसे 10
साल पहले बिगड़ी थी. “कमज़ोरी महसूस होने लगी और कुछ नहीं चाहिए और किसी चीज़ की
ख़्वाहिश नहीं है, सिवाय शांति के, जो
नहीं है”, - इस तरह से वह ख़ुद अपनी स्थिति का वर्णन करता है.
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को यकीन था, कि उसकी तबियत अत्यधिक
थकान के कारण बिगड़ी है : वैसे, इसके पहले ल्येव निकोलायेविच
पूरे जुनून से ग्रीक भाषा पढ़ने और क्लासिक्स पढ़ने में जुट गया था. वह बड़ा भाग्यवान
था, कि “ख़ुदा ने ये बेवकूफ़ी उसके सिर मढ़ दी है”, मगर बीबी ने उसके इस जुनून को नहीं समझा और इसी को पति की बीमारी का कारण
मान लिया. इलाज करवाना ज़रूरी था. मॉस्को में सलाह-मशविरा करके, ल्येव निकोलायेविच ने कुमिस के इलाज के लिए जाने का निश्चय किया, समारा प्रांत के उन्हीं स्थानों पर जहाँ वह दस साल पहले गया था. छह हफ़्ते
के इलाज के दौरान टॉल्स्टॉय ने बीबी को चौदह ख़त लिखे, जो
सराबोर थे “प्यार से भी ज़्यादा, किसी चीज़ से”. “जबसे मैं तुमसे दूर गया हूँ, दिन-ब-दिन,” मिसाल के तौर पर वो लिखता है, “मैं और भी ज़्यादा शिद्दत से और भावुकता से, और
उत्सुकता से तुम्हारे बारे में सोचता हूँ, और मेरी तकलीफ़
बढ़ती जाती है. इसके बारे में कहा नहीं जा सकता...”,
“तुम्हारे ख़त बगैर आँसुओं के मैं पढ़ न सका, और मैं पूरा
थरथरा रहा हूँ,और दिल धड़क रहा है. और तुम तो जो दिमाग़ में
आता है, वो ही लिख देती हो, मगर मेरे
लिए हर शब्द महत्वपूर्ण है, और मैं बार बार उन्हें पढ़ता
हूँ...”
कुमिस के इलाज ने टॉल्स्टॉय
की शक्ति को पुनर्जीवित कर दिया और उसकी हमेशा की ज़िंदादिली वापस लौटा दी. समारा
की कुँआरी स्तेपी में उसे 2700 एकड की एक अच्छी जागीर मिल गई,
सिर्फ 7रुबल्स प्रति एकड़ के भाव से. “इस खरीदारी से,” उसने पत्नी को लिखा, “अद्भुत लाभ हुआ है...” “आय
हमारे मुकाबले दस गुना ज़्यादा है, और भागदौड़ और श्रम दस गुना
कम”. ये सौदा सन् 1872 में हुआ . टॉल्स्टॉय अपनी नई जागीर में घर और फार्म बनाने
के लिए चला गया. एक साल बाद पूरा परिवार गर्मियों में समारा की स्तेपी चला गया.
टॉल्स्टॉय की खूप लाभ कमाने की आशाएँ, जो उसके द्वारा
प्राप्त की गई ज़मीन के उपयोग से होने वाला था, खरी नहीं
उतरीं. समारा की काली मिट्टी को नमी की ज़रूरत होती है. सूखा पड़ने से पूरी-पूरी फसल
नष्ट हो जाती है. इस तरह का अकाल इस इलाके में 1871-1873 के दौरान पड़ा था. बश्कीरी
और रूसी किसानों ने अपनी सारी पूंजी खर्च कर दी, वेतन
न्यूनतम सीमा तक पहुँच गया. भीषण भुखमरी की आशंका थी. टॉल्स्टॉय लोगों के दुख का
उदासीन गवाह बनकर नहीं रह सकता था. उसने आसपास के बश्कीरों और रूसी किसानों की दिल
खोल कर, और खूब मदद की.
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के
शब्दों में, उसने “पति को यकीन दिलाया, कि उसे इस समस्या पर काम करना चाहिए”. टॉल्स्टॉय ने पूरी छानबीन की. इस
प्रश्नावली के परिणामस्वरूप “मॉस्को राजपत्र” में संभावित अकाल और भुखमरी के बारे
में उसका पत्र प्रकाशित हुआ. “संकट आरंभ हो गया है, और
वर्तमान में, गर्मियों में भी, लोगों
की ओर बिना ख़ौफ़ के देखा नहीं जा सकता, जब सबसे
दुर्भाग्यपूर्ण वर्ष शुरू हुआ ही है, और नई फसल तक पूरे बारह
महीनों का इंतज़ार है, और जब, अभी भी
कही-कहीं कोई मज़दूरी मिल जाती है, जो कम से कम कुछ समय के
लिए भुखमरी से बचा लेती है...”
इस दिशा में स्थानीय
सरकारी निकायों की गंभीरता और ईमानदारी से काम करने की इच्छा पर निर्भर न रहते हुए,
टॉल्स्टॉय ने अपनी राजमहल वाली बुआजी को भी पत्र लिखा और विनती की,
कि महारानी को भी इस काम के लिए चंदा देने की विनती करें. टॉल्स्टॉय
के इन प्रयत्नों का बहुत अच्छा परिणाम हुआ. अकाल पीडितों की सहायता के लिए पूरे
रूस से करीब बीस लाख रूबल्स जमा हो गए. शासन ने इस प्रांत की दशा पर गंभीरता से
ध्यान दिया.
हालाँकि ज़मीन कठिन समय में
ख़रीदी गई थी और उससे कोई आमदनी भी नहीं हुई, फिर भी
टॉल्स्टॉय समारा का कारोबार चलाते रहे. वह और उनका परिवार आगे भी कई बार गर्मियों
में समारा जाते रहे. सन् 1878 में (जब मानसिक संकट का काल आरंभ हो रहा था) ल्येव
निकोलायेविच ने अपनी जागीर से लगी हुए और कई हज़ार एकड ज़मीन 13 रूबल प्रति एकड के
भाव से खरीद ली. उसने स्तेपी में घोड़े पालने की कोशिश की, और
एक समय में तो उसके अस्तबलों में चार सौ घोड़े थे. मगर यहाँ भी उसके आर्थिक उद्यम
सफ़ल नहीं हुए और धीरे-धीरे न्यूनतम सीमा तक पहुँच गए.
मगर हर हाल में,
एक बात तो विश्वास के साथ कहनी पड़ेगी : सत्तर के दशक के अंत तक
टॉल्स्टॉय काफ़ी सम्पन्न हो चुका था. बड़े परिवार को देखते हुए भी, जिसे किसी भी महत्वपूर्ण बात में इनकार करना उसे अच्छा नहीं लगता था,
अपनी साहित्यिक रचनाओं से वह अपनी सम्पत्ति में कई गुना वृद्धि कर
चुका था : अस्सी के दशक के आरंभ में उसने ख़ुद ही उसका मूल्यांकन किया था – 600 000
रूबल्स.
“भले,
ईमानदार सुख के” सभी लक्षण, जैसा उस समय
टॉल्स्टॉय उसे समझता था, प्रत्यक्ष थे. प्रसिद्धि, जो अब तक अपने जीवन काल में किसी भी रूसी लेखक को प्राप्त नहीं हुई थी;
आय के साधन – आवश्यकता से कहीं अधिक; परिवार –
प्यारा, दोस्ताना, प्रसन्न.
और यास्नाया पल्याना में
भी सुख से रहना उन्हें आता था.
ल्येव निकोलायेविच काफ़ी
देर से उठता था और गाउन में, और बिना संवारी
हुई, गुच्छा बन गई दाढ़ी में ही शयनकक्ष से बाहर आता था,
और अपने अध्ययन कक्ष में कपड़े पहनने चला जाता. अध्ययन कक्ष से वह
तरोताज़ा, जोश में, भूरा ढीला-ढाला
कुर्ता पहने आता और कॉफ़ी पीने के लिए हॉल में चला जाता. इस समय तक बच्चे नाश्ता कर
चुके होते. जब मेहमान न होते, तो वह हॉल में ज़्यादा देर नहीं
बैठता और चाय का प्याला लेकर अपने अध्ययन कक्ष में लिखने-पढ़ने के लिए चला जाता.
अगर कोई उससे मिलने के लिये आया होता, तो टॉल्स्टॉय बात करना
शुरू करता, उसी में खो जाता और किसी भी तरह वहाँ से जा नहीं
पाता. एक हाथ चमड़े की बेल्ट पर रखे, और
दूसरे में अपने सामने चांदी के होल्डर में चाय से भरा गिलास पकड़े, वह दरवाज़े के पास ठहर जाता और अक्सर बड़ी देर तक, कभी
कभी आधे घण्टे तक, एक ही जगह पर खड़े-खड़े बोलता रहता, बड़ी दिलचस्पी और ज़िंदादिली से बोलता रहता. आख़िरकार वह काम करने के लिए चला
जाता. सर्दियों में बच्चे कक्षा वाले कमरों में भागते फिरते, और गर्मियों में – बाग में, क्रॉकेट के, लॉन टेनिस के ग्राउण्ड में, बड़े-बड़े कदमों से...
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना हॉल में बैठकर छोटे बच्चों के लिए कुछ सीती रहती या रात को
जो पुनर्लेखन का काम पूरा न कर पाई होती, उसे करने बैठ जाती.
गाँव से उसके पास अक्सर छोटे बच्चों को लेकर औरतें और मज़दूर आते – अपनी बीमारियों
का रोना रोने, और वह, बाहर आकर,
उनका इलाज करने की कोशिश करती और मुफ़्त में घरेलू दवाइयाँ देती. घर
में 3-4 घंटे पूरी शांति रहती. “ल्येव निकोलायेविच काम कर रहे हैं!” फिर वह अध्ययन
कक्ष से बाहर आता और या तो तैरने के लिए या घूमने निकल जाता. कभी बंदूक और कुत्ते
को साथ लेकर, कभी घोड़े पर, और कभी पैदल
ही. पांच बजे घंटा बजता, जो घर के सामने टंगा था. बच्चे हाथ
धोने के लिए भागते. सब लोग लंच के लिए इकट्ठा होते. ल्येव निकोलायेविच अक्सर देर
से पहुँचता. वह परेशान सा आता, गृह स्वामिनी से माफ़ी मांगता,
अपने लिए चांदी के गिलास में थोड़ी सी शराब डालता. वह अक्सर काफ़ी
भूखा होता और जो भी सामने होता सब खा जाता. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना उसे रोकती,
ये कहती कि सिर्फ पॉरिज ही न खाये; कटलेट्स और
हरी सलाद भी आ रही है...
“तुम्हारे लिवर में फिर
दर्द होने लगेगा.”
मगर वह नहीं सुनता था,
और ज़्यादा की मांग करता था, जब तक उसका पेट न
भर जाता.
इसके बाद वह बड़ी दिलचस्पी
और स्पष्टता से सैर के अनुभव सुनाता. और सब ख़ुश हो जाते. वह बच्चों और बडों से
मज़ाक करता, और उसकी ज़िंदादिली के सामने निराशा
का वातावरण रह ही नहीं सकता था. खाने के बाद वह वापस अपने अध्ययन कक्ष में काम
करने कि लिए चला जाता, और 8 बजे पूरा परिवार समोवार के
इर्दगिर्द इकट्ठा हो जाता. बातें शुरू हो जातीं, कोई किताब
ज़ोर से पढ़ी जाती, संगीत, गाना; और अक्सर बड़े लोग इन गतिविधियों में वहीं खेल रहे बच्चों को शामिल कर
लेते. बच्चों के लिए दिन ख़त्म होता दस बजे. मगर हॉल में इसके बाद भी काफ़ी समय
बातचीत सुनाई देती. वहाँ शतरंज खेली जाती, ताश खेले जाते,
बहस होती. ल्येव निकोलायेविच पियानो के पास बैठ जाता. और सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना उसके साथ-साथ बजाते हुए पूरी ताकत से लय न टूटने देती. कभी कभी गाने
की आवाज़ आती, जिसमें ख़ासकर “तान्या आण्टी” लाजवाब होतीं – वही
“भूत की बच्ची-तात्यान्चिक”, जिसके बारे में हम ऊपर कई बार
बता चुके हैं. सन् 1868 में, कुछेक मुश्किल और उलझनभरे
प्रेम-प्रसंगों के बाद उसने अपने बचपन के दोस्त, कुज़्मिन्स्की
के चचेरे भाई से शादी कर ली, और लगभग हर साल पति और बच्चों
के साथ टॉल्स्टॉय दम्पत्ति के साथ गर्मियाँ बिताती. गर्मियों में आम तौर से
यास्नाया पल्याना में निरंतर त्यौहार जैसा वातावरण रहता था. इस प्यारे परिवार में
सभी रिश्तेदार बरबस खिंचे चले आते थे. कुज़्मिन्स्की परिवार के अलावा, यहाँ बेर्स परिवार के अन्य सदस्य भी अक्सर आया करते थे, और साथ ही काउन्टेस मारिया निकोलायेव्ना टॉल्स्टाया (लेखक की बहन) अपने
बढ़ते बच्चों के साथ, काउण्ट सिर्गेइ निकोलायेविच टॉल्स्टॉय,
द्याकोव परिवार भी अक्सर आता था. फेत दम्पत्ति और अन्य लोग भी आते.
इन सब के रहने और खाने के इंतज़ाम की ज़िम्मेदारी (कभी कभी काफ़ी सारे लोग जमा हो
जाते) पूरी तरह सोफ्या अन्द्रेयेव्ना पर आन पड़ती थी. कभी-कभी ये सम्मेलन और
पारिवारिक आयोजन (गर्मियों और सर्दियों में) उसके लिए सामर्थ्य से ज़्यादा हो जाते
थे. सन् 1865 की जनवरी में उसने बहन को लिखा : “ये तय किया कि बाप्तिज़्मा के अवसर
पर शानदार नृत्योत्सव और स्वांगों का जलसा होगा... इतनी हड़बड़ी हुई, पूरा घर उलट-पुलट हो गया. ल्येवा ने और मैंने सिंहासन का इंतज़ाम
किया...वा-या को दुल्हन के सहायक की पोषाक पहनाई...लीज़ा ने ऐसे कपड़े पहने, जैसे अल्जीरिया में पहनते हैं...दूश्का को ल्येवा ने बूढ़े सेवानिवृत्त मेजर
की ड्रेस पहनाई...मज़दूर को दूध पिलाने वाली की; वास्का
बेल्का, रसोइए के बेटे को चादर में लपेट कर उसके हाथों में
दे दिया. फिर दो आदमियों से एक घोड़ा बनाया गया, और घोड़े पर
दूश्का. हमारे सब लोग तैयार हो गए थे, छह बज चुके थे,
मगर सिर्योझा नहीं आया था. हम परेशान होने लगे, कि अचानक घंटियाँ बजने लगीं – और सिर्योझा बड़े सारे झुण्ड समेत, संदूक और दूसरी कई चीज़ों के साथ टपक पड़ा. उन्हें
मेरे शयन कक्ष में ले गए, वहाँ वे तैयार हुए. ल्येवा ने अपने
लोगों को अध्ययन कक्ष में कपड़े पहनाए. माशेन्का ने अपने लोगों को आण्टी के कमरे
में तैयार किया. मैं रोशनी के, उनकी आवभगत के और ख़ास कर
बच्चों के इंतज़ाम में लगी थी...फिर म्यूज़िशियन्स आए...बजाने लगे, दरवाज़े खुले, हमारी जोड़ियाँ बाहर आईं, सबसे आगे बौना था, शैतान की वेशभूषा में, फिर सिर्योझा की जोड़ियाँ...ये सब डफ़लियों, शोर-गुल,
पटाखों, तश्तरियों के साथ, और सबसे पीछे विशाल, करीब करीब छत को छूता हुआ
भीमकाय...इतना असरदार...कि बता नहीं सकती. दरबारियों का रेला लग गया...और फिर बस
एक ही भगदड़, कि वर्णन ही नहीं कर सकती. गाने, नाच, खेल, बुलबुलों की लड़ाई,
पटाखे, डान्स, अल्पाहार
और, आख़िर में, आतिशबाज़ी...मैं ज़्यादातर
नीचे ही बैठी रही, बच्चों के साथ, मुझे,
मानती हूँ, ये सब भगदड़ अच्छी नहीं लग रही थी. दिन-दिन
भर फिक्र करते रहो दोपहर के, रात के खाने की, बिस्तरों की, अल्पाहार की वगैरह...तीन बजे तक नाच
गाना चलता रहा. दूसरे दिन सब लोग हमारे यहाँ रुक गए, हम दो त्रोयकाओं
में घूमने निकल पड़े, और एक दूसरे से आगे निकलते रहे, वो भी बड़े जोश से...”
सन् 1871 में घर में कुछ अतिरिक्त
निर्माण करना पड़ा. और काम पूरा होने के बाद, क्रिसमस के
त्यौहार पर घर में फिर से स्वांगों का जलसा हुआ – उसी तरह, जैसा
ऊपर वर्णित है. इस बीच एक रास्ता दिखाने वाला आया - दो भालुओं और एक बकरी के साथ. रास्ता
दिखाने वाला निकला टॉल्स्टॉय का मित्र – द्याकव, भालू – दो रिश्तेदार,
और बकरी – ख़ुद ल्येव टॉल्स्टॉय.
क्रिसमस अक्सर काफ़ी शोर-गुल
से मनाया जाता था, जिसके लिए पूरा परिवार काफ़ी पहले से
तैयारियाँ शुरू कर देता – क्रिसमस ट्री की सजावट का सामान और किसान बच्चों के लिए उपहार
तैयार किए जाते.
कभी कभी समारोह कम शोरगुल वाले
और अधिक भावनापूर्ण हो जाते. कुज़्मिन्स्काया सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के जन्म दिन के एक
भोज का वर्णन करती है:
“सत्रह सितम्बर का दिन आया.
मेरा और अन्य सबका मिजाज़ बहुत अच्छा था. हम सब सजे धजे थे,
रंगबिरंगी रिबन्स लगी सफ़ेद पोषाकों में थे. खाने की मेज़ फूलों से सजाई
गई थी, और नई टैरेस धूप में नहाई थी. याद है, कि हम सब कितना शोर मचाते हुए और ख़ुशी से मेज़ पर बैठे थे. और अचानक वृक्ष-वीथी
से ऑर्केस्ट्रा की धुन सुनाई दी. उस पर “फेनेल्ला” ऑपेरा के आरंभिक
गीत “शिकारी का घर पोर्तिची में” बजाया जा रहा था, जो सोन्या
को बेहद पसंद था. सोन्या को छोड़कर, बाकी हम सब जानते थे,
कि ल्येव निकोलायेविच ने कर्नल से ऑर्केस्ट्रा भेजने की विनती की थी,
मगर इसे गुप्त रखना था. सोन्या के चेहरे के भावों का वर्णन नहीं कर पाऊँगी!
उस पर सब कुछ था : आश्चर्य, भय, कि ये सपना
था, प्यार, जब उसने ल्येव निकोलायेविच के
चेहरे की तरफ़ देखा और उसके भावों को समझ गई. उसका चेहरा सोन्या के चेहरे जैसा ही दमक
रहा था...”
उस समय ल्येव निकोलायेविच ने
जवान पत्नी के प्रति नज़ाकत की भावना से सबको चौंका ही दिया था. उसने गिटार बजाना भी
सीख लिया था और गाने लगा : “उससे कहो, कि भावुक आत्मा से...”
हाँ,
सुख का समय था! और टॉल्स्टॉय सन् 1872 में अपनी बुआ को लिख सका,
किसी ठोस वजह के आधार पर : “मेरी ज़िंदगी वैसी ही
है, मतलब इससे ज़्यादा किसी चीज़ की कामना नहीं कर सकता”.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें