गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

Tolstoy and His Wife - 4.5




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क्या टॉल्स्टॉय को हमेशा “कटे हुए, बंधे हुए और एक तने के रूप में बढ़ते हुए सेब के पेड़” के रूप में अच्छा लगता था?       

सन् 1865 के अंत में उसने 13 सालों तक अपनी डायरी लिखना बंद कर दिया था. ये, बेशक, रचनात्मकता के दबाव के कारण हुआ होगा. मगर इसके विपरीत भी हुआ होगा. सुखी पति-पत्नी के बीच कोई रहस्य नहीं थे. उनमें से हरेक दूसरे का लिखा हुआ मज़मून, दूसरे की ख़तो-किताबत पढ़ता था. ऐसी हालत में डायरी में पारिवारिक जीवन के सभी उतार-चढ़ावों को पूरी ईमानदारी से प्रकट करना मुश्किल था. लिखे हुए शब्द दूसरे की आत्मा में किसी भी तरह से अपवर्तित हो सकते थे, किसी विशेष तरह का प्रभाव डाल सकते थे, अप्रत्याशित उलझनें पैदा कर सकते थे. शायद, टॉल्स्टॉय ने कई बार गौर किया हो, कि डायरी के पन्नों पर परावर्तित उसके क्षणभंगुर मूड्स उनके पारिवारिक सुख के साफ़ आसमान पर काले बादलों की तरह गहरा जाते थे. हो सकता है, कि समझौता करने की इच्छा न होने के कारण, अपने विचार और अपनी भावनाओं को (क्षणभंगुर ही सही) दबाने की ख्वाहिश के कारण, किसी भी तरह की बेईमानी को बर्दाश्त न करते हुए, टॉल्स्टॉय को अनेक वर्षों के अपने आप से इस संवाद को रोकना पड़ा हो.

इसीलिए उन झगडों के बारे में, जो हर परिवार में होते ही हैं, गिनी-चुनी टिप्पणियाँ बहुत महत्वपूर्ण हो जाती हैं. पहले वह विस्तार से उनके बारे में बताता है. ये “प्यार के घाव”, जिन पर फ़ौरन “चुम्बनों का मरहम” लगा दिया जाता था, उसे परेशान करते हैं और गहरा दुख पहुँचाते हैं. उसे मालूम है, कि इस तरह का “मरहम” – झूठा है. “हर तरह की ऐसी झड़प,” वह लिखता है, “चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, प्यार को चीर देती है. आकर्षण की, नैराश्य की, अहंकार की, गर्व की पल भर की भावना – गुज़र जाती है, मगर दुनिया में जो सबसे बेहतरीन चीज़ है, उस प्यार में भी, हमेशा के लिए, छोटा सा ही सही, निशान छोड जाती है.”... बाद में (सन् 1865 में), इन स्वीकारोक्तियों के साथ ही, कि वह “सुखी है, जैसा लाखों में एक होता है”, ऐसी छोटी-छोटी टिप्पणियाँ भी देखने को मिलती हैं : “सोन्या के साथ बोलचाल बंद है”, “सोन्या के साथ कुछ शत्रुता”...

कभी-कभी हालात और भी गंभीर हो जाते हैं.                                   

“मैंने सोचा,” वह 2 जून को लिखता है, “कि मैं बूढ़ा हो रहा हूँ और मर रहा हूँ, सोचा, कि भयानक बात है, कि मैं प्यार नहीं करता. मुझे अपने आप से ही बड़ा ख़ौफ़ हुआ, कि मेरी दिलचस्पियाँ – पैसा या ओछी समृद्धि है. जैसे कुछ समय के लिये मेरी आँख लग गई थी...”

या:

“अपने सुख को भौतिक परिस्थितियों – पत्नी, बच्चे, सेहत, अमीरी से जोड़ना...भयानक, डरावना, बेमतलब का है...”

पलभर के दुख के प्रभाव में, वह अपने पहले के “जंगलीपन” को खोजता है : “कहाँ हूँ मैं, वो मैं, जिसे मैं ख़ुद प्यार करता था और जानता था, जो कभी-कभी प्रकट हो जाता है, पूरा, और मुझे ख़ुशी भी देता है और डराता भी है? मैं छोटा और ओछा हूँ. और ऐसा मैं तब से हूँ, जबसे उस औरत से शादी की है, जिसे प्यार करता हूँ.”

उसकी अंतरात्मा के भीतर कुछ गहरी प्रक्रियाएँ हो रही हैं. कभी-कभी वे ऊपर आ जाती हैं और उसे ही चकित कर जाती हैं.

15 जनवरी 1863 को वह लिखता है : “घर में अचानक सोन्या पे दहाड़ा, इसलिए कि वह मुझसे दूर क्यों नहीं गई. और शरम भी आई और डर भी लगा...”

सोफ्या अन्द्रेयेव्ना की बहन ने अपने संस्मरणों में इस हादसे का ज़िक्र किया है, जो सन् 1867 में हुआ था:

“सोन्या ने मुझे बताया, कि वह ऊपर अपने कमरे में अलमारी के खाने के सामने नीचे बैठकर चिंधियों की पोटलियाँ समेट रही थी. (वह मज़ेदार ढंग से बैठी थी). ल्येव निकोलायेविच उसके कमरे में आये और बोले:
“तुम फर्श पर क्यों बैठी हो? उठो!”
“अभी उठती हूँ, बस ये समेट लूँ.”
“मैं कह रहा हूँ, अभी उठो,” वह ज़ोर से चिंघाडा और अपने अध्ययन कक्ष में चला गया.

सोन्या समझ नहीं पाई कि उसे इतना गुस्सा किसलिए आया है. उसे बहुत अपमान लगा, और वह अध्ययन कक्ष में गई. अपने कमरे से मैं उनकी थरथराती हुई आवाज़ें सुन रही थी, कान लगाकर सुना, मगर कुछ भी समझ न पाई. और अचानक मैंने किसी चीज़ के गिरने की, काँच के टूटने की आवाज़ सुनी और फिर आई एक चीख:
“चली जा, चली जा!”

मैंने दरवाज़ा खोला. सोन्या वहाँ नहीं थी. फर्श पर पडे थे कांच के टूटे हुए बर्तन और थर्मामीटर, जो हमेशा दीवार पर टंगा रहता था. ल्येव निकोलायेविच कमरे के बीचोंबीच खड़ा था, उसका मुख विवर्ण था, निचला होंठ कांप रहा था. उसकी आँखें एक ही बिंदु पर स्थिर थीं. मुझे दया आई और डर भी लगा – मैंने उसे ऐसी हालत में कभी नहीं देखा था. मैंने उससे एक भी शब्द नहीं कहा और सोन्या के पास भागी. वह इतनी दयनीय लग रही थी. जैसे पगला गई हो, बस एक ही बात दुहराए जा रही थी : “किसलिए? उसे क्या हो गया है?” उसने कुछ देर बाद मुझे बताया:

“मैं अध्ययन कक्ष में गई और उससे पूछा : लेवच्का, तुम्हें क्या हो गया है?”
“चली जा, चली जा!” कड़वाहट से वो चीखा. मैं डरते-डरते, परेशानी से उसके पास गई, उसने हाथ से मुझे धकेल दिया, कॉफ़ी और प्याले वाली ट्रे उठाई और सब कुछ ज़मीन पर फेंक दिया. मैंने उसका हाथ पकड़ लिया, वह गुस्सा हो गया, दीवार से थर्मामीटर खींचा और उसे फर्श पर पटक दिया.

मैं और सोन्या कभी भी समझ नहीं पाए, कि किस बात ने उसे इतना वहशी बना दिया था...”

कटा-छटा और बंधा हुआ सेब का पेड़ का अचानक कसमसाने लगा था, और वह पूरे आवेश से सीधा खड़ा होने लगा...

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