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“मेरी
बीबी गुड़ियों से बिल्कुल नहीं खेलती. आप उसे अपमानित न करें. वह मेरी गंभीर
असिस्टेन्ट है...”
ये
टॉल्स्टॉय ने सन् 1863 की गर्मियों में लिखा था. और ये पूरी तरह सच था. हमने देखा
ही है, कि कैसे सोफ्या अन्द्रेयेव्ना शुरू से ही तहे दिल से
पति की दिलचस्पियों में शामिल होने की कोशिश करती थी : वह बड़ी सक्रियता से इतने
बड़े और विविध प्रकार के व्यवसाय को,
जिसमें कोई क्लर्क नहीं
था, चलाने में उसकी मदद करती थी, दफ़्तर में बैठती, गर्भावस्था
के अंतिम महीनों में भी चाभियों का बड़ा गुच्छा कमर में लटकाए भागती, दो मील दूर, मधुमक्खी-पालन
केंद्र में ल्येव निकोलायेविच के लिए नाश्ता लेकर जाती, जहाँ
वह कभी कभी दिन में कई घण्टे बिताता था...उसने दूध निकालने के समय मवेशीखाने में
उपस्थित रहने का (ख़ैर,
इसमें ज़्यादा सफ़लता नहीं
मिली) और किसान बच्चों को पढ़ाने के काम में पति की मदद करने का भी प्रयास किया.
सोफ्या
अन्द्रेयेव्ना ऐसे कामों में भी भाग लेती थी, जैसे
शिकार और मछली पकड़ना. टॉल्स्टॉय वरोन्का नदी के संकरे स्थान चुनता और डंडी पर जाली
लगा देता, और पत्नी अपनी बहन के साथ पानी में छपछप करती, और इस तरह पाइक मछली उस जाली में आ जाती, जिसे वह,
हमेशा की तरह बड़ी
तन्मयता से पकड़े रहता था.
मगर, जल्दी ही इतने सारे कामों का दायरा सिकुड़ने लगा :
स्कूल बंद हो गया,
सामयिक विफ़लताओं के कारण
खेती-बाड़ी के काम में दिलचस्पी भी ख़त्म हो गई. ऊपर से बच्चे भी हो गए, जो युवा माँ का ध्यान अपने ऊपर से हटने नहीं देते थे.
पहले बच्चे के जन्म के कुछ ही दिनों बाद, जैसा
कि हमने देखा,
कुछ परेशानियाँ उत्पन्न
हो गईं : माँ की बीमारी और पति-पत्नी के बीच गंभीर मतभेद. सन् 1864 में बच्ची के जन्म
के साथ नई मुसीबत आई : टॉल्स्टॉय को आहत कंधे के कारण एक महीने के लिए मॉस्को जाना
पड़ा, मगर दो नन्हे-मुन्नों को लेकर सोफ्या अन्द्रेयेव्ना
उसके साथ न जा सकी. बच्चा गंभीर रूप से बीमार था और लगभग मृत्यु की देहलीज़ पर था.
मगर युवा माँ ने हिम्मत नहीं हारी. “मगर तुम, प्यारे,” वह पति को लिखती है, “ मॉस्को
में रहो, तब तक वापस न आओ, जब तक
हमारे यहाँ सब कुछ बिल्कुल ठीक नहीं हो जाता. अभी तो, मेरे
लिए तुम यहाँ होते ही नहीं. मैं हमेशा
बच्चों के ही कमरे में रहती हूँ,
अपने शांत बच्चों के
साथ. रात हो,
या दिन मैं उन्हें अकेला
नहीं छोड़ सकती”.
कभी-कभी, मगर,
उसका दिल दूर जाना
चाहता. बच्चा ठीक हो गया,
सफ़ल ऑपरेशन के बाद पति
भी शीघ्र ही लौटने वाला था. और इस बीच यास्नाया पल्याना में उसकी बहन बच्चों के
साथ आई, और इन दीवारों के भीतर फिर से संगीत गूंजने लगा. और
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने पति को लिखा:
“संगीत, जिसे मैंने कब से नहीं सुना था, फ़ौरन मुझे अपने दायरे से दूर ले गया – लंगोट, बच्चे,
बच्चों का कमरा, जिसके बाहर मैंने कब से कदम नहीं रखा था - और मुझे कहीं दूर ले गया, जहाँ
सब कुछ बिल्कुल अलग था. मुझे अजीब भी लगा, मैंने
अपने भीतर काफ़ी पहले इन सब तारों की झंकार को दबा दिया था, जिनमें पीड़ा हो रही थी, स्पंदन
हो रहे थे संगीत की आवाज़ से,
प्रकृति के दर्शन से, और उस सबसे, जो
तुमने मेरे भीतर कभी नहीं देखा,
जिसके लिए तुम्हें
कभी-कभी दुख भी होता था. मगर इस पल मैं सब महसूस कर रही हूँ, और मुझे पीड़ा भी हो रही है और अच्छा भी लग रहा है. हम
माताओं और गृह स्वामिनियों को इस सबकी ज़रूरत नहीं है...तुम्हारे अध्ययन कक्ष पर
नज़र डालती हूँ,
और मुझे सब कुछ याद आता
है, कि कैसे तुम हथियारों की अलमारी के पास शिकार पर जाने
के लिए तैयार हो रहे थे,
कैसे डोरा तुम्हारे चारों
ओर ख़ुशी से उछल रही थी,
कैसे तुम मेज़ के पास
बैठे थे और लिख रहे थे,
और मैं आऊँगी, डरते-डरते दरवाज़ा खोलूंगी, झांक
कर देखूंगी, कि तुम्हारे काम में बाधा तो नहीं डाल रही हूँ, और तुम देखते हो, कि मैं
सकुचा रही हूँ,
और कहोगे : आ जाओ. और, मुझे बस इसी की चाहत थी. याद आता है, कि कैसे तुम बीमार, दीवान
पर पड़े थे; याद आती हैं वो कठिन रातें, जो
तुमने कंधे का जोड उखडने के बाद काटी थीं. और याद आती है फर्श पर पड़ी हुई अगाफ़ेया
मिखाइलोव्ना,
जो कम रोशनी में ऊँघ रही
थी, मुझे इतना दुख हुआ, कि
तुमसे कह ही नहीं सकती...”
सालों
साल, जब बच्चों की संख्या बढ़ती ही गई, तो सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना को अपने भीतर “उन तारों को”
अधिकाधिक दबाना पड़ा,
जिनके बारे में वह ऊपर
दिए गए पत्र में कहती है. वह पति के साथ पियानो बजाने के लिए बिरले ही समय निकाल
पाती. टॉल्स्टॉय ने उसके भीतर चित्रकला की प्रतिभा को देखा और उसने तूला से
यास्नाया तक शिक्षक के आने-जाने का इंतज़ाम करने की कोशिश की. मगर इस बारे में
विचार जल्दी ही दूर करना पड़ा. मगर फिर भी युवा मालकिन और माँ कभी कभी उस पर सवार
शौक को पूरा करने का मार्ग निकाल ही लेती. वह एक जुनून के साथ पति के रचनात्मक कार्य
से जुड़ गई और उसमें भाग भी लेने लगी. उसने पति की गिच-पिच और मुश्किल से समझ में
आने वाली पांडुलिपियों के पुनर्लेखन की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. वह हॉल के पास, मेहमानख़ाने में, अपनी
छोटी से लिखने की मेज़ के सामने बैठती और खाली समय में लिखती रहती. कागज़ पर झुककर
और अपनी कमज़ोर आँखों से टॉल्स्टॉय की गिचड़-पिचड़ अक्षरों को ग़ौर से देखते हुए, वह पूरी-पूरी शाम लिखती रहती और अक्सर देर रात को ही, सबके बाद, सोने जाती थी. कभी कभी, जब कुछ
बिल्कुल ही न समझ में आने वाले अक्षरों में लिखा होता, तो वह
पति के पास जाती और उससे पूछती. मगर ऐसा कभी-कभार ही होता : उसे परेशान करना अच्छा
नहीं लगता था. टॉल्स्टॉय पांडुलिपि लेता और कुछ अप्रसन्नता से कहता : “इसमें क्या
समझ में नहीं आ रहा है?”,
पढ़ना शुरू करता, मगर कठिन शब्द पर ख़ुद भी अटक जाता और ख़ुद भी बड़ी
मुश्किल से समझ पाता,
या, अंदाज़ लगाता रहता कि उसने क्या लिखा था. उसकी लिखाई
बहुत ख़राब थी और पूरे-पूरे वाक्य पंक्तियों के बीच बीच में, या पन्ने को कोनों में और तिरछा भी लिखने की आदत थी.
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के सुंदर,
साफ़ अक्षरों में लिखे
हुए पन्ने फिर से लेखक के पास सुधार के लिए आते और लगभग हमेशा सोफ़्या
अन्द्रेयेव्ना के पास लौट आते – ऐसे अवतार में, कि
उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता. इस तरह एक ही अध्याय के सुधार और पुनर्लेखन का
काम कई बार होता था,
और कुछ कुछ स्थान तो
पांच या दस भी बार लिखने पड़ते थे. स्तेपान बेर्स अपने संस्मरणों में लिखता है, कि उसकी बहन ने भारी-भरकम उपन्यास “युद्ध और शांति”
सात बार लिखा था.
जब
यास्नाया पल्याना में प्रूफ पहुंचते,
तो वही किस्सा दुहराया
जाता. पहले मार्जिन में प्रूफ वाले निशान, छूटे
हुए अक्षर, विराम चिह्न प्रकट
होते, फिर अलग-अलग
शब्द बदले जाते, फिर पूरे-पूरे वाक्य, काट-छांट, जोड़ना – और आख़िरकार, प्रूफ रंगबिरंगा, कहीं कहीं काला-कलूटा हो जाता और
उस हाल में उसे वापस भेजा नहीं जा सकता था : सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के अलावा कोई भी
चिह्नों की इस गड़बड़ को, स्थानांतरण को, काट-पीट को समझ नहीं सकता था. फिर से वह पूरी रात बैठती और सब कुछ दुबारा
साफ़-सुथरा लिखती. सुबह उसकी मेज़ पर छोटे-छोटे, साफ़ अक्षरों
में करीने से लिखे हुए पन्ने सलीके से रखे होते और सब कुछ तैयार होता था, कि जब “लेवच्का” उठेगा, तो प्रूफ को डाक से भेज दिया
जाएगा. सुबह टॉल्स्टॉय उन्हें फिर से अपने अध्ययन-कक्ष में ले जाता, ताकि “आख़िरी बार” देख ले – और शाम होते-होते फिर वही : सब कुछ नई तरह से
बदला हुआ होता, सब दयनीय अवस्था में होता.
“सोन्या,
मेरी प्यारी, मुझे माफ़ करना, फिर से तुम्हारा सारा काम बिगाड़ दिया, फिर कभी ऐसा नहीं
करूँगा,” धब्बे पड़ी हुई जगहें उसे दिखाते हुए वह आपराधिक
भावना से कहता. “कल ज़रूर भेज देंगे...” और ये “कल” अक्सर हफ्तों और महीनों खिंच
जाता...
ये पेनेलोप (होमर के ‘ऑडेसी’ का एक पात्र – अनु.)
का काम उस युवा महिला को ज़रा भी परेशान न करता. बल्कि,
जब अंतराल होता, तो वह उकता जाती और मांग करती
कि अगला काम दिया जाए. पुनर्लिखित पांडुलिपि को मॉस्को भेजकर, उसे ऐसा लगता, जैसे उसने बच्चे को भेज दिया हो,
और डरती रहती कि कोई उसे नुक्सान न पहुँचा दे. अपनी आत्मकथा में
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना कहती है : “अक्सर, पुनर्लेखन करते समय
मैं उलझन में पड़ जाती और समझ नहीं पाती थी, कि जो मुझे इतना
बढ़िया प्रतीत हुआ था, उस अंश को फिर से क्यों भेजा जा रहा है
और नष्ट किया जा रहा है; और जब हटा दिया गया अंश वापस अपनी
जगह बिठा दिया जाता, तो ख़ुश हो जाती... जो कुछ भी मैं फिर से
लिख रही होती, उसमें मैं अपनी पूरी आत्मा से इतना डूब जाती,
कि ख़ुद ही महसूस करने लगती, कि ये बिल्कुल
दुरुस्त नहीं है, और असल में : कहाँ एक ही शब्द बार-बार
दुहराया जा रहा है, लम्बे-लम्बे वाक्य हैं, कहाँ विराम चिह्नों को बदलना है, मतलब समझाना है
इत्यादि. इस सब की ओर ल्येव निकोलायेविच का ध्यान खींचती हूँ. कभी-कभी वह मेरी टिप्पणियों से ख़ुश होता, और कभी बहस
करता कि ऐसा ही क्यों होना चाहिए, कहेगा, कि छोटी मोटी बातें ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं होतीं, बल्कि
‘सम्पूर्ण चीज़’ महत्वपूर्ण होती
है...पुनर्लेखन करते हुए, मैं कभी कभी अपनी टिप्पणियाँ लिख
देती और विनती करती कि वो सब हटा दिया जाए, जो नौजवानों के पढ़ने
के लिये साफ़-सुथरा नहीं होता, जैसे, उदाहरण
के लिए, ख़ूबसूरत हेलेन की (“युद्ध और शांति” में) कुटिलता के
दृश्य, और ल्येव निकोलायेविच मेरी बात मान लेते थे. मगर मैं
अपनी ज़िंदगी में, अपने पति की रचनाओं के काव्यात्मक और
आकर्षक वर्णनों का पुनर्लेखन करते हुए, रोने लगती थी,
इसलिए नहीं कि उस वर्णन ने मेरे दिल को छू लिया था, बल्कि सिर्फ कलात्मक आनंद से, जो लेखक के साथ-साथ
मैं भी महसूस करती थी...”
धीरे-धीरे वह बच्ची,
जो अपने पति के विचारों से सोचती थी और उसके शब्दों से बोलती थी,
बड़ी हो रही है और अपनी आत्मनिर्भरता प्रदर्शित करती है. वह परिवेश
में और घर की व्यवस्था में कुछ सुधार करती है. पति कभी-कभी भलमनसाहत से उसकी मेहनत
पर बड़बड़ाता है : उसे कोई भी नया परिवर्तन पसंद नहीं आता.
वह,
उदाहरण के लिए, उसका अजीब सा तकिया हथिया लेती
है, जिस पर पति सोता है, और उसकी जगह
पर रेशमी, नरम, गिलाफ़ से ढंका तकिया रख
देती है.
“लेवच्का,”
वह नम्रता से कहती है, “तुम्हें ज़्यादा अच्छी
नींद आयेगी बड़े...”
घर के चारों ओर गोखरू और
कंटीली झाडियाँ उसे पागल कर देती हैं.
लंबे अनिर्णय के बाद, वह, आख़िरकार
आदेश देती है, कि घर के चारों ओर का झाड़-झंखाड़ साफ़ कर दिया
जाए, पगडंडियों पर बालू बिछाई जाए, कहीं-कहीं
क्यारियाँ बनाकर फूलों के पौधे लगाए जाएँ.
“समझ में नहीं आता,
कि ये सब किसलिए?” ल्येव निकोलायेविच गुर्राता
है. “इसके बगैर भी आराम से ही जी रहे थे.”
मगर उदाहरण से संक्रमित
होकर, वह ख़ुद भी बाग में बेंचों को रंग लगाने लगा,
पगडंडियाँ और पेडों वाले गलियारे साफ करने लगा.
वह पूरे निर्धार के साथ
जागीर में पीने का साफ़ पानी लाने की कठिन समस्या को हल करती है और उसे एक मील दूर,
वरोन्का नदी से लाने पर मजबूर करती है. धीरे-धीरे वह घर की सारी
व्यवस्था अपने हाथों में ले लेती है, अपने नियम बनाती है और
पति की निरंतर इतनी देखभाल और फिक्र करती, जो उसके जीवन के
लगभग अंत तक चलती रही. एक बार यास्नाया पल्याना में काफ़ी प्रसिद्ध लेखक काउन्ट सलोगूब
आये. युवा दम्पत्ति का ग़ौर से निरीक्षण करने के बाद उन्होंने सोफ्या अन्द्रेयेव्ना
से कहा : “आप अपने पति की योग्यता की देखभाल करने वाली असली ‘उपमाता’ हैं, और जीवन भर इसी
दिशा में चलती रहें”.
विशाल उपन्यास (“युद्ध और
शांति”) समाप्त करने के बाद टॉल्स्टॉय फिर से शैक्षणिक गतिविधियों के प्रति अपनी
रुचि की ओर वापस मुड़े. साहित्यिक गतिविधियों को न छोड़ते हुए और समय-समय पर
ऐतिहासिक उपन्यासों (“डिसेम्ब्रिस्ट्स”, “पीटर प्रथम”) पर काम करते हुए, उन्होंने
अपनी अधिकांश शक्ति को साठ के दशक की अपनी शैक्षणिक गतिविधियों के परिणामों का
सारांश निकालने में समर्पित कर दिया. उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा के लिए दो पुस्तकें
प्रकाशित कीं (“एबीसी”), जो उनके अपने विचारों पर
आधारित, साक्षरता की शिक्षा देने की बेहतरीन पद्धतियों के
बारे में थीं. इस बार तो वह इतने प्रसिद्ध हो गए, कि उनके द्वारा
अपनाई गई पद्धतियों पर किए गए हमले छुपे हुए न रह सके. एक वाद-विवाद खड़ा हो गया,
जो “नोट्स ऑफ द फादरलैण्ड” में (उस समय की अत्यधिक लोकप्रिय
पत्रिका में – अनु.) टॉल्स्टॉय के चुनौती भरे लेख - “सार्वजनिक शिक्षा के बारे
में” – के प्रकाशन से अधिक गहरा गया. इस लेख के कारण भयानक तूफ़ान खड़ा हो गया. इस
नए शौक में जी-जान से लगे हुए टॉल्स्टॉय को केवल लेखों से ही संतोष नहीं था.
उन्होंने मॉस्को में शिक्षा-कमिटी के सामने अपनी शिक्षा पद्धति के पक्ष में
सार्वजनिक रूप से भाषण दिया और एक पूरी प्रतियोगिता जीत ली : शिक्षा-कमिटी के
तत्वावधान में समांतर रूप से दो स्कूल चलाए गए, एक
उच्चारण-पद्धति से प्राथमिक शिक्षा देता था, और दूसरा
टॉल्स्टॉय की – शब्दों के हिज्जे करने की पद्धति से. उसने यास्नाया पल्याना में
आसपास के स्कूलों के शिक्षकों को इकट्ठा किया, उनके साथ
विचार-विमर्श किया, पाठ पढ़ाये. वह गाँव में “चटाई के जूतों
में विश्वविद्यालय” का सपना देख रहा था और उसके लिए कोशिश कर रहा था – ये उच्च
शिक्षा का ऐसा विश्वविद्यालय होने वाला था, जिसमें किसानों
के काफ़ी सुयोग्य बच्चे गाँव के वातावरण से बाहर निकले बिना अपनी शिक्षा जारी रख
सकते थे. अपने सैद्धांतिक निष्कर्षों को व्यावहारिक रूप में जाँचने के लिए
टॉल्स्टॉय ने सन् 1872 के आरंभ में फिर से यास्नाया पल्याना में किसानों के बच्चों
के लिए स्कूल खोला और उसमें पढ़ाने के लिए अपने पूरे परिवार और मेहमानों को भी घसीट
लिया. सोफ्या अन्द्रेयेव्ना अपनी बहन को लिखती है:
“हमने त्यौहारों के बाद
स्कूल शुरू करने के बारे में सोचा, और अब हर रोज़ लंच
के बाद करीब 35 बच्चे आते हैं, और हम उन्हें पढ़ाते हैं.
सिर्योझा पढ़ाता है, और तान्या और कोस्त्या अंकल, और लेवच्का और मैं. एकसाथ 10 बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल है; मगर बहुत मज़ा आता है, और अच्छा लगता है. हमने बच्चों
को समूहों में बांट दिया है, मैंने आठ लड़कियाँ और दो लड़के
लिए हैं. तान्या और सिर्योझा काफ़ी सलीके से पढ़ाते हैं, एक
हफ़्ते में सब लोग सुनसुनकर अक्षर और मात्राएँ सीख गए हैं. हम नीचे पढ़ाते हैं,
प्रवेश कक्ष में, जो बहुत बड़ा है, सीढियों के नीचे वाले छोटेसे ड्राइंग रूम में और नए कमरे में. साक्षरता
सिखाने के लिए जिस बात से प्रेरणा मिलती है, वो ये है, कि ये इतना ज़रूरी है, और वो लोग इतनी प्रसन्नता से
और इतने शौक से सीखते हैं”.
ये स्कूल ज़्यादा दिन नहीं
चला. मगर स्कूल के ख़त्म होने से शिक्षा के प्रति रुचि ख़त्म नहीं हुई,
जिससे धीरे धीरे सोफ्या अन्द्रेयेव्ना को परेशानी होने लगी. साल
ख़त्म होते-होते उसके पत्रों से अप्रसन्नता झलकने लगती है: “हमारे उस घर में पब्लिक
स्कूलों के शिक्षकों का झुण्ड आया हुआ है, करीब 12 लोग,
एक सप्ताह के लिए आए हैं. लेवच्का उन्हें बच्चों को साक्षरता सिखाने
की अपनी पद्धति के बारे में बताता है. और वो कुछ चर्चा करते हैं; ऐसे बच्चों को वहाँ लाते हैं, जिन्होंने अभी शुरुआत
नहीं की है, और अब, सवाल ये है,
कि लेवच्का की पद्धति से वह कितनी शीघ्रता से सीख पाते हैं. उपन्यास
पूरी तरह फेंक दिया है, और इस बात से मुझे दुख होता है”.
इस दुख को बढ़ते ही जाना
था. सन् 1874 के अंत में सोफ्या अन्द्रेयेव्ना अपने भाई को लिखती है : “हमारा
सर्दियों का जीवन कुछ बेहतर हो गया है. लेवच्का पूरी तरह लोक-शिक्षा में,
स्कूलों में, शिक्षकों की संस्थाओं में,
मतलब, जहाँ पब्लिक स्कूलों के लिए शिक्षकों को
ट्रेनिंग दी जायेगी, तन्मय है, और ये
सब उसे सुबह से शाम तक व्यस्त रखता है. मैं परेशानी से ये सब देखती रहती हूँ,
मुझे इस बात का दुख होता है, कि उसकी शक्ति
उपन्यास लिखने के बदले इन बातों में खर्च होती है, और मुझे
समझ में नहीं आता कि इसकी कितनी उपयोगिता है, क्योंकि ये
सारी गतिविधि रूस के एक छोटे से कोने – “क्रापिवेन्स्की जिले में - फैल रही है.
आख़िरकार वह सीधे-सीधे बहन
को अपने दिल की बात बता देती है: “लेवच्का ने बच्चों के लिए अमेरिका के प्रथम,
द्वितीय और तृतीय रीडर की तर्ज़ पर फिर से “एबीसी” लिखने का निश्चय
किया है....उपन्यास लिखा नहीं जा रहा है, और सभी प्रकाशन गृहों
से ख़त आते रहते हैं : 10 हज़ार अग्रिम और 500 प्रति प्रकाशन पृष्ठ के हिसाब से.
लेवच्का इस बारे में बात ही नहीं करता, जैसे ये उसका काम ही
न हो. मगर मैं ख़ुदा की शुक्रगुज़ार हूँ – पैसों के लिए, मगर
ख़ास बात है वो काम, मतलब उपन्यास लिखना, मुझे अच्छा लगता है और मैं उसकी बहुत कद्र करती हूँ, और उसके बारे में हमेशा काफ़ी परेशान भी रहती हूँ; और
ये एबीसी, अंकगणित, व्याकरण – इनसे मैं
चिढ़ती हूँ और झूठ-मूठ दिखा नहीं सकती कि मुझे उनसे सहानुभूति है. और अब मेरे जीवन
में कुछ कमी है, कुछ कमी, जो मुझे पसंद
था, और वो है लेवच्का का काम, जिससे
मुझे ख़ुशी मिलती थी और उसके प्रति इज़्ज़त पैदा होती थी..”
इस तरह से धीरे-धीरे कुछ
मतभेद पनपने लगे. वैवाहिक जीवन के 12 वर्षों बाद युवा पत्नी के अपने विचार और अपनी
पसंद प्रकट हो गए थे और वह उन्हें खुल्लम खुल्ला और सीधे-सीधे कहने से नहीं डरती
थी.
ख़ैर,
इस बार तो सब ठीक-ठाक ख़त्म हो गया. उपन्यास, जिसका
वह अपने अंतिम पत्र में ज़िक्र कर रही है, वो था “आन्ना
करेनिना”. 19 मार्च 1873 को शुरू किया गया ये उपन्यास, काफ़ी
अंतरालों सहित, सन् 1877 में पूरा हुआ और उसने रूसी साहित्य
में एक युग का निर्माण कर दिया. इससे पूर्व के साहित्यिक उपक्रम (
“डिसेम्ब्रिस्ट्स”, “पीटर प्रथम”) वैसे ही अंशों में रह गए,
मगर “आन्ना करेनिना” ने सोफ्या अन्द्रेयेव्ना के लिए फिर से उस
ख़ुशनुमा समय को पुनर्जीवित कर दिया, जब वह घंटों अपनी नींद
को दूर भगाती थी, टॉल्स्टॉय की पांडुलिपी के उलझनभरे पृष्ठों
को समझकर बार-बार लिखती रहती थी.
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